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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तम॒ग्रुव॑: के॒शिनी॒: सं हि रे॑भि॒र ऊ॒र्ध्वास्त॑स्थुर्म॒म्रुषी॒: प्रायवे॒ पुन॑:। तासां॑ ज॒रां प्र॑मु॒ञ्चन्ने॑ति॒ नान॑द॒दसुं॒ परं॑ ज॒नय॑ञ्जी॒वमस्तृ॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । अ॒ग्रुवः॑ । के॒शिनीः॑ । सम् । हि । रे॒भि॒रे । ऊ॒र्ध्वाः । त॒स्थुः॒ । म॒म्रुषीः॑ । प्र । आ॒यवे॑ । पुन॒रिति॑ । तासा॑म् । ज॒राम् । प्र॑ऽमु॒ञ्चन् । ए॒ति॒ । नान॑दत् । असु॑म् । पर॑म् । ज॒नय॑न् । जी॒वम् । अस्तृ॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमग्रुव: केशिनी: सं हि रेभिर ऊर्ध्वास्तस्थुर्मम्रुषी: प्रायवे पुन:। तासां जरां प्रमुञ्चन्नेति नानददसुं परं जनयञ्जीवमस्तृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। अग्रुवः। केशिनीः। सम्। हि। रेभिरे। ऊर्ध्वाः। तस्थुः। मम्रुषीः। प्र। आयवे। पुनरिति। तासाम्। जराम्। प्रऽमुञ्चन्। एति। नानदत्। असुम्। परम्। जनयन्। जीवम्। अस्तृतम् ॥ १.१४०.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    या अग्रुवः केशिनीस्तं संरेभिरे ता हि प्रायवे मम्रुषीः पुनरूर्ध्वास्तस्थुः। योऽस्तृतं परमसुं जीवं नानदत् तासां जरां प्रमुञ्चन् विद्या जनयन् सुशिक्षाः प्रचारयति स उत्तमं जन्मैति ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (तम्) विद्वांसं पतिम् (अग्रुवः) अग्रगण्याः (केशिनीः) प्रशंसनीयकेशाः (सम्) (हि) खलु (रेभिरे) (ऊर्ध्वाः) उच्चपदव्यः (तस्थुः) तिष्ठन्ति (मम्रुषीः) म्रियमाणाः (प्र, आयवे) प्रापणाय (पुनः) (तासाम्) (जराम्) वृद्धावस्थाम् (प्रमुञ्चन्) हापयन् (एति) प्राप्नोति (नानदत्) (असुम्) प्राणम् (परम्) इष्टम् (जनयन्) प्रकाशयन् (जीवम्) जीवात्मानम् (अस्तृतम्) अहिंसितम् ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    याः कन्या ब्रह्मचर्य्येणाऽखिला अभ्यस्यन्ति ता इह प्रशंसिता भूत्वा बहुसुखं भुक्त्वा जन्मान्तरेऽपि श्रेष्ठं सुखं प्राप्नुवन्ति, ये विद्वांसोऽपि शरीरात्मबलं न हिंसन्ति ते जरारोगरहिता जायन्ते ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (अग्रुवः) अग्रगण्य (केशिनीः) प्रशंसनीय केशोंवाली युवावस्था को प्राप्त होती हुई कन्या (तम्) उस विद्वान् पति को (सं, रेभिरे) सुन्दरता से कहती हैं वे (हि) ही (प्रायवे) पठाने अर्थात् दूसरे देश उस पति के पहुँचाने को (मम्रुषीः) मरी सी हों (पुनः) फिर उसीके घर आने समय (ऊर्ध्वाः) ऊँची पदवी पाये हुई सी (तस्थुः) स्थिर होती हैं, जो (अस्तृतम्) नष्ट न किया गया (परम्) सबको इष्ट (असुम्) ऐसे प्राण को वा (जीवम्) जीवात्मा को (नानदत्) निरन्तर रटावे और (तासाम्) उक्त उन कन्याओं के (जराम्) बुढ़ापे को (प्रमुञ्चन्) अच्छे प्रकार छोड़ता और विद्याओं को (जनयन्) उत्पन्न कराता हुआ उत्तम शिक्षाओं का प्रचार कराता है वह उत्तम जन्म (एति) पाता है ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    जो कन्या जन ब्रह्मचर्य्य के साथ समस्त विद्याओं का अभ्यास करती हैं, वे इस संसार में प्रशंसित हो और बहुत सुख भोग जन्मान्तर में भी उत्तम सुख को प्राप्त होती हैं और जो विद्वान् लोग भी शरीर और आत्मा के बल को नष्ट नहीं करते, वे वृद्धावस्था और रोगों से रहित होते हैं ॥ ८ ॥

