ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 175/ मन्त्र 6
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यथा॒ पूर्वे॑भ्यो जरि॒तृभ्य॑ इन्द्र॒ मय॑ इ॒वापो॒ न तृष्य॑ते ब॒भूथ॑। तामनु॑ त्वा नि॒विदं॑ जोहवीमि वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । पूर्वे॑भ्यः । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । इ॒न्द्र॒ । मयः॑ऽइव । आपः॑ । न । तृष्य॑ते । ब॒भूथ॑ । ताम् । अनु॑ । त्वा॒ । नि॒ऽविद॑म् । जो॒ह॒वी॒मि॒ । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्य इन्द्र मय इवापो न तृष्यते बभूथ। तामनु त्वा निविदं जोहवीमि विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा। पूर्वेभ्यः। जरितृऽभ्यः। इन्द्र। मयःऽइव। आपः। न। तृष्यते। बभूथ। ताम्। अनु। त्वा। निऽविदम्। जोहवीमि। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१७५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 175; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र यथा निविदा पूर्वेभ्यो जरितृभ्यो मयइव तृष्यतः आपो न त्वं बभूथ तां निविदमनु त्वाहं जोहवीमि। अतो वयमिषं वृजनं जीरदानुञ्च विद्याम ॥ ६ ॥
पदार्थः
(यथा) येन प्रकारेण (पूर्वेभ्यः) अधीतपूर्वविद्येभ्यः (जरितृभ्यः) सकलविद्यागुणस्तावकेभ्यः (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त (मयइव) सुखमिव (आपः) जलानि (न) इव (तृष्यते) तृषाक्रान्ताय (बभूथ) भव (ताम्) (अनु) (त्वा) (निविदम्) नित्यविद्याम् (जोहवीमि) भृशं स्तौमि (विद्याम) (इषम्) (वृजनम्) बलम्। वृजनमिति बलना०। निघं० २। ९। (जीरदानुम्) स्वात्मस्वरूपम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये ब्रह्मचर्येणाप्तेभ्यो विद्याशिक्षे प्राप्याऽन्येभ्यः प्रयच्छन्ति ते सुखेन तृप्ताः सन्तो प्रशंसामाप्नुवन्ति। ये विरोधं विहाय परस्परमुपदिशन्ति ते विज्ञानबलं जीवपरमात्मस्वरूपं च जानन्ति ॥ ६ ॥अत्र राजव्यवहारवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति पञ्चसप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त ! (यथा) जिस प्रकार नित्य विद्या से (पूर्वेभ्यः) प्रथम विद्या अध्ययन किये (जरितृभ्यः) समस्त विद्या गुणों की स्तुति करनेवाले जनों के लिए (मयइव) सुख के समान वा (तृष्यते) तृषा से पीड़ित जन के लिये (आपः) जलों के (न) समान आप (बभूथ) हूजिये, (ताम्) उस (निविदम्) नित्य विद्या के (अनु) अनुकूल (त्वा) आपकी मैं (जीहवीमि) निरन्तर स्तुति करता हूँ और इसीसे हम लोग (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) आत्मस्वरूप को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो ब्रह्मचर्य के साथ शास्त्रज्ञ धर्मात्माओं से विद्या और शिक्षा पाकर औरों को देते हैं, वे सुख से तृप्त होते हुए प्रशंसा को प्राप्त होते हैं और जो विरोध को छोड़ परस्पर उपदेश करते हैं, वे विज्ञान, बल और जीवात्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानते हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में राजव्यवहार के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ पचहत्तरवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्यासे के लिए पानी के समान
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यथा) = क्योंकि आप (पूर्वेभ्यः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (जरितृभ्यः) = स्तोताओं के लिए (मयः इव) = कल्याण के समान (बभूथ) = होते हैं। उसी प्रकार कल्याण करनेवाले होते हैं (न) = जैसे कि (तृष्यते) = प्यासे के लिए (आपः) = जल । प्यास से व्याकुल पुरुष के लिए जैसे जल शान्ति देनेवाले होते हैं, उसी प्रकार स्तोताओं के लिए आप कल्याण करते हैं । २. मैं भी (तां निविदं अनु) = [निविदं - A short vedic text] आपसे दी गई इन ऋचाओं के अनुसार (त्वा जोहवीमि) = आपको पुकारता हूँ। इन ज्ञानवाणियों में निर्दिष्ट मार्ग से आपकी प्रार्थना करता हूँ। आपकी उपासना से हम (इषम्) = प्रेरणा को, (वृजनम्) = पाप के वर्जन को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को विद्याम प्राप्त करें ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु स्तोताओं के लिए इस प्रकार शान्ति देनेवाले हैं जैसे कि प्यासे के लिए पानी ।
विषय
योग्य धुरन्धर के लक्षण ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( आपः न तृष्यते ) जिस प्रकार प्यासे को जल अति सुखदायी होते हैं उसी प्रकार ( पूर्वेभ्यः ) पूर्व के, अपने से बढ़ ( जरितृभ्यः ) विद्वान् विद्योपदेष्टाओं के लिये तू भी ( मय इव ) अत्यन्त सुख कल्याणकारी के समान ( यथा ) यथावत् ( बमूथ ) हुआ कर । ( वा अनु ) तुझे लक्ष्य करके ही मैं ( ताम् निविदं ) उस नित्य विद्या वेद का ( जोहवीमि ) प्रदान करता हूं । जिससे हम सब ( इषं वृजनं जीरदानुं च ) अन्न, प्रेरणा, उत्तम शिक्षा, पाप निवारक बल और जीवन ( विद्याम ) प्राप्त कर लें । ( २ ) परमेश्वर पूर्ण स्तोताओं को सुखदायक है, ऐसा शान्तिप्रद है जैसा प्यासे को जल । उसी को लक्ष्य कर ‘निविद्’ गुह्य उपनिषत् गुरुविद्या का मैं उपार्जन करूं, जिसे हम प्रेरणा, स्फूर्ति, आत्मिक बल, शारीरिक बल और जीवन प्राप्त करें । इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १ स्वराडनुष्टुप् । २ विराडनुष्टुप । ५ अनुष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् त्रिष्टुप । उष्णिक् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे ब्रह्मचर्यपूर्वक शास्त्रज्ञ धर्मात्म्यांकडून विद्या व शिक्षण प्राप्त करून इतरांना देतात ते सुखाने तृप्त होऊन प्रशंसेस पात्र ठरतात. जे विरोध सोडून परस्पर उपदेश करतात ते विज्ञान, बल व जीवात्मा, परमात्मा यांच्या स्वरूपाला जाणतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of honour, power and glory, be like water to the thirsty. Be like peace and joy incarnate to the admirers of eternal knowledge and worshippers of the divine virtues of yours. In the tradition of ancient knowledge, I honour and celebrate you with this song of adoration by which, I hope and pray, we shall realise the objects of our heart’s desire, the right path of living and the spiritual light of being.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of mighty Indra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! you possess the wealth of knowledge and give happiness to the ancient admirers of all sciences and merits by your deep knowledge like water to a thirsty. Therefore I constantly invoke you because you are endowed with eternal wisdom. With it, we may fulfil all noble desires, strength and long life, as well as the real spiritual knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who get wisdom and knowledge from absolutely truthful learned persons, by the observance of Brahmacharya and then give it to others, are praised everywhere. They give up all ideas of animosity, mug up their studies and teach one another. Such people know the power of knowledge and the nature of the soul and God.
Foot Notes
(निविदम् ) नित्यविद्यम् = Endowed with eternal wisdom. (जीरदानुम् ) जीवात्मस्वरूपम् = The nature of the soul.
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