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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 167 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 167/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रो मरुच्च छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    परा॑ शु॒भ्रा अ॒यासो॑ य॒व्या सा॑धार॒ण्येव॑ म॒रुतो॑ मिमिक्षुः। न रो॑द॒सी अप॑ नुदन्त घो॒रा जु॒षन्त॒ वृधं॑ स॒ख्याय॑ दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । शु॒भ्राः । अ॒यासः॑ । य॒व्या । सा॒धा॒र॒ण्याऽइ॑व । म॒रुतो॑ । मि॒मि॒क्षुः॒ । न । रो॒द॒सी इति॑ । अप॑ । नु॒द॒न्त॒ । घो॒राः । जु॒षन्त॑ । वृध॑म् । स॒ख्याय॑ । दे॒वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा शुभ्रा अयासो यव्या साधारण्येव मरुतो मिमिक्षुः। न रोदसी अप नुदन्त घोरा जुषन्त वृधं सख्याय देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा। शुभ्राः। अयासः। यव्या। साधारण्याऽइव। मरुतो। मिमिक्षुः। न। रोदसी इति। अप। नुदन्त। घोराः। जुषन्त। वृधम्। सख्याय। देवाः ॥ १.१६७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 167; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यथा शुभ्रा अयासो मरुतो यव्या रोदसी मिमिक्षुः। घोराः सन्तो न परापनुदन्त तथा देवा वृधं सख्याय साधारण्येव जुषन्त ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (परा) (शुभ्राः) स्वच्छाः (अयासः) शीघ्रगामिनः (यव्या) मिश्रिताऽमिश्रितगत्या (साधारण्येव) यथा साधारणया (मरुतः) वायवः (मिमिक्षुः) सिञ्चन्ति (न) निषेधे (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अप) (नुदन्त) दूरीकुर्वन्ति (घोराः) विद्युद्योगेन भयङ्कराः (जुषन्त) सेवन्ताम् (वृधम्) वर्द्धनम् (सख्याय) मित्राणां भावाय (देवाः) विद्वांसः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा वायुविद्युद्योगजन्या वृष्टिरनेका ओषधीरुत्पाद्य सर्वान् प्राणिनो जीवयित्वा दुःखानि दूरीकरोति यथोत्तमा पतिव्रता स्त्री पतिमाह्लादयति तथैव विद्वांसो विद्यासुशिक्षावर्षणेन धर्मसेवया च सर्वान् मनुष्यानाह्लादयेयुः ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जैसे (शुभ्राः) स्वच्छ (अयासः) शीघ्रगामी (मरुतः) पवन (यव्या) मिली न मिली हुई चाल से (रोदसी) आकाश और पृथिवी को (मिमिक्षुः) सींचते और (घोराः) बिजुली के योग से भयङ्कर होते हुए (न, परा, अप, नुदन्त) उनको परावृत्त नहीं करते, उलट नहीं देते वैसे (देवाः) विद्वान् जन (वृधम्) वृद्धि को (सख्याय) मित्रता के लिये (साधारण्येव) साधारण क्रिया से जैसे वैसे (जुषन्त) सेवें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वायु और बिजुली के योग से उत्पन्न हुई वर्षा अनेक ओषधियों को उत्पन्न कर सब प्राणियों को जीवन देकर दुःखों को दूर करती है वा जैसे उत्तम पतिव्रता स्त्री पति को आनन्दित करती है, वैसे ही विद्वान् जन विद्या और उत्तम शिक्षा की वर्षा से और धर्म के सेवन से सब मनुष्यों को आह्लादित करें ॥ ४ ॥

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    विषय

    रोदसी का अपनोदन

    पदार्थ

    १. (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुष (शुभ्राः) = मल व दोष से रहित शुभ्र जीवनवाले बनते हैं, (अयासः) = ये निरन्तर गतिशील होते हैं। ये मरुत् (यव्या) = [यु] दोषों का अमिश्रण व गुणों का मिश्रण करनेवाली (साधारण्या इव) = जो सबके लिए समानरूप से हित करनेवाली, सबकी माता के समान है [स्तुता मया वरदा वेदमाता] उस वेदवाणी से (परा मिमिक्षुः) = उत्कृष्ट रूप से संगत होते हैं। प्राणसाधना का पहला लाभ यही है कि ज्ञान दीप्त हो उठता है । २. ये (घोराः) = उत्कृष्ट, तेजस्वी जीवनवाले प्राणसाधक (रोदसी) = अपने द्यावापृथिवी को (न अपनुदन्त) = दूर नहीं करते, नष्ट नहीं करते। इनका मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञानसूर्य से दीप्त होता है तो शरीररूप पृथिवी बड़ी दृढ़ होती है। ३. इस प्रकार ये (वृधम्) = वृद्धि का (जुषन्त) = सेवन करनेवाले होते हैं और सब प्रकार की उन्नति करते हुए ये (देवाः सख्याय) = देववृत्ति के पुरुष इस प्रभु की मित्रता के लिए होते हैं। उन्नति का अभिप्राय यही तो है कि शरीर में 'अजर व अमर' बनना, मन में 'सुमनस् व सुपर्वा' [उत्तम गुणों को भरनेवाला] बनना तथा मस्तिष्क में 'विबुध व दिवौकस्' [ज्ञान का विकास करनेवाला] बनना । यही देव बनना है। देव बनकर हम महादेव के मित्र होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्राणसाधना से हमारा सम्बन्ध ज्ञान के साथ होता है, शरीर व मस्तिष्क उत्तम बनते हैं, वृद्धि को प्राप्त करते हुए हम देव बनकर महादेव के मित्र बन पाते हैं।

