ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 6
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
भूष॒न्न योऽधि॑ ब॒भ्रूषु॒ नम्न॑ते॒ वृषे॑व॒ पत्नी॑र॒भ्ये॑ति॒ रोरु॑वत्। ओ॒जा॒यमा॑नस्त॒न्व॑श्च शुम्भते भी॒मो न शृङ्गा॑ दविधाव दु॒र्गृभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठभूष॑न् । न । यः । अधि॑ । ब॒भ्रूषु॑ । नम्न॑ते । वृषा॑ऽइव । पत्नीः॑ । अ॒भि । ए॒ति॒ । रोरु॑वत् । ओ॒जा॒यमा॑नः । त॒न्वः॑ । च॒ । शु॒म्भ॒ते॒ । भी॒मः । न । शृङ्गा॑ । द॒वि॒धा॒व॒ । दुः॒ऽगॄभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूषन्न योऽधि बभ्रूषु नम्नते वृषेव पत्नीरभ्येति रोरुवत्। ओजायमानस्तन्वश्च शुम्भते भीमो न शृङ्गा दविधाव दुर्गृभि: ॥
स्वर रहित पद पाठभूषन्। न। यः। अधि। बभ्रूषु। नम्नते। वृषाऽइव। पत्नीः। अभि। एति। रोरुवत्। ओजायमानः। तन्वः। च। शुम्भते। भीमः। न। शृङ्गा। दविधाव। दुःऽगृभिः ॥ १.१४०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
के जना इह शोभन्त इत्याह।
अन्वयः
यो भूषन्नेव बभ्रूष्वधिनम्नते पत्नीरोरुवद्वृषेव बलं दुर्गृभिर्भीमः सिंहः शृङ्गा नेवोजायमानस्तन्वश्च शुम्भते दविधाव सोऽत्यन्तं सुखमभ्येति ॥ ६ ॥
पदार्थः
(भूषन्) अलंकुर्वन् (न) इव (यः) (अधि) (बभ्रूषु) धर्मं धरन्तीषु (नम्नते) (वृषेव) यथा वृषा (पत्नीः) यज्ञसम्बन्धिनीः स्त्रियः (अभि) (एति) प्राप्नोति (रोरुवत्) अतिशयेन शब्दयन् (ओजायमानः) ओज इवाचरन् (तन्वः) तनूः शरीराणि (च) (शुम्भते) सुशोभते। अत्र व्यत्येनात्मनेपदम्। (भीमः) भयङ्करः (न) इव (शृङ्गा) शृङ्गाणि (दविधाव) भृशं चालयति (दुर्गृभिः) दुःखेन ग्रहीतुं योग्यैः ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये सिंहवच्छत्रुदुर्ग्राह्या वृषभवद्बलिष्ठाः पुष्टाऽऽरोग्यशरीरा महौषधिसेविनः सर्वान् सज्जनान् भूषयेयुस्तेऽत्र सुशोभन्ते ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन मनुष्य इस जगत् में शोभायमान होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यः) जो (भूषन्) अलंकृत करता हुआ (न) सा (बभ्रूषु) धर्म की धारणा करनेवालियों में (अधि, नम्नते) अधिक नम्र होता वा (पत्नीः) यज्ञसम्बन्ध करनेवाली स्त्रियों को (रोरुवत्) अत्यन्त बातचीत कह सुनाता वा (वृषेव) बैल के समान बल को और (दुर्गृभिः) दुःख से पकड़ने योग्य (भीमः) भयङ्कर सिंह (शृङ्गा) सींगो को (न) जैसे वैसे (ओजायमानः) बैल के समान आचरण करता हुआ (तन्वः) शरीर को (च) भी (शुम्भते) सुन्दर शोभायमान करता वा (दविधाव) निरन्तर चलाता अर्थात् उनसे चेष्टा करता वह अत्यन्त सुख को (अभि, एति) प्राप्त होता है ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य सिंह के तुल्य शत्रुओं से अग्राह्य, बैल के तुल्य अति बली, पुष्ट, नीरोग शरीरवाले, बड़ी ओषधियों के सेवक सब सज्जनों को शोभित करें, वे इस जगत् में शोभायमान होते हैं ॥ ६ ॥
विषय
नम्र व ओजस्वी
पदार्थ
१. (भूषन् न) = अपने जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करता हुआ-सा (यः) = जो (बभ्रूषु) = भरणात्मक क्रियाओं में (अधि नम्नते) = आधिक्येन नत होता है। यह उपासक लोकहित के कार्यों में लगा रहता है। उन कार्यों में लगा हुआ यह सदा विनीत बना रहता है। इस क्रियाशीलता व विनीतता के कारण ही वह अपने जीवन को सद्गुणों से मण्डित कर पाता है। २. इन धारणात्मक कर्मों के उद्देश्य से ही यह (वृषा इव) = शक्तिशाली पुरुष की भाँति होता हुआ (पत्नीः) = पालनीय प्रजाओं के (अभि रोरुवत् एति) = प्रति ज्ञान के शब्दों का उच्चारण करता हुआ आता है। प्रजाएँ राष्ट्रपति की पत्नियाँ ही कहलाती हैं। इनमें ज्ञान का प्रचार करता हुआ यह गतिमय जीवनवाला होता है। इस कार्य में यह तो आवश्यक है ही कि उसका शरीर शक्तिशाली हो। ३. (च) = और (ओजायमानः) = ओजस्वी पुरुष की भाँति आचरण करता हुआ यह (तन्वः च) = अपने शरीर को (शुम्भते) = शोभित करता है तथा शक्ति के कारण दुर्गृभिः शत्रुओं से वशीभूत करने योग्य न होता हुआ (भीमः न) शत्रुओं के लिए भयंकर वीर के समान (शृङ्गा) = [शृङ्ग= A fountain of water] ज्ञान के स्रोतों को दविधाव-चालित करता है। इन ज्ञान स्रोतों के प्रवाह से यह प्रजाओं के जीवन को शुद्ध करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार लोकहित में प्रवृत्त होनेवाले व्यक्ति के
विषय
सूर्य और अग्नि के दृष्टान्त से राजा वा नायक का प्रजा के ग्रहण पालनादि का वर्णन ।
भावार्थ
