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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    कृ॒ष्ण॒प्रुतौ॑ वेवि॒जे अ॑स्य स॒क्षिता॑ उ॒भा त॑रेते अ॒भि मा॒तरा॒ शिशु॑म्। प्रा॒चाजि॑ह्वं ध्व॒सय॑न्तं तृषु॒च्युत॒मा साच्यं॒ कुप॑यं॒ वर्ध॑नं पि॒तुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒ष्ण॒ऽप्रुतौ॑ । वे॒वि॒जे इति॑ । अ॒स्य॒ । स॒ऽक्षितौ॑ । उ॒भा । त॒रे॒ते॒ इति॑ । अ॒भि । मा॒तरा॑ । शिशु॑म् । प्रा॒चाऽजि॑ह्वम् । ध्व॒सय॑न्तम् । तृ॒षु॒ऽच्युत॑म् । आ । साच्य॑म् । कुप॑यम् । वर्ध॑नम् । पि॒तुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृष्णप्रुतौ वेविजे अस्य सक्षिता उभा तरेते अभि मातरा शिशुम्। प्राचाजिह्वं ध्वसयन्तं तृषुच्युतमा साच्यं कुपयं वर्धनं पितुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृष्णऽप्रुतौ। वेविजे इति। अस्य। सऽक्षितौ। उभा। तरेते इति। अभि। मातरा। शिशुम्। प्राचाऽजिह्वम्। ध्वसयन्तम्। तृषुऽच्युतम्। आ। साच्यम्। कुपयम्। वर्धनम्। पितुः ॥ १.१४०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यं प्राचाजिह्वं ध्वसयन्तं तृषुच्युतमासाच्यं कुपयं पितुर्वर्द्धनं शिशुं सक्षितौ मातराभितरेते अस्य तावुभा मातरा कृष्णप्रुतौ वेविजे ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (कृष्णप्रुतौ) विद्वदुपदेशेन चित्ताकर्षणवृत्तिं प्राप्नुवत्यौ (वेविजे) भृशं बिभीतः। ओविजी भयचलनयोरित्यस्माद् यङ्लुगन्ताद्व्यत्ययेनात्मनेपदमेकवचनं च। (अस्य) (सक्षितौ) सह निवसन्त्यौ (उभा) उभे (तरेते) (अभि) (मातरा) मातरौ धात्रीजनन्यौ (शिशुम्) बालकम् (प्राचाजिह्वम्) प्राक्दुग्धप्रदानादितः पूर्वं समन्ताज्जिह्वा यस्य तम् (ध्वसयन्तम्) चाञ्चल्येनाधःपतन्तम्। ध्वसु ध्वंसु अधःपतन इत्यस्मात् स्वार्थे णिच्। (तृषुच्युतम्) क्षिप्रं पतितम्। तृष्विति क्षिप्रना०। निघं० २। १५। (आ) (साच्यम्) साचितुं समवेतुं योग्यम् (कुपयम्) गोपनीयम् (वर्धनम्) वर्द्धयितारम् (पितुः) जनकस्य ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    सदसद्ज्ञानवर्द्धकं रोगादिक्लेशनिवारकं प्रेमोत्पादकं विद्वदुपदेशं प्राप्ते अपि बालकस्य जनन्यौ निजप्रेम्णा सर्वदा बिभीतः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जिस (प्राचाजिह्वम्) दुग्ध आदि के देने से पहिले अच्छे प्रकार जीभ निकालने (ध्वसयन्तम्) गोदी से नीचे गिरने (तृषुच्युतम्) वा शीघ्र गिरे हुए (आ, साच्यम्) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करने अर्थात् उठा लेने (कुपयम्) गोपित रखने योग्य और (पितुः) पिता का (वर्द्धनम्) यश वा प्रेम बढ़ानेवाले (शिशुम्) बालक को (सक्षितौ) एक साथ रहनेवाली (मातरा) धायी और माता (अभि, तरेते) दुःख से उत्तीर्ण करती (अस्य) इस बालक की वे (उभा) दोनों मातायें (कृष्णप्रुतौ) विद्वानों के उपदेश से चित्त के आकर्षण धर्म को प्राप्त हुई (वेविजे) निरन्तर कँपती हैं अर्थात् डरती हैं कि कथंचित् बालक को दुःख न हो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    भले-बुरे का ज्ञान बढ़ाने, रोग आदि बढ़े क्लेशों को दूर करने और प्रेम उत्पन्न करानेवाले विद्वानो के उपदेश को पाये हुए भी बालक की माता अर्थात् दूध पिलानेवाली धाय और उत्पन्न करानेवाली निज माता अपने प्रेम से सर्वदा डरती हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    ज्ञान और वैराग्य का समन्वय

