ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 167/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रो मरुच्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ नोऽवो॑भिर्म॒रुतो॑ या॒न्त्वच्छा॒ ज्येष्ठे॑भिर्वा बृ॒हद्दि॑वैः सुमा॒याः। अध॒ यदे॑षां नि॒युत॑: पर॒माः स॑मु॒द्रस्य॑ चिद्ध॒नय॑न्त पा॒रे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । अवः॑ऽभिः । म॒रुतः॑ । या॒न्तु॒ । अच्छ॑ । ज्येष्ठे॑भिः । वा॒ । बृ॒हत्ऽदि॑वैः । सु॒ऽमा॒याः । अध॑ । यत् । ए॒षा॒म् । नि॒ऽयुतः॑ । प॒र॒माः । स॒मु॒द्रस्य॑ । चि॒त् । ध॒नय॑न्त । पा॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नोऽवोभिर्मरुतो यान्त्वच्छा ज्येष्ठेभिर्वा बृहद्दिवैः सुमायाः। अध यदेषां नियुत: परमाः समुद्रस्य चिद्धनयन्त पारे ॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। अवःऽभिः। मरुतः। यान्तु। अच्छ। ज्येष्ठेभिः। वा। बृहत्ऽदिवैः। सुऽमायाः। अध। यत्। एषाम्। निऽयुतः। परमाः। समुद्रस्य। चित्। धनयन्त। पारे ॥ १.१६७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 167; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्वायुदृष्टान्तेन सज्जनगुणानाह ।
अन्वयः
यद्ये सुमाया बृहद्दिवैर्ज्येष्ठेभिर्वाऽवोभिः सह मरुत इव नोच्छायान्तु। अधैषां चित् समुद्रस्य पारे परमा नियुतो धनयन्त तान् वयं सत्कुर्याम ॥ २ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (अवोभिः) रक्षणादिभिः (मरुतः) वायवः (यान्तु) प्राप्नुवन्तु (अच्छ) (ज्येष्ठेभिः) विद्यावयोवृद्धैः सह (वा) (बृहद्दिवैः) बृहती दिवा विद्या येषान्तैः (सुमायाः) सुष्ठु माया प्रज्ञा येषान्ते (अध) (यत्) ये (एषाम्) प्राज्ञानाम् (नियुतः) वायुरिव विद्युदादयोऽश्वाः (परमाः) प्रकृष्टाः (समुद्रस्य) सागरस्य (चित्) अपि (धनयन्त) आत्मनो धनमिच्छन्ति। अत्राडभावः। (पारे) ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये बृहत्तमाभिर्नौकाभिर्वायुवद्वेगेन व्यवहाराय समुद्रस्य पाराऽवारौ गत्वाऽऽगत्य श्रियमुन्नयन्ति तेऽतुलं सुखमाप्नुवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पवन के दृष्टान्त से सज्जन के गुणों को कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (सुमायाः) सुन्दर बुद्धिवाले (बृहद्दिवैः) जिनकी अतीव विद्या प्रसिद्ध उन (ज्येष्ठेभिः) विद्या और अवस्था से बढ़े हुओं के (वा) अथवा (अवोभिः) रक्षा आदि कर्मों के साथ (मरुतः) पवनों के समान सज्जन (नः) हम लोगों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (आ, यान्तु) प्राप्त होवें (अध) इसके अनन्तर (एषाम्, चित्) इनके भी (समुद्रस्य) सागर के (पारे) पार (परमाः) अत्यन्त उत्तम (नियुतः) पवन के समान बिजुली आदि अश्व (धनयन्त) अपने को धन की इच्छा करते हैं उनका हम लोग सत्कार करें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अतीव बड़ी नौकाओं से पवन के समान वेग से व्यवहारसिद्धि के लिये समुद्र के वार-पार जा-आ के धन की उन्नति करते हैं, वे अतुल सुख को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
विषय
रक्षण व ज्ञान देने का कार्य
पदार्थ
