ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 167/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रो मरुच्च
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
जोष॒द्यदी॑मसु॒र्या॑ स॒चध्यै॒ विषि॑तस्तुका रोद॒सी नृ॒मणा॑:। आ सू॒र्येव॑ विध॒तो रथं॑ गात्त्वे॒षप्र॑तीका॒ नभ॑सो॒ नेत्या ॥
स्वर सहित पद पाठजोष॑त् । यत् । ई॒म् । अ॒सु॒र्या॑ । स॒चध्यै॑ । विसि॑तऽस्तुका । रो॒द॒सी । नृ॒ऽमनाः॑ । आ । सू॒र्याऽइ॑व । वि॒ध॒तः । रथ॑म् । गा॒त् । त्वे॒षऽप्र॑तीका । नभ॑सः । न । इ॒त्या ॥
स्वर रहित मन्त्र
जोषद्यदीमसुर्या सचध्यै विषितस्तुका रोदसी नृमणा:। आ सूर्येव विधतो रथं गात्त्वेषप्रतीका नभसो नेत्या ॥
स्वर रहित पद पाठजोषत्। यत्। ईम्। असुर्या। सचध्यै। विसितऽस्तुका। रोदसी। नृऽमनाः। आ। सूर्याऽइव। विधतः। रथम्। गात्। त्वेषऽप्रतीका। नभसः। न। इत्या ॥ १.१६७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 167; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यद्योऽसुर्या विषितस्तुका नृमणा ईं सचध्यै सूर्येव रोदसी जोषत् त्वेषप्रतीकेत्या सती नभसो रथं न विधतश्चागात् प्रवरा स्त्री वर्त्तते ॥ ५ ॥
पदार्थः
(जोषत्) सेवेत (यत्) यः (ईम्) जलम् (असुर्या) असुरेषु मेघेषु भवा (सचध्यै) सचितुं संयोक्तुम् (विषितस्तुका) विविधतया सिता बद्धा स्तुका स्तुतिर्यया सा (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (नृमणाः) नृषु नायकेषु मनो यस्याः सा (आ) (सूर्येव) यथा सूर्यस्य दीप्तिः (विधतः) ताडयितॄन् (रथम्) रमणीयं यानं व्यवहारञ्च (गात्) गच्छति (त्वेषप्रतीका) त्वेषस्य प्रकाशस्य प्रतीतिकारिका (नभसः) जलस्य (न) इव (इत्या) प्राप्तुं योग्या ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽग्निर्विद्युद्रूपेण सर्वमभिव्याप्य प्रकाशयति तथा सर्वा विद्यासुशिक्षाः प्राप्य स्त्री समग्रं कुलं प्रशंसयति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (असुर्या) मेघों में प्रसिद्ध (विषितस्तुका) विविध प्रकार की जिसकी स्तुति सम्बन्धी और (नृमणाः) जो अग्रगामी जनों में चित्त रखती हुई (ईम्) जल के (सचध्यै) संयोग के लिये (सूर्येव) सूर्य की दीप्ति के समान (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (जोषत्) सेवे अर्थात् उनके गुणों में रमे वा (त्वेषप्रतीका) प्रकाश की प्रतीति करानेवाली और (इत्या) प्राप्त होने के योग्य होती हुई (नभसः) जल सम्बन्धी (रथम्) रमण करने योग्य रथ के (न) समान व्यवहार की और (विधतः) ताड़ना करनेवालों को (आ, गात्) प्राप्त होती वह स्त्री प्रवर है ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अग्नि बिजुलीरूप से सबको सब प्रकार से व्याप्त होकर प्रकाशित करती है, वैसे सब विद्या उत्तम शिक्षाओं को पाकर स्त्री समग्र कुल को प्रशंसित करती है ॥ ५ ॥
विषय
उपासक के जीवन में 'असुर्या' का प्रवेश
पदार्थ
१. (यत्) = जब (ईम्) = निश्चय से (असुर्या) = [असुरस्य इयम्] प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाले प्रभु की पुत्री के समान यह वेदवाणी (जोषत्) = हमारा सेवन करती है, हमें प्राप्त होती है। यह (विषितस्तुका) = विशेषरूप से बद्ध-केशसंघवाली - विशिष्ट ज्ञान की रश्मियोंवाली [केश = प्रकाशरश्मि] उस महान् असुर [प्रभु] की पुत्री (सचध्यै) = हमारे साथ संगमनवाली होती है, उस समय यह (रोदसी) = सम्पूर्ण द्यावापृथिवी के पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाली वाणी (नृमणा:) = [नृषु मनो यस्याः] मनुष्यों का हित करने के मनवाली होती है। सब पदार्थों का ज्ञान देती हुई यह उनका कल्याण करती है। २. यह (सूर्या इव) = सूर्य की भाँति चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाती हुई (विधतः) = उपासक के नियमपूर्वक स्वाध्याय के द्वारा 'सरस्वती' की आराधना करनेवाले के (रथं गात्) = रथ को प्राप्त होती है। (त्वेषप्रतीका) = यह दीप्त अंगोंवाली - प्रकाशमय वेदवाणी (नभसः इत्या न) = सूर्य के आगम के समान है। वेदवाणी के प्राप्त होते ही सारा अन्तःकरण इस प्रकार दीप्त हो उठता है, जैसे कि सूर्य के आगमन से सारा आकाश ।