    पदार्थ

    १. (अस्य) = इसके (सक्षिता उभा) = साथ-साथ निवास करनेवाले ज्ञान व श्रद्धा के भाव (कृष्णप्रुतौ) = कृष्= [to become master of, प्र- गतौ] संयत गतिवाले होकर (वेविजे) = वासनाओं के लिए भयंकर होते हुए गतिशील होते हैं। जब ज्ञान और श्रद्धा हमारे पूर्णरूप से वशीभूत होते हैं तब हमारे जीवन में वासनाओं के लिए स्थान नहीं रहता। अवशीभूत ज्ञान विरोधी युक्तियाँ करने लगता है। अवशीभूत श्रद्धा अन्धश्रद्धा के रूप में परिवर्तित हो जाती है। २. वशीभूत ज्ञान व श्रद्धा (उभा) = दोनों मिलकर (मातरा) = हमारे जीवन का निर्माण करनेवाले होते हैं और (शिशुं अभि तरेते) = छोटे बालक को शारीरिक व मानसिक दोनों दृष्टिकोणों से तारनेवाले होते हैं। ज्ञान और श्रद्धा के कारण इसका शरीर नीरोग रहता है और मन पवित्र बना रहता है। ३. ज्ञान और श्रद्धा के समन्वय से इसका जीवन इस प्रकार का बनता है - [क] (प्राचाजिह्वम्) = [प्र+अञ्च] जिसकी जिह्वा सदा औरों को आगे बढ़ानेवाले शब्दों का ही प्रयोग करती है, [ख] (ध्वसयन्तम्) = जो अन्धकार का विनाश करता है, ज्ञान के द्वारा अज्ञानान्धकार को यह दूर करनेवाला होता है, [ग] (तृषुच्युतम्) = शीघ्रता से वासनाओं का विनाश करता है, [घ] (आसाच्यम्) = वासनाविनाश के द्वारा प्रभु से मेल करनेवाला होता है, [ङ] (कुपयम्) = [गोप्यम्] इन्द्रियों, मन और बुद्धि का रक्षण करता है, [च] (पितुः वर्धनम्) = उस पिता प्रभु का स्तोत्रों के द्वारा वर्धन करनेवाला है, सदा प्रभुस्तवन करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - श्रद्धा व ज्ञान के समन्वय से हम ऐहिक व पारलौकिक उन्नति को सिद्ध कर पाते हैं।

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    विषय

    बालक के प्रति माता पिता के समान राजा प्रजावर्ग के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मातरा ) माता और पिता ( उभा ) दोनों ( शिशुम् अभि ) बच्चे को लक्ष्य करके ( कृष्णप्रुतौ ) उसके प्रति सदा आकर्षण या मन खिंचाव या प्रेम से पूर्ण रहते हैं और वे ( अस्य सक्षितौ ) उसके सदा साथ रहा करते हैं। और वे दोनों ( पितुः वर्धनम् ) पिता के यश, हर्ष, कुल गोत्र को बढ़ाने वाले (प्राचाजिह्वं) आगे जीभ निकालने वाले ( ध्वसयन्तं ) गिरते पड़ते, ( तृषुच्युतम् ) शीघ्र ही फिसल जाने वाले, ( साच्यं ) सुन्दर, सदा सहाय योग्य ( कुपयं ) रक्षण करने योग्य बालक को ( आ ) लक्ष्य करके ( अभि तरेते ) खूब प्रसन्न होते हैं उसी प्रकार ( शिशुम् अभि ) अन्धकार को नित्य निरन्तर नाश करने वाले ( प्राचाजिह्वं ) प्राची दिशा में प्रीति प्रकट करने वाले, ( ध्वसयन्तम् ) अन्धकार को नाश करते हुए, ( तृषुच्युतम् ) अति शीघ्रता से गति करने वाले, (साच्यं) सुन्दर, सर्वाश्रय योग्य ( कुपयम् ) सब के पालक (पितुः वधर्नम्) पालक पर्जन्य या मेघ को बढ़ानेवाले सूर्य को (आ अभि) लक्ष्य करके (अस्य मातरा) उसके माता पिता के समान आकाश और पृथ्वी दोनों ( सक्षिता ) एक साथ रहने वाले ( कृष्णप्रुतौ ) उसके आकर्षण बल से व्याप्त होकर (वेविजे) मानो भय से कांपते हैं। उसके द्वारा संचालित होते हैं । और ( उभा ) दोनों ( अभि तरेते ) चलते हैं । (२) उसी प्रकार राजवर्ग और प्रजा वर्ग भी ( संक्षिता ) एकत्र ही निवास करते हुए, ( कृष्णप्रुतौ ) शत्रु दल को गिरा देने और प्रजा के आकर्षण करने के गुणों से व्याप्त होकर ( वेविजे ) भय से कांपते और ( उभा ) दोनों ( मातरा शिशुम् अभितरेते ) बालक को मां बाप के समान राजा को ही प्राप्त होते और उसकी वृद्धि करते हैं। और पिता के बढ़ाने वाले बालक के समान ही उसको भी ( प्राचाजिह्वं ) मुख्य उत्तम वाणी से युक्त ( ध्वसयन्तं ) शत्रु को नाश करने वाला ( तृषुच्युतम् ) शीघ्र ही शत्रु को सिंहासन पद से उखाड़ देने वाला ( साच्यं ) सखा या संघ शक्ति का आश्रय ( कुपयं ) राष्ट्ररक्षक (आ) जानकर आश्रय लेते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    चांगल्या वाईट गोष्टीचे ज्ञान वाढविणारी, रोगांचे निवारण करणारी, प्रेम उत्पन्न करणारी अशी बालकाची माता किंवा दाई विद्वानांचा उपदेश प्राप्त होऊनही बालकावरील प्रेमामुळे सदैव घाबरते. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Both the mothers of this Agni, i.e., the mother and the guru-mother of the scholar at school, both equal in ambition, rising to the clouds in hope, vibrate in ecstasy like the two arani woods which produce the fire, and look forward to the success of their child speaking boldly, destroying the darkness of ignorance and acquiring knowledge, being reborn fast, worthy of the company, joy and honour of his father, but carefully to be guarded at every critical step.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The previous thems is further developed here.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Real and the foster mother, both, try to protect the child from all sorts of trouble. The child looks forward to his two mothers anxiously for the milk. Father also looks to his son lovingly. Likewise, the learned persons also take full care of the common man.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Foot Notes

    (कृष्णप्रुतौ) विद्वद्रुपदेशेन चित्ताकर्षणवृत्ति प्राप्नुवन्त्यौ = Attracted towards the enlightened person. (तृषुच्युतम् ) क्षिप्रं पतितम् । तृषितिक्षिप्रनाम (NG 2.15) = Falling down suddenly.

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