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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 175 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 175/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ न॑स्ते गन्तु मत्स॒रो वृषा॒ मदो॒ वरे॑ण्यः। स॒हावाँ॑ इन्द्र सान॒सिः पृ॑तना॒षाळम॑र्त्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । ते॒ । ग॒न्तु॒ । म॒त्स॒रः । वृषा॑ । मदः॑ । वरे॑ण्यः । स॒हऽवा॑न् । इ॒न्द्र॒ । सा॒न॒सिः । पृ॒त॒ना॒षाट् । अम॑र्त्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नस्ते गन्तु मत्सरो वृषा मदो वरेण्यः। सहावाँ इन्द्र सानसिः पृतनाषाळमर्त्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। ते। गन्तु। मत्सरः। वृषा। मदः। वरेण्यः। सहऽवान्। इन्द्र। सानसिः। पृतनाषाट्। अमर्त्यः ॥ १.१७५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 175; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ते यो मत्सरो वरेण्यो वृषा सहावान् सानसिः पृतनाषाडमर्त्यो मदोऽस्ति स नोऽस्माना गन्तु ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (ते) तव (गन्तु) प्राप्नोतु (मत्सरः) सुखकरः (वृषा) वीर्यकारी (मदः) औषधिसारः (वरेण्यः) वर्त्तुं स्वीकर्त्तुमर्हः (सहावान्) सहो बहुसहनं विद्यते यस्मिन् सः। अत्राऽन्येषामपीत्युपधादीर्घः। (इन्द्र) सभेश (सानसिः) संविभाजकः (पृतनाषाट्) पृतनां नृसेनां सहते येन सः (अमर्त्यः) मनुष्यस्वभावाद्विलक्षणः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैराप्तानां धर्मात्मनामोषधिरसोऽस्मान् प्राप्नोत्विति सदैवेषितव्यम् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभापति ! (ते) आपका जो (मत्सरः) सुख करनेवाला (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (वृषा) वीर्यकारी (सहावान्) जिसमें बहुत सहनशीलता विद्यमान (सानसिः) जो अच्छे प्रकार रोगों का विभाग करनेवाला (पृतनाषाट्) जिससे मनुष्यों की सेना को सहते हैं और (अमर्त्यः) जो मनुष्य स्वभाव से विलक्षण (मदः) ओषधियों का रस है वह (नः) हम लोगों को (आ, गन्तु) प्राप्त हो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि आप्त धर्मात्मा जनों का ओषधि रस हमको प्राप्त हो, ऐसी सदा चाहना करें ॥ २ ॥

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    विषय

    अमर्त्यता का साधन 'सोम'

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (न:) = हमें (ते) = आपका यह सोम (आगन्तु) = प्राप्त हो । यह (मत्सरः) = आनन्द का सञ्चार करनेवाला है, (वृषा) = सुखों का वर्षण करनेवाला है, (मदः) = तृप्ति देनेवाला है, (वरेण्यः) = वरणीय है, चाहने योग्य है, (सहावान्) = रोग- कृमिरूप शत्रुओं का मर्षण करनेवाली शक्ति को देनेवाला है, अतएव (सानसिः) = सम्भजनीय है। २. यह सोम (पृतनाषाट्) = रोगकृमिरूप शत्रु- सैन्य का अभिभव [विनाश] करनेवाला है तथा (अमर्त्यः) = हमें रोगरूप मृत्युओं से न मरने देनेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम सुरक्षित होने पर रोगकृमिरूप शत्रुओं को नष्ट करके हमें 'अमर्त्य' बनाता है।

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    विषय

    वह अधिक बलशाली हो।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ते ) तेरा ( मत्सरः ) हर्षकारी ( मदः ) दमनकारी शासक वर्ग ( वरेण्यः ) नायक रूप से स्वीकार करने योग्य ( वृषा ) बलवान् होकर ( नः ) हमें ( आ गन्तु ) प्राप्त हो ! हे इन्द्र ! तू, या वह शासक वर्ग ( सहावान् ) शत्रुपराजयकारी बल वाला, (सानसिः) ऐश्वर्य का सर्वत्र विभाग करने वाला, (पृतनाषाट्) शत्रु सेनाओं और प्रजा के मनुष्यों को भी दबाने हारा, ( अमर्त्यः ) कभी नहीं मरता; या वह साधारण मनुष्य से अधिक बलशाली और अधिकारवान् हो । ( २ ) परमेश्वर का हर्षकारी सर्व श्रेष्ठ परमानन्द हमें भी प्राप्त हो । वह सब दुखों के सहन शक्ति वाला, सब सुखों का दाता, सबको विजेता और अमर, अविनाशी है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १ स्वराडनुष्टुप् । २ विराडनुष्टुप । ५ अनुष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् त्रिष्टुप । उष्णिक् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आप्त, धर्मात्मा लोकांच्या औषधी आम्हाला प्राप्त व्हाव्यात अशी माणसांनी सदैव इच्छा धरावी. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O for a draught of soma, that exciting, ener gising, ecstatic, cherished, strengthening, invigorating and immortal nectar of yours, Indra, which leads us on to victory over all the antilife forces of the world! May it come to us in plenty!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Divine Bliss is prayed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra - President of the Assembly ! may we also have that Soma (juice of nourishing herbs) which is exhilarating, good and invigorating. It is the most acceptable enjoyable, and conqueror over enemies, and gives the power of endurance. You are different from the nature of ordinary persons and are wonderful.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should desire that the medicinal juice prepared by the learned, righteous and absolutely truthful persons may be obtained by them also.

    Foot Notes

    (मत्सर:) सुखकर: = Giver of happiness. (अमर्त्यः) मनुष्यस्वभावाद् विलक्षण: = Different in the nature of a common man. (पृतनाषाट्) पृतनां सेनां सहते येन स: = Forward army men facing the brunt of an enemy.

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