१. (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष (अवोभिः) = रक्षणों के हेतु से (नः) = हमारे (अच्छ) = अभिमुख (आयन्तु) = आएँ । वस्तुतः ऐसे पुरुषों द्वारा होनेवाला रक्षण ही उत्तम होता है। २. (वा) = और (सुमायाः) = उत्तम प्रज्ञावाले ये प्राणसाधक (ज्येष्ठेभिः) = प्रशस्यतम (बृहद्दिवैः) = वृद्धि के कारणभूत ज्ञानों से हमें प्राप्त हों। ये हमें उन श्रेष्ठ ज्ञानों को देनेवाले हों जो हमारी वृद्धि के कारण बनते हैं। ३. (अध) = अब (यत्) = क्योंकि (एषाम्) = इनके (नियुतः) = निश्चय से अपने-अपने कर्मों में व्याप्त होनेवाले इन्द्रियाश्व (परमा:) = अत्यन्त उत्कृष्ट होते हैं, अतः वे इन्द्रियाश्व (समुद्रस्य चित् पारे) = [समुद्रस्य इव हि कामः । नैव कामस्यान्तोऽस्ति न समुद्रस्य - तै० २।२।५।६] काम के पार (धनयन्त) = [दधन्ति] धारण करते हैं। सदा कर्त्तव्यों में व्याप्त मनुष्य का मन कामादि वासनाओं से ऊपर उठा रहता है, एवं कार्यों में व्याप्त इन्द्रियाश्व हमें वासना-समुद्र में डूबने में से बचाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- रक्षणात्मक कार्यों व ज्ञान देने के कार्यों को प्राणसाधना करनेवाले पुरुष ही अच्छी प्रकार कर पाते हैं। चूँकि ये लोग सदा कर्मों में लगे रहते हैं, अतः वासना-समुद्र में नहीं डूबते ।
विषय
विद्वानों, धनवानों की राष्ट्र में उत्तम कामना ।
भावार्थ
वे ( मरुतः ) वैश्य गण और विद्वान् जन जो ( ज्येष्ठेभिः ) विद्या और वयस् में वृद्ध ( वृहद्दिवैः ) बड़े भारी ज्ञान ज्योतियों से प्रकाशमान, विद्वानों के सत्संग से ( सुमायाः ) उत्तम शुभ बुद्धिवाले हैं ( नः ) हमें सदा ( अवोभिः ) ज्ञानों और रक्षा साधनों सहित ( अच्छ आयान्तु ) प्राप्त होते रहें । ( अध ) और वे ( यद् ) जिस ( एषां ) इनके ( परमा ) उत्कृष्ट कोटि के साधन, उत्तम सेनाएं भी या लाखों आदमी ( समुद्रस्य चित् पारे ) समुद्र के परले पार भी ( धनयन्त ) धन ऐश्वर्य की कामना से व्यापार करते हैं और ऐश्वर्य उपार्जन करते हैं, वे भी हमें प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्तय ऋषिः ॥ इन्द्रो मरुच्च देवता । छन्दः - १, ४, ५, भुरिक् पङ्क्तिः । ७, स्वराट् पङ्क्तिः । १० निचृत् पङ्क्तिः ११ पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अति मोठ्या नौकांनी वायूप्रमाणे वेगवान बनून व्यवहारसिद्धीसाठी समुद्राच्या आरपार जाणेयेणे करतात व धनाची वृद्धी करतात ते अतुल सुख प्राप्त करतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the Maruts, heroes of the winds, powers of vision and wonder as they are, come well to us with their modes of protection and senior-most scholars of brilliance, and then may follow those of their most efficient modes of transport which can cross the seas and skies for the acquisition of wealth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The virtues of good men.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Many good and learned persons, mighty like the winds come to us with benefactions or protective powers. Similarly, good intellectuals come to us along with elderly and experienced scholars. May we properly utilize then your electrified nice accommodation. It may take us across the farther shore of the sea for the desired wealth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons travelling for business by big steamers swiftly like the winds to the farthest shore of the sea, acquire much wealth and enjoy happiness.
Foot Notes
(बृहद् दिवैः) बृहती दिवा विद्या येषां ते = With great scholars. (सुमाया:) सुष्ठु माया-प्रज्ञा येषां ते = Possessors of good intellect and knowledge. (नियुतः) वायुरिव विद्युदादयो ऽश्वाः = Horses in the form of electricity etc. which are useful like airs.
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