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    विषय

    वीर युवाओं को वायु के दृष्टान्त से नवपत्नी के ग्रहण और रक्षा का उपदेश ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( यव्या साधारण्या ) संयोग विभाग करने वाली साधारण गति से ( अयासः ) बहने वाले, ( शुभ्राः ) भासने वाले ( मरुतः ) वायु गण ( परा मिमिक्षुः ) दूर दूर तक देशों को जलों से सींच देते हैं । ( न रोदसी अपनुदन्त ) शब्द करने वाले मेघ और विद्युत् दोनों का भी गर्जन दूर नहीं हटा देते प्रत्युत ( घोराः ) स्वयं भयंकर वेग से चल कर भी ( देवाः ) जल प्रदानशील होकर वे ( सख्याय ) सब प्राणियों के प्रति मित्र भाव के लिये ( वृधं जुषन्तं ) सबके बढ़ाने, पुष्ट करने वाले जल अन्न या सूर्य का सेवन करते कराते हैं उसी प्रकार ( मरुतः ) विद्वान् लोग ( यव्या ) अपने से कम अवस्था वाली ( सा धारण्या इव ) अपने समान बल वीर्य धारण करने वाली स्त्री के साथ ( अयासः ) संगत होने वाले ( शुभ्राः ) अलंकारों और उत्तम उज्ज्वल वस्त्रों से शोभायमान होकर ( परा मिमिक्षुः ) उत्तम रीति से क्षेत्र में बीज वपन करें । ( रोदसी ) रोने के स्वभाव वाली दुःखिता स्त्री को या दीन दुखिया स्त्री-पुरुषों को भी वे ( न अप नुदन्त ) अपने से दूर न करें, प्रत्युत सान्त्वना देकर स्वयं (घोराः) बलवान् शत्रुओं के लिये भयंकर होकर भी ( देवाः ) दिव्य गुणों से युक्त एवं कामना शील प्रेम युक्त होकर ( वृधं ) अपने कुल को बढ़ाने वाली स्त्री को ही ( सख्याय ) मित्र भाव की वृद्धि के लिये ( जुषन्त ) उससे और अधिक प्रेम करें । अथवा—वे ( रोदसी ) सूर्य पृथिवी के समान अपने माता पिताओं को घर से बाहर न निकालें, उनको अपने से दूर नहीं करें । प्रत्युत ( देवाः ) वे दानशील, उदार होकर ( वृधं ) कुल के बढ़ाने वाले बृद्ध पुरुष को भी ( सख्याय जुषन्त ) मित्र भाव के लिये उसका सेवन और प्रेम पूर्वक शुश्रूषा करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्तय ऋषिः ॥ इन्द्रो मरुच्च देवता । छन्दः - १, ४, ५, भुरिक् पङ्क्तिः । ७, स्वराट् पङ्क्तिः । १० निचृत् पङ्क्तिः ११ पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी वायू व विद्युतच्या योगाने उत्पन्न झालेली वृष्टी अनेक औषधांना उत्पन्न करून सर्व प्राण्यांना जीवन देऊन दुःख दूर करते, जशी उत्तम पतिव्रता स्त्री पतीला आनंदित करते तसे विद्वान लोकांनी विद्या व उत्तम शिक्षणाच्या वर्षावाने व धर्माच्या सेवनाने सर्व माणसांना आह्लादित करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Distant but brilliant and powerful, moving at moderate speed, the Maruts shower the earth and sky with rain, but even when they are violent, roaring with lightning, they are not repulsive, they are only impulsive, not repelling the sky and the earth away but impelling them with new life and energy, because the divines love to mix and join in a spirit of commonalty for the sake of friendship and love the growth and expansion of all in power and potential.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again in the praise of learned persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Pure and quick moving winds sprinkle the earth and the sky with their movements. Though fierce with the combination of the lighting, they do not destroy the earth and the sky. Likewise, the enlightened persons should make friendship with the common men, as they are useful to all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The rain caused by the combination of the air and lightning generates herbs, enlivens all beings and removes their sufferings. Likewise a noble chaste wife delights her husband. In the same manner, the learned persons should make all men happy by raining the water of wisdom and good education and by the observance of Dharma (righteousness).

    Foot Notes

    (अयास:) शीघ्रगामिन: = Quick moving. (यव्या) मिश्रितामिश्रित गत्या = By movement.

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