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    विषय

    मृत्यु से जीवन की ओर

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस ज्ञान का प्रसार करनेवाले पुरुष को (अग्रुवः) = जीवन मार्ग में आगे बढ़नेवाली (केशिनी:) = [केश-a ray of light] प्रकाश की रश्मियोंवाली प्रजाएँ (हि) = निश्चय से (सं रेभिरे) = आलिंगन करती हैं, अर्थात् उसके घनिष्ठ सम्पर्क में आती हैं। उससे और अधिक ज्ञान प्राप्त करके (ऊर्ध्वाः तस्थुः) = ऊपर उठ खड़ी होती हैं। (मम्रुषी:)= आज तक जो मरणासन्न-सी थीं वे (पुनः) = फिर प्रायवे प्रकृष्ट जीवन के लिए होती हैं। २. यह ज्ञानी (तासाम्) = उन प्रजाओं की (जराम्) = जीर्णता को (प्रमुञ्चन्) = छुड़ाता हुआ एति गति करता है । उनको इस प्रकार उपदेश करता है कि वे विषयासक्ति के मार्ग को छोड़कर जितेन्द्रियता के मार्ग को अपनाती हैं। यह मार्ग उनकी शक्तियों को जीर्ण नहीं होने देता। ३. इस कार्य को करता हुआ यह (नानदत्) = खूब ही प्रभु स्तवन करनेवाला होता है, (परम् असुं जनयन्) = यह प्रकृष्ट प्राणशक्ति को उत्पन्न करता है और (जीवम्) = जीवन को (अस्तृतम्) = अहिंसित करता है। अज्ञान ही मृत्यु व अवनति का मार्ग है। इस अज्ञान को दूर करके यह प्रकृष्ट जीवन को जीर्णताशून्य जीवन को अहिंसित जीवन को उत्पन्न करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रजाएँ जितना इस ज्ञानी के सम्पर्क में आती हैं, यह उतना ही उन्हें प्रकृष्ट- अक्षीण व अहिंसित जीवनवाला बनाता है।

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    विषय

    राजा प्रजा का पति-पत्नीवत् परस्पर स्नेहवान् होकर रहने का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अग्रुवः ) अग्रगण्य उत्तम (केशिनीः) सुकेशी, स्त्रियां जिस प्रकार पति को प्राप्त करते ही और (मम्रुषीः) उसके विरह में मरती हुई भी ( पुनः आयवे ऊर्ध्वाः प्र तस्थुः ) पुनः आते हुए पति के लिये बार बार उठकर खड़ी हो जाती है । अथवा ( प्रायवे ) दूर देश में जाते, या मृत्यु को प्राप्त होते पति के लिए ( मम्रुषीः तस्थुः ) मरने के लिये तैयार हो जाती हैं । ( नानदत् ) विद्या को प्राप्त करने हारा पुरुष जिस प्रकार ( तासां जरां प्रमुञ्चन् एति ) उन स्त्रियों के वार्धक्य या जीर्ण दशा या जीवन नाश को दूर करता हुआ उनको प्राप्त होता है और ( परं जीवं जनयन् ) उनके जीवन को पुनः देता है । उनको पुनः हर्षित, प्रफुल्लित कर देता है उसी प्रकार ( अग्रुवः ) आगे बढ़ने वाली श्रेष्ठ प्रजाएं ( केशिनीः ) क्लेशों में फंसी हुई (तं) उस उत्तम अग्रगण्य नायक को (हि) निश्चय ही ( सं रेभिरे ) भली प्रकार प्राप्त करती हैं । और वे (मम्रुषीः) मरती हुई भी ( आयवे ) आते हुए राजा के आदर और वृद्धि के लिये ( पुनः ) बार बार (ऊर्ध्वाः प्र तस्थुः) उठ खड़ी होती उसका आदर करती हैं । ( नानदत् जीवम् जनयन् ) गर्जता हुआ मेघ जिस प्रकार जल को उत्पन्न करता है, जीवन-प्राण प्रदान करता है उसी प्रकार नायक भी ( नानदत् ) सिंहनाद करता हुआ या प्रजा को शिक्षा देता हुआ ( तासां जराम् ) उन प्रजाओं की जरा, अर्थात् प्राण, आयु के नाश या हानि को ( प्र मुञ्चन् ) दूर करता हुआ ( एति ) उनको प्राप्त हो । उनके लिये ( परं असुं ) उत्तम प्राण और ( अस्तृतम् जीवम् ) न नाश हुए जीवन और जीवित प्राणियों से ( जनयन् ) समृद्ध करता हुआ उनको प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या कन्या ब्रह्मचर्यपूर्वक संपूर्ण विद्यांचा अभ्यास करतात त्यांची या जगात प्रशंसा होते व पुष्कळ सुख मिळते तसेच जन्मान्तरीही उत्तम सुख प्राप्त होते व जे विद्वान लोक शरीर व आत्म्याचे बळ नष्ट करीत नाहीत त्यांना वृद्धावस्था व त्रास देत नाहीत. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The leading lights speak of Agni like flames of fire and sing of him, and if they ever go down weak and enervated, they look up to him for fresh life, and Agni, releasing them from their weakness and enervation and recreating a high order of fresh vitality and new life, helps them stay up on high as before and goes forward roaring and crackling as ever.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Learned girls' Brahmacharya (Celibacy) is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Girls who march forward and lead their groups because of their qualities and have beautiful look of hairs, they get highly learned husbands. Such women converse with them in sweet and loving language. They feel sore at separation from their husbands and look like lifeless human beings. But on return of their husbands, they are much elevated and delighted. A good husband teaches her about the immortal soul and freeing her from pre-mature fear of old age and even of death. He gives good education to her life partner so that she has her re-birth as a happy human being.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Virgins knowing all the sciences, and observing Brahmacharya, are admirably accepted as wives everywhere. They achieve happiness in this world and bliss in the next birth also. Because of noble education imparted by their husbands, they rarely waste the physical and spiritual energy and are never scared at the premature old age and death.

    Foot Notes

    (अस्तृतम् ) अहिंसितम् = Immortal.

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