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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    आद॑स्य॒ ते ध्व॒सय॑न्तो॒ वृथे॑रते कृ॒ष्णमभ्वं॒ महि॒ वर्प॒: करि॑क्रतः। यत्सीं॑ म॒हीम॒वनिं॒ प्राभि मर्मृ॑शदभिश्व॒सन्त्स्त॒नय॒न्नेति॒ नान॑दत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । अ॒स्य॒ । ते । ध्व॒सय॑न्तः । वृथा॑ । ई॒र॒ते॒ । कृ॒ष्णम् । अभ्व॑म् । महि॑ । वर्पः॑ । करि॑क्रतः । यत् । सी॒म् । म॒हीम् । अ॒वनि॑म् । प्र । अ॒भि । मर्मृ॑शत् । अ॒भि॒ऽश्व॒सन् । स्त॒नयन् । एति॑ । नान॑दत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदस्य ते ध्वसयन्तो वृथेरते कृष्णमभ्वं महि वर्प: करिक्रतः। यत्सीं महीमवनिं प्राभि मर्मृशदभिश्वसन्त्स्तनयन्नेति नानदत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत्। अस्य। ते। ध्वसयन्तः। वृथा। ईरते। कृष्णम्। अभ्वम्। महि। वर्पः। करिक्रतः। यत्। सीम्। महीम्। अवनिम्। प्र। अभि। मर्मृशत्। अभिऽश्वसन्। स्तनयन्। एति। नानदत् ॥ १.१४०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यद्ये कृष्णमभ्वं महि वर्पो ध्वसयन्तः करिक्रतो वृथा प्रेरते तेऽस्य मोक्षस्य प्राप्तिं नार्हन्ति यो महीमवनिमभिमर्मृशदभिश्वसन् नानदत् स्तनयन् शुभान् गुणान् सीमेति आत् स मुक्तिमाप्नोति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (आत्) आनन्तर्ये (अस्य) (ते) (ध्वसयन्तः) ध्वसमिवाचरन्तः (वृथा) मिथ्या (ईरते) (कृष्णम्) वर्णम् (अभ्वम्) अभवन्तम् (महि) महत् (वर्पः) (करिक्रतः) येऽतिशयेन कुर्वन्ति (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (महीम्) महतीम् (अवनिम्) पृथिवीम् (प्र) (अभि) (मर्मृशत्) अतिशयेन सहमानः (अभिश्वसन्) सर्वतः श्वसन्प्राणं धरन् (स्तनयन्) विद्युदिव शब्दयन् (एति) गच्छति (नानदत्) अतिशयेन नादं कुर्वन् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या इह शरीरमवलम्ब्याधर्ममाचरन्ति ते दृढं बन्धमाप्नुवन्ति ये च शास्त्राण्यधीत्य योगमभ्यस्य धर्ममनुतिष्ठन्ते तेषामेव मुक्तिर्जायत इति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जो (कृष्णम्) काले वर्ण के (अभ्वम्) न होनेवाले (महि) बड़े (वर्पः) रूप को (ध्वसयन्तः) विनाश करते हुए से (करिक्रतः) अत्यन्त कार्य करनेवाले जन (वृथा) मिथ्या (प्रेरते) प्रेरणा करते हैं (ते) वे (अस्य) इस मोक्ष की प्राप्ति को नहीं योग्य हैं जो (महीम्) बड़ी (अवनिम्) पृथिवी को (अभि, मर्मृशत्) सब ओर से अत्यन्त सहता (अभिश्वसन्) सब ओर से श्वास लेता (नानदत्) अत्यन्त बोलता और (स्तनयन्) बिजुली के समान गर्जना करता हुआ अच्छे गुणों को (सीम्) सब ओर से (एति) प्राप्त होता है (आत्) इसके अनन्तर वह मुक्ति को प्राप्त होता है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य इस संसार में शरीर का आश्रय कर अधर्म करते हैं, वे दृढ़ बन्धन को पाते हैं और जो शास्त्रों को पढ़, योगाभ्यास कर, धर्म का अनुष्ठान करते, उन्हीं की मुक्ति होती है ॥ ५ ॥

