ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 176/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
तस्मि॒न्ना वे॑शया॒ गिरो॒ य एक॑श्चर्षणी॒नाम्। अनु॑ स्व॒धा यमु॒प्यते॒ यवं॒ न चर्कृ॑ष॒द्वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मि॑न् । आ । वे॒श॒य॒ । गिरः॑ । यः । एकः॑ । च॒र्ष॒णी॒नाम् । अनु॑ । स्व॒धा । यम् । उ॒प्यते॑ । यव॑म् । न । चर्कृ॑षत् । वृषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मिन्ना वेशया गिरो य एकश्चर्षणीनाम्। अनु स्वधा यमुप्यते यवं न चर्कृषद्वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मिन्। आ। वेशय। गिरः। यः। एकः। चर्षणीनाम्। अनु। स्वधा। यम्। उप्यते। यवम्। न। चर्कृषत्। वृषा ॥ १.१७६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 176; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रकृतविषये विद्याबीजविषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वंस्तस्मिन् गिर आ वेशय यश्चर्षणीनामेक एवाऽस्ति। यमनुलक्ष्य चर्कृषद्वृषा यवं न स्वधान्नमुप्यते च ॥ २ ॥
पदार्थः
(तस्मिन्) (आ) (वेशय) समन्तात् प्रापय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गिरः) उपदेशरूपा वाणीः (यः) (एकः) असहायः (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (अनु) (स्वधा) अन्नम् (यम्) (उप्यते) (यवम्) (न) इव (चर्कृषत्) भृशं कर्षन् भृशं भूमिं विलिखन् (वृषा) कृषिकर्मकुशलाः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा कृषिवलाः क्षेत्रेषु बीजान्युप्त्वा धनानि लभन्ते तथा विद्वांसो जिज्ञासूनामात्मसु विद्यासुशिक्षे प्रवेश्य सुखानि लभन्ते ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रकृत विषय में विद्यारूप वीज के विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (तस्मिन्) उसमें (गिरः) उपदेशरूप वाणियों को (आ, वेशय) अच्छे प्रकार प्रविष्ट कराइये कि (यः) जो (चर्षणीनाम्) मनुष्यों में (एकः) एक अकेला सहायरहित दीनजन है और (यम्) जिसका (अनु) पीछा लखिकर (चर्कृषत्) निरन्तर भूमि को जोतता हुआ (वृषा) कृषिकर्म में कुशल जन जैसे (यवम्) यव अन्न को (न) बोओ वैसे (स्वधा) अन्न (उप्यते) बोया जाता अर्थात् भोजन दिया जाता है ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कृषिवल खेती करनेवाले उत खेतों में बीजों को बोकर अन्नों वा धनों को पाते हैं, वैसे विद्वान् जन ज्ञान विद्या चाहनेवाले शिष्य जनों के आत्मा में विद्या और उत्तम शिक्षा प्रवेश करा सुखों को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
विषय
प्रभु में स्तुतिवाणियों का प्रवेश
पदार्थ
१. हे जीव! तू (तस्मिन्) = उस प्रभु में (गिरः) = स्तुतिवाणियों को (आवेशय) = प्रविष्ट कर, (यः) = जो (चर्षणीनाम्) = द्रष्टाओं में (एकः) = अद्वितीय है। वे प्रभु सर्वप्रमुख द्रष्टा हैं, तू उन्हीं का ध्यान कर। २. (यम् अनु) = तू उस परमात्मा का स्तवन कर जिसके अनुसार (स्वधा उप्यते) = आत्मधारण-शक्ति का वपन किया जाता है। जितना-जितना हम प्रभु के समीप होते हैं, उतनी उतनी ही आत्म-धारण-शक्ति हमें प्राप्त होती है । वस्तुतः (वृषा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाला वह प्रभु ही (यवं न चर्कृषत्) = यव की भाँति इस स्वधा को हममें उत्पन्न करता है। जैसे किसान खेतों में जौ की कृषि करता है, उसी प्रकार स्तुत हुए हुए प्रभु हमारे हृदय क्षेत्रों में स्वधा का वर्षण करते हैं। जैसे 'यव' शरीर के दोषों का अमिश्रण व गुणों का मिश्रण करते हैं, उसी प्रकार यह 'स्वधा' मन के दोषों को दूर करके गुणों को प्राप्त कराती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही स्तुति के योग्य हैं। प्रभु-स्तवन से आत्म-धारण-शक्ति प्राप्त होती है ।
विषय
अद्वितीय प्रभु की स्तुति करने का उपदेश ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुष ( यः ) जो ( एकः ) एक अद्वितीय ( चर्षणीनाम् ) सब देखने वाले विद्वान् मनुष्यों के बीच सर्वद्रष्टा है, तू ( तस्मिन् ) उसको लक्ष्य करके ही ( गिरः आवेशय ) अपनी स्तुति वाणियों का प्रयोग कर। उसी की निरन्तर स्तुति दिया कर । वह अकेला अद्वितीय परमेश्वर है ( यम् अनु ) जिसको लक्ष्य करके स्तुति करने से ( स्वधा ) हल खेंचने वाले बैल के प्रयत्न के अनन्तर या मेघ के वर्षण के बाद खेत में अब के समान ( स्वधा ) आत्मा की वास्तविक शक्ति, परम अमृत रस ( उप्यते ) बोया जाता और उत्पन्न होता है । वह ( वृषा ) समस्त सुखों का वर्षक, मेघ के समान और बलवान् बलीवर्द के समान आत्मा या अन्तःकरण रूप क्षेत्र में ( यवं न ) खेत में जौ के समान (यवं) दुखों से छुड़ा देने हारे ज्ञान रूप अन्न की (चर्कृषत् ) कृषि करता, कराता है। वह भव बन्धन काटने का साधन ब्रह्मज्ञान को उत्पन्न करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्र देवता । छन्द्रः– १, ४ अनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् ३ विराडनुष्टुप् । ५ भुरिगुष्णिक् । त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा शेतकरी जमिनीत बीज पेरून अन्न व धन प्राप्त करतो तसे विद्वान लोक ज्ञान-विद्या घेऊ इच्छिणाऱ्या शिष्यांच्या आत्म्यांमध्ये विद्या व उत्तम शिक्षण देऊन त्यांना सुख संपादन करवितात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Send up your voices of praise and prayer with reverence and homage to him who is powerful, generous, and unique among men, in whom words bear fruit as barley sowed in the field bears fruit, and who mows down the enemies as corn is harvested from the field.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The ways to ingrain knowledge are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! pervade one with praises who is the unquestioned leader of men, whose instructions are carried out and is an expert in farming and agriculture.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The farmers get wealth by sowing the seeds in their fields. Likewise the enlightened persons get happiness by spreading wisdom and good education. They enter the souls of the seekers after the truth.
Foot Notes
(चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् = Of men (स्वधाम्) अन्नम् = Food or food grains. (वृषा) कृषिकर्मकुशल: = An expert farmer.
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