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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 175 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 175/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    मु॒षा॒य सूर्यं॑ कवे च॒क्रमीशा॑न॒ ओज॑सा। वह॒ शुष्णा॑य व॒धं कुत्सं॒ वात॒स्याश्वै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मु॒षा॒य । सू॒र्य॒ । क॒वे॒ । च॒क्रम् । ईशा॑नः । ओज॑सा । वह॑ । शुष्णा॑य । व॒धम् । कुत्स॑म् । वात॑स्य । अश्वैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुषाय सूर्यं कवे चक्रमीशान ओजसा। वह शुष्णाय वधं कुत्सं वातस्याश्वै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुषाय। सूर्यम्। कवे। चक्रम्। ईशानः। ओजसा। वह। शुष्णाय। वधम्। कुत्सम्। वातस्य। अश्वैः ॥ १.१७५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 175; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजधर्मविषये सभापतिविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे कवे ईशानस्त्वं सूर्यमिवौजसा चक्रं मुषाय शुष्णाय वातस्याऽश्वैरिव स्वबलैः कुत्सं परिवर्त्य वधं वह प्रापय ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (मुषाय) (सूर्यम्) (कवे) क्रान्तदर्शन सकलविद्याविद्वन् (चक्रम्) भूगोलराज्यम् (ईशानः) ऐश्वर्यवान् समर्थः (ओजसा) बलेन (वह) प्रापय (शुष्णाय) परेषां हृदयस्य शोषकाय (वधम्) (कुत्सम्) वज्रम् (वातस्य) वायोः (अश्वैः) वेगादिभिर्गुणैः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये चक्रवर्त्तिराज्यं कर्त्तुमिच्छेयुस्ते दस्यून् दुष्टाचारान् मनुष्यान्निवर्त्य न्यायं प्रवर्त्तयेयुः ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजधर्म विषय में सभापति के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (कवे) क्रम क्रम से दृष्टि देने समस्त विद्याओं के जाननेवाले सभापति ! (ईशानः) ऐश्वर्य्यवान् समर्थ ! आप (सूर्य्यम्) सूर्यमण्डल के समान (ओजसा) बल से युक्त (चक्रम्) भूगोल के राज्य को (मुषाय) हर के (शुष्णाय) औरों के हृदय को सुखानेवाले दुष्ट के लिये (वातस्य) पवन के (अश्वैः) वेगादि गुणों के समान अपने बलों से (कुत्सम्) वज्र को घुमाके (वधम्) वध को (वह) पहुँचाओ अर्थात् उक्त दुष्ट को मारो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो चक्रवर्त्ती राज्य करने की इच्छा करें वे डाकू और दुष्टाचारी मनुष्यों को निवार के न्याय को प्रवृत्त करावें ॥ ४ ॥

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    विषय

    सूर्यचक्र-मोषण [शुष्णासुर का वध]

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (कवे) = सब ज्ञानों को प्राप्त करनेवाले-तत्त्वज्ञानिन् ! तू (ईशानः) = इन्द्रियों का ईश बनता हुआ (ओजसा) = ओजस्विता के हेतु से (चक्रम्) = निरन्तर गतिशील (सूर्यम्) = सूर्य को (मुषाय) = चुरानेवाला हो, अर्थात् तू सूर्य की भाँति निरन्तर गतिशील बन । अपनी गतिशीलता से सूर्य की गति को भी तू पराजित कर दे। सूर्य गतिशीलता का पाठ पढ़कर इस गतिशीलता में तू उससे भी आगे बढ़ जा । ऐसा होने पर ही तू सूर्य की भाँति ओजस्वी व श्रीसम्पन्न हो जाएगा। २. तू वातस्य अश्वैः - वायु के घोड़ों के द्वारा अर्थात् वायु की भाँति निरन्तर गतिशील इन्द्रियाश्वों से (शुष्णाय) = तेरा शोषण करनेवाले इस वासनारूप शत्रु के लिए (कुत्सम्) = हिंसित करनेवाले (वधम्) = आयुध को वह धारण कर। इस क्रियाशीलतारूप वज्र से शुष्णासुर को समाप्त कर डाल। शुष्णासुर को समाप्त करके ही तू ओजस्वी बना रहेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ – हम सूर्य की भाँति निरन्तर गतिशील हों । इस गतिशीलता से ही हम वासनारूप शत्रु का पराजय करेंगे व ओजस्वी बनेंगे।

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    विषय

    योग्य धुरन्धर के लक्षण ।

    भावार्थ

    हे ( कवे ) क्रान्तदर्शिन् ! विद्वन् ! तू ( ईशानः ) सबका सामर्थ्यवान् स्वामी है। तू (ओजेसा) अपने बल पराक्रम से ( सूर्यम् ) सूर्य के समान समृद्धियुक्त, बलवान्, अन्धकार नाशक, ( चक्रम् ) राज्य चक्र, बलचक्र, मण्डल तथा शस्त्र बल को ( मुषाय ) अप्रत्यक्ष रूप में धारण कर । और ( वातस्य ) वायु के समान बलवान् सैन्य के (अश्वैः) तीव्र घुड़सवारों के द्वारा ( शुष्णाय ) प्रजा के रक्त शोषण करने वाले आतङ्ककारी दुष्ट पुरुषों के विनाश के लिये ( कुत्सं ) उनको काट २ कर नाश कर देने वाले (वधं) वध अर्थात् शस्त्र बल और राजदण्ड को (वह) धारण कर । ( २ ) परमेश्वर महान् सामर्थ्य से ( सूर्यं चक्रम् ) सूर्य को चक्र के समान घुमा रहा है। वह (वातस्याश्वैः) प्राण के अधीन इन्द्रियों द्वारा दुःखदायी पाप के नाश के लिये ( वधं ) मृत्यु और ( कुत्सं ) मात्र को काटने फाटने वाले छेद भेद के कष्टों को प्राप्त कराता है । हम लोग दैहिक दुःखों से पीड़ित होकर पाप छोड़ देते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १ स्वराडनुष्टुप् । २ विराडनुष्टुप । ५ अनुष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् त्रिष्टुप । उष्णिक् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो चक्रवर्ती राज्य करण्याची इच्छा धरतो त्यांनी चोर लुटारूंचे व दुष्ट माणसांचे निवारण करून न्यायात संलग्न व्हावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Having taken over the wheel of earth’s government with your lustre like the blazing sun, O Lord of light, vision and wisdom, wield the thunderous sceptre of power and justice with honour and hold the system of law and punishment under your control, moving on by horses flying on the wings of winds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and functions of a ruler the president are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O knower of all sciences ! you are lord of wealth. Carry the wheel of your kingdom like the sun. Take up your thunderbolt-like strong weapons for the wiping out of the ignoble persons. With the strength and the speed and other attributes of the wind, acquired from you, these persons harass and hurt other noble persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who desire to enjoy the kingdom of the world, should keep away the robbers and other wicked persons and should deal with them sternly and with justice.

    Foot Notes

    (चक्रम्) = The wheel of the whole world. (शुष्णाय) परेषां हृदयस्य शोषकाय = The person who harasses and hurts other men. (कुत्सम्) वज्रम् = Thunderbolt or strong fierce weapon. (अश्वै:) वेगदिभिगुर्णै = By the attributes of speed etc.

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