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    विषय

    सच्चा कर्मयोगी

    पदार्थ

    १. (आत्) = अब अस्य इस परमात्मा के (ते) = वे उपासक (ध्वसयन्तः) = सब वासनाओं का ध्वंस करते हुए वृथा कर्मफल का आश्रय न करके, केवल कर्तव्य भावना से ही (ईरते) = गति करते हैं। इनके सभी कर्म किसी भी प्रकार के स्वार्थ को लिये हुए नहीं होते। ये उपासक (अभ्वम्) = महान् (कृष्णम्) = संयम को तथा (महि वर्पः) = प्रशंसनीय तेजस्वी रूप को (करिक्रतः) = [कुर्वन्तः - सा०] करते हुए होते हैं। इन उपासकों का जीवन महान् संयमवाला होता है, परिणामतः तेजस्विता को लिये हुए होता है। २. (यत्) = जब (सीम्) = निश्चय से यह उपासक (महीम्) = इस महान् (अवनिम्) = पृथिवी के (प्र अभि मर्मृशत्) = [अभिमृश् to come in contact with] प्रकर्षेण सम्पर्क में आता है, अर्थात् इस पृथिवी को ही परिवार बना लेता है-'वसुधैव कुटुम्बकम्', तब यह (अभिश्वसन्) = इहलोक और परलोक दोनों के लिए जीता हुआ- केवल ऐहिक आनन्द को ही अपना ध्येय न बनाकर चलता हुआ (स्तनयन् एति) = चारों ओर ज्ञान के शब्दों का उच्चारण करता हुआ चलता है। यह (नानदत्) = खूब ही स्तोत्रों का उच्चारण करता हुआ एति गतिमय जीवनवाला होता है। प्रभु-उपासक सारी पृथिवी के हित के कार्यों में प्रवृत्त होता है, निजू जीवन का सुख उसका ध्येय नहीं होता। यह ज्ञान का प्रसार करता है, स्तोत्रों का उच्चारण करता है। वस्तुतः ये स्तोत्र ही इसे शक्ति देनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के उपासक सच्चे कर्मयोगी होते हैं। ये सारी पृथिवी को ही अपना परिवार समझते हैं, ज्ञान का प्रसार करते हैं, स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं।

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    विषय

    अश्वों के तुल्य, मुमुक्षु जनों का वर्णन, वीरों, सूर्य रश्मियों के तुल्य विवेकी मुमुक्षुओं को वासना नाश कर मुक्त होने का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( आत् ) उसके पश्चात् जो मुमुक्षु जन ( अभ्वं कृष्णम् ) ‘असत्’ काले, अशुक्ल, पापमय मलिन कर्माशय या मिथ्या ज्ञान का ( ध्वसयन्तः ) विनाश करते और ( महि ) बड़े भारी ( अभ्वं ) अव्यक्त ( वर्पः ) वरणे योग्य आत्मस्वरूप को भी ( करिक्रतः ) साक्षात् कर लेते हैं वे (अस्य) इस परमेश्वर को ( वृथा ) अनायास ही ( ईरते ) प्राप्त हो जाते हैं। क्योंकि ( यत् ) जो पुरुष ( सीम् ) सब प्रकार से, सर्वतो भावेन, ( महीम् वनिम् ) उस महान् सर्वरक्षक को ( प्र अभिमर्मृशत् ) प्राप्त हो जाता है, उस तक पहुंच जाता है वह (अभि श्वसन्) आश्वासन या हृदय की शान्ति को प्राप्त हुआ और (स्तनयन्) मेघ के समान उत्साह से गर्जता हुआ और ( नानदत् ) सिंह के समान नाद करता हुआ, अति उत्साहवान्, निर्भय, और अन्तर्ब्रह्म नाद में लीन होकर ( प्र एति ) परम पद को प्राप्त होता है । ( २ ) सूर्य पक्ष में—अग्नि या सूर्य के ( ते ) वे प्रकाश ( कृष्णं अभ्वं ध्वसयन्तः ) काले असत् अन्धकार का नाश करते हुए ( महि वर्यः करिक्रतः ) बड़े सुन्दर प्रकाश को प्रकट करते हैं । वे अनायस फैल जाते हैं । और वह ( श्वसन् ) वायु रूप से मानो श्वास लेता हुआ, मेघ रूप से ( स्तनयन् ) गर्जता हुआ ( अवनिम् ) भूमि को प्राप्त होता है । ( ३ ) वीर पुरुष जो शत्रु का नाश करते हुए राजा के आकर्षक, बड़े भारी रूप को बना लेते हैं वे अनायस उच्च पद तक पहुंचते हैं । और वह राजा गर्जता हुआ उत्साह पूर्वक पृथ्वी के पालक पद को प्राप्त करता हुआ आगे बढ़ता है । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे या जगात शरीराद्वारे अधर्म करतात ती दृढ बंधनात अडकतात व जी शास्त्र वाचून योगाभ्यास करून धर्माचे अनुष्ठान करतात त्यांनाच मुक्ती मिळते. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When this Agni, mighty hero of light and power, goes forward blowing, roaring, thundering and striking, covering and vitalising this great earth all round, then those warriors of his, men of action, advance at will destroying the monstrous ways of darkness and creating mighty forms of life and social structure.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The path of final emancipation (MOKSHA ) is underlined here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Persons not serious for attaining the emancipation but trying to create gloom everywhere place themselves in false and vain activities. But one who faces all challenges, he deservedly attains salvation. Such a person works hard with necessary breath-taking (Pranayama) exercises. Such a person thunders like the lightning and roars aloud during his preaching of the eternal message of the Vedas.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons with sins in their records are born and reborn in bondage. But those who study the Shastras, practice Yoga and observe the rules of Dharma (righteousness) attain emancipation.

    Foot Notes

    (सीम्) सर्वतः = On all sides ( मर्मृशत् ) अतिशयेन सहमानः = Putting up with all difficulties and obstacles.

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