सूर्य जिस प्रकार ( भूषन् न ) प्रकट होकर ही ( बभ्रुषु अधि ) समस्त प्राणियों को भरण पोषण करने वाली औषधियों में ( नम्नते ) अधिक तेज से उनके भीतर प्रविष्ट होता और (वृषा इव) फिर मेघ के समान वर्षण शील होकर (पत्नीः) जगत्पालक भूमियों और औषधियों को ( रोरुवत् अभि एति ) गर्जता हुआ प्राप्त होता है और (ओजायमानः) खूब तेजस्वी होकर ( तन्वः ) विस्तृत पृथिवियों और दिशाओं को प्रकाशित करता है (भीमः) भयंकर पशु के समान (दुर्गृभिः) असह्य होकर (शृङ्गा दविधाव) किरण रूप सींगो को खूब तीव्रता से फेंकता है और जिस प्रकार अग्नि भी सूर्य के समान ही ( भूषन् ) व्यापक होकर ( व्रभ्रुषु अधि नम्नते ) ओषधियों और काष्टों में प्रविष्ट होता, (पत्नीः रोरुवत् अभिएति) अपनी पालक समिधाओं में शब्द सहित आता । तीव्र होकर ( तन्वः ) अपनी ज्वालाओं को प्रकट करता, ( दुर्गृभिः ) तीव्र ताप के कारण स्पर्श करने के अयोग्य होकर ( शृङ्गा ) ज्वालाओं को चलाता है उसी प्रकार ( यः ) जो प्रधान अग्रणी नायक पुरुष ( भूषन् ) उत्पन्न होकर ( वभ्रुषु भूषन् न ) गर्भ धारण करने और प्रजाओं का पालन पोषण करने वाली या वभ्रु वर्ण की और सुन्दरी स्त्रियों के वीच वर के समान ( वभ्रुषु ) राजा और राष्ट्र का भरण पोषण कपने वाली समृद्ध प्रजाओं और पक्क अन्नादि से सम्पन्न भूमियों के बीच में ( भूषन् ) अपने को सिहासन पर अधिकृत करता हुआ और सामर्थ्यवान् होता हुआ ( अधि नम्नते ) अध्यक्ष रूप से प्राप्त होता है और ( वृषा पत्नीः ) यज्ञ द्वारा बनी धर्म दाराओं में मन्त्रोच्चारण करते हुए पति के समान जो ( पत्नीः ) राष्ट्र का पालन करने वाली सेनाओं और धर्म दाराओं को भी ( रोरुवत् ) गर्जना करता हुआ (अभिएति) प्राप्त होता, उनके सन्मुख उपस्थित होता है, और जो ( ओजायमानः ) बलशाली, पराक्रमी होकर (तन्वः च) विस्तृत भूमियों, प्रजाओं सेनाओं को भी ( शुम्भते ) सुशोभित करता है वह ( शृङ्गा दुर्गृभिः भीमः न ) भयंकर बड़े दुर्दान्त सांढ़ के समान स्वयं भी ( भीमः ) अति भयंकर ( दुर्गृभिः ) शत्रुओं के वश में न आकर ( शृङ्गा ) शत्रुओं का नाश करने वाले शस्त्रास्त्रों और सैन्यों का ( दविधाव ) बराबर सञ्चालन करे । अध्यात्म में—‘बभ्रू और पत्नीः’ भिन्न भिन्न प्रकार की नाड़ियां हैं। वह उनमें व्यापता और जीवन की पालक शक्तियों को प्राप्त करता है। पेशियों को सुशोभित करता है, स्वयं अग्राह्य होकर भी ( शृङ्गा ) इन्द्रियों या प्राणों का संचालन करता है ।
टिप्पणी
‘पत्नीः’ अत्र दारावत् छान्दसं बहुत्वं वेदितव्यम् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे सिंहाप्रमाणे शत्रूंकडून बाधित न होणारी, बैलांप्रमाणे अत्यंत बलवान, पुष्ट, निरोगी शरीर असणारी उत्तम औषध सेवन करणारी, सर्व सज्जनांमध्ये भूषण ठरतात, ती या जगात शोभून दिसतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Graceful among the old sages, he excels, doing reverence and homage bowing down. Like a virile husband going to meet his wife, he moves and speaks loud and bold among creative women dedicated to pious and holy yajna. Like a man of light and power, he appears in brilliant form. Like an awful lion difficult to overcome, he goes about majestically commanding all with his knowledge and power at the peak.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Qualities of the persons that shine on earth are narrated here.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A man enjoys much happiness if he is decently dressed and pays respects before the righteous persons upholding Dharma. Such a man also gives good advice and teachings to his wife. He is powerful also like a bull shaking its and he overpowers his opponents being full of vigor. Like a lion, his muscle power is great and body handsome. Thus he moves about struggling ferociously and performs noble deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
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Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons indomitable like lions, powerful like bulls and possessing strong body and mind are like the ornaments of all good persons and shine.
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