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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 176 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 176/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    असु॑न्वन्तं समं जहि दू॒णाशं॒ यो न ते॒ मय॑:। अ॒स्मभ्य॑मस्य॒ वेद॑नं द॒द्धि सू॒रिश्चि॑दोहते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असु॑न्वन्तम् । स॒म॒म् । ज॒हि॒ । दुः॒ऽनस॑म् । यः । न । ते॒ । मयः॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । अ॒स्य॒ । वेद॑नम् । द॒द्धि । सू॒रिः । चि॒त् । ओ॒ह॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असुन्वन्तं समं जहि दूणाशं यो न ते मय:। अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असुन्वन्तम्। समम्। जहि। दुःऽनसम्। यः। न। ते। मयः। अस्मभ्यम्। अस्य। वेदनम्। दद्धि। सूरिः। चित्। ओहते ॥ १.१७६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 176; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे राजन् त्वं तमसुन्वन्तं दूणाशं समं जहि यः सूरिश्चिदिवौहते ते मयो न प्रापयति त्वमस्य वेदनमस्मभ्यं दद्धि ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (असुन्वन्तम्) अभिषवादिनिष्पादनपुरुषार्थरहितम् (समम्) सर्वम् (जहि) (दूणाशम्) दुःखेन नाशनीयम् (यः) (न) निषेधे (ते) तव (मयः) सुखम् (अस्मभ्यम्) (अस्य) (वेदनम्) धनम् (दद्धि) धर। अत्र दध धारण इत्यस्माद्बहुलं छन्दसीति शपो लुक् व्यस्ययेन परत्मैपदञ्च। (सूरिः) विद्वान् (चित्) इव (ओहते) व्यवहारान् वहति। अत्र वाच्छन्दसीति संप्रसारणं लघूपधगुणः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    येऽलसा भवेयुस्तान् राजा ताडयेत्। यथा विद्वान् सर्वेभ्यः सुखं ददाति तथा यावच्छक्यं तावत्सुखं सर्वेभ्यो दद्यात् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे राजन् ! आप उस (असुन्वन्तम्) पदार्थों के सार खींचने आदि पुरुषार्थ से रहित (दूणाशम्) और दुःख से विनाशने योग्य (समम्) समस्त आलसीगण को (जहि) मारो दण्ड देओ कि (यः) जो (सूरिः) विद्वान् के (चित्) समान (ओहते) व्यवहारों की प्राप्ति करता है और (ते) तुम्हारे (मयः) सुख को (न) नही पहुँचाता तथा आप (अस्य) इसके (वेदनम्) धन को (अस्मभ्यम्) हमारे अर्थ (दद्धि) धारण करो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जो आलसी जन हों उनको राजा ताड़ना दिलावे। जैसे विद्वान् जन सबके लिये सुख देता है, वैसे जितना अपना सामर्थ्य हो उतना सुख सबके लिये देवे ॥ ४ ॥

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    विषय

    असुन्वन् दूणाश' का विनाश

    पदार्थ

    १. (असुन्वन्तम्) = अयज्ञशील (दूणाशम्) = अशुभ कर्मों में धन का नाश करनेवाले (समम्) = सब पुरुषों को [सम:- सर्वशब्दपर्याय:] (जहि) = नष्ट कीजिए। उसे नष्ट कीजिए (यः) = जो ‘असुन्वन् दूणाश' पुरुष (ते) = आपके लिए (मयः न) = प्रजा में सुख करनेवाला नहीं है, जो आपकी प्राप्ति के उद्देश्य से लोकहित में प्रवृत्त नहीं होता। २. (अस्य वेदनम्) = इस अयज्ञशील के धन को (अस्मभ्यम्) = हम यज्ञशील पुरुषों के लिए (दद्धि) = दीजिए। (सूरिः चित्) = ज्ञानी स्तोता ही ओहते इस धन का ठीक प्रकार से वहन करता है । यह सूरि धनों का विनियोग यज्ञादि उत्तम कर्मों में ही करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ – धनों का विनियोग यज्ञादि में ही करना चाहिए। हमें चाहिए कि धनों का व्यर्थ के भोगों में विनाश न करें।

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    विषय

    उसके धन नाश की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    ( असुन्वन्तं ) यज्ञ आदि न करनेहारे, या ऐश्वर्य की वृद्धि न करने वाले, ( समं ) समस्त ( दुःनशं ) बड़ी कठिनता से नाश होने वाले उस दुष्ट पुरुष को ( जहि ) नाश कर ( यः ) जो ( ते मयः न ) तुझे सुखकारक नहीं होता । ( अस्मभ्यम् ) हमें ( अस्य ) उसका ( धनं ) धन ( दद्धि ) प्रदान कर या हमारे हित के लिये उसका धन तू धारण कर । ( सूरिः चित् ) सूर्य के समान विद्वान् पुरुष ही ( ओहते ) उस धन को प्राप्त करे । अथवा ( सूरिःचित् ओहते ) जो सूर्य के समान तेजस्वी होकर ऐश्वर्य को धारण करता है परन्तु वह यज्ञ नहीं करता, वह तुझे सुख दायक न हों तो उस दुष्ट पुरुष को दण्ड देकर उसका समस्त धन हर । हम प्रजाओं के निमित्त लगा । जैसा मनु लिखते हैं । आदाननित्याच्यादातुराहरेदप्रयच्छतः । तथा यशोऽस्य प्रथते धर्मश्चैव प्रवर्धते ॥ १५ ॥ योनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः । तयोरपि कुटुम्बाभ्यामाहरेदविचारयन् ॥ १४ । अ० ११ ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्र देवता । छन्द्रः– १, ४ अनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् ३ विराडनुष्टुप् । ५ भुरिगुष्णिक् । त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे आळशी असतात त्यांची राजाने ताडना करावी. जसे विद्वान लोक सर्वांना सुख देतात तसे आपले सामर्थ्य असेल तितके सुख सर्वांना द्यावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    One who is uncreative, unproductive and selfish, who is not a source and instrument of peace, comfort and joy for you and the society, and one who, being such, is difficult to change or eliminate, wipe out wholly and finally. Assign him to us, we shall find him and deal with him. Only the wise and generous carry the burdens of society and the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The lazy and inactive persons should be reformed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king punish even a powerful who does not perform his duties and is not industrious. It will delight you and your subjects. Bestow wealth for the pious and deserving `worshippers of God. A wise man gives happiness to all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The ruler should punish lazy fellows. Like a learned person others also should bestow happiness upon all, to the best of their might.

    Foot Notes

    ( असुन्वन्तम् ) अभिषवादिनिष्पादनपुरुषार्थरहितम् = Not industrious, lazy. ( दूणशम् ) दुःखेन नाशनीयपम् = Difficult to be destroyed, powerful. ( वेदनम् ) धनम् = Wealth.

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