भावार्थ
भावार्थ – यह वेदवाणी प्रभु की पुत्री के समान है। दीप्त अंगोंवाली है। द्युलोक से पृथिवीलोक तक के सारे पदार्थों का ज्ञान देती है। सरस्वती के आराधक के जीवन में इसका प्रवेश इस प्रकार होता है जैसे आकाश में सूर्य का । यही वेदवाणी से हमारा परिणय (विवाह) है ।
विषय
सूर्य दीप्तिवत् पुरुष को प्राप्त होने वाली स्त्री के उत्तम लक्षण ।
भावार्थ
(सूर्या इव) सूर्यकी मध्याह्न काल की दीप्ति, जिसप्रकार (त्वेषप्रतीका) तेज प्रकाश देने वाली होकर (विधतः) विविध लोकों को धारण करने वाले सूर्य के ( रथं ) रमणीय बिम्ब को ( गात् ) प्राप्त होती अथवा ( नभसः इत्या न ) वायु की तीव्र गति जिस प्रकार (विधतः ) विशेष शिल्प रचने वाले पुरुष के ( रथं ) वेगवान् रथ को ( आगात् ) प्राप्त होती है उसी प्रकार (असूर्या) मेघों में उत्पन्न होने वाली ( यत् ) जो ( ईम् ) इस जल को ( सचध्यै ) संचय या संयुक्त करने के लिये ( जोषत् ) मानो प्रेम पूर्वक आती है वह भी ( विषितस्तुका ) विविध प्रकार से किरणों को बांधती हुई ( रोदसी ) ध्वनि करने वाली और ( नृमणाः ) मनुष्यों के मन को हरती है अथवा जल को संग्रह करती हुई ( रोदसी जोषत् ) आकाश और पृथिवी को व्यापती है ( २ ) उसी प्रकार ( आसूर्या ) असुर अर्थात् प्राणों में रमण करने वाले और प्राणों का प्रदान करने वाले प्राण प्रिय पुरुष की हितकारिणी और बलवान् पुरुषों के योग्य ( विषितस्तुका ) विविध प्रकार से अपने केशों को बांधने वाली, ( रोदसी ) वियुक्त होते हुए माता पिता सम्बधियों को देखकर आखों में जल भरलाने वाली, ( नृमणाः ) सब मनुष्यों के लिये उचित स्नेह वाली, ( त्वेष-प्रतीका ) दीप्ति युक्त मुख वाली, कान्तिमती, सुन्दर स्त्री ( यत् ) जब ( ईं जोषत् ) अपने अभिलषित पुरुष को स्वीकार करे तब वह (सूर्या इव) सूर्य की कान्ति के समान और ( नभसः इत्या न ) जल की धारा के समान ( विधतः ) विवाह विधि से धारण करने वाले वर के ( रथं ) रथ को ( आगात् ) प्राप्त हो । इति चतुर्थो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्तय ऋषिः ॥ इन्द्रो मरुच्च देवता । छन्दः - १, ४, ५, भुरिक् पङ्क्तिः । ७, स्वराट् पङ्क्तिः । १० निचृत् पङ्क्तिः ११ पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी अग्निरूपी विद्युत सर्वप्रकारे व्याप्त होऊन सर्वांना प्रकाशित करते तसे सर्व विद्या उत्तम शिक्षण प्राप्त करून स्त्री संपूर्ण कुलाला प्रशंसित करते. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
If the earth, source of pranic vitality and loving mother of mankind, were to serve the Maruts for the sake of waters, then she, with flowing hair like the lights of evening dawn, shining brilliant as child of the sun, would ride the chariot of the Lord Ordainer and sustainer, i.e., the sun, and rise as if going to sky heights of progress and abundance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of praise to learned women.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The best woman is she, who admires good virtues, whose mind is devoted to good leaders (in order to grasp their virtues ). Such a woman is like the luster of the sun, is radiant and is faithful to her husband. She is calm and quiet like the waves of water always with good behavior and conduct.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Agni pervading all in the form of electricity illuminates them, same way a woman makes a family praise-worthy having acquired all wisdom and good education.
Foot Notes
(असुर्या) असुरेषु मेघेषु भवा = Lighting in the clouds (सूर्येव) यथा सूर्यस्य दीप्तिः = Like the luster of the sun (विषितस्तुका) विविधतया सिताबद्धा सुका स्तुतिर्यया सा = Admiring good virtues (नभसः) जलस्य = of the water.
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