ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 176/ मन्त्र 6
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यथा॒ पूर्वे॑भ्यो जरि॒तृभ्य॑ इन्द्र॒ मय॑ इ॒वापो॒ न तृष्य॑ते ब॒भूथ॑। तामनु॑ त्वा नि॒विदं॑ जोहवीमि वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । पूर्वे॑भ्यः । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । इ॒न्द्र॒ । मयः॑ऽइव । आपः॑ । न । तृष्य॑ते । ब॒भूथ॑ । ताम् । अनु॑ । त्वा॒ । नि॒ऽविद॑म् । जो॒ह॒वी॒मि॒ । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्य इन्द्र मय इवापो न तृष्यते बभूथ। तामनु त्वा निविदं जोहवीमि विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा। पूर्वेभ्यः। जरितृऽभ्यः। इन्द्र। मयःऽइव। आपः। न। तृष्यते। बभूथ। ताम्। अनु। त्वा। निऽविदम्। जोहवीमि। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१७६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 176; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रकृतविषये योगपुरुषार्थः प्रोच्यते ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वं योगजिज्ञासवः यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्यो योगं प्राप्य साधित्वा सिद्धा भवन्ति तथा भूत्वा मयइव तृष्यत आपो न बभूथ। तां योगविद्यामनुवर्त्तमानं निविदं त्वा जोहवीमि। एवं कृत्वा वयमिषं वृजनं जीरदानुं च विद्याम ॥ ६ ॥
पदार्थः
(यथा) (पूर्वेभ्यः) कृतयोगाभ्यासपुरःसरेभ्यः (जरितृभ्यः) योगगुणसिद्धीनां वेदितृभ्यः (इन्द्र) योगैश्वर्यजिज्ञासो (मयइव) सुखमिव (आपः) जलानि (न) इव (तृष्यते) पिपासवे (बभूथ) भव (ताम्) (अनु) (त्वा) (निविदम्) निश्चितप्रतिज्ञम् (जोहवीमि) भृशं ह्वयामि (विद्याम) (इषम्) इच्छासिद्धिम् (वृजनम्) दुःखत्यागम् (जीरदानुम्) जीवदयाम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
ये योगारूढेभ्यो योगशिक्षां प्राप्य पुरुषार्थेन योगमभ्यस्य सिद्धा जायन्ते तेऽलं सुखं लभन्ते। ये तान् सेवन्ते तेऽपि सुखं प्राप्नुवन्ति ॥ ६ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्यापुरुषार्थयोगवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥इति षट्सप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रकृत विषय में योग के पुरुषार्थ का वर्णन किया जाता है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) योग के ऐश्वर्य का ज्ञान चाहते हुए जन ! (यथा) जैसे योग जानने की इच्छावाले (पूर्वेभ्यः) किया है योगाभ्यास जिन्होंने उन प्राचीन (जरितृभ्यः) योग गुण सिद्धियों के जाननेवाले विद्वानों से योग को पाकर और सिद्ध कर होते अर्थात् योगसम्पन्न होते हैं वैसे होकर (मयइव) सुख के समान और (तृष्यते) पियासे के लिये (आपः) जलों के (न) समान (बभूथ) हूजिये और (ताम्) उस विद्या के (अनु) अनुवर्त्तमान (निविदम्) और निश्चित प्रतिज्ञा जिन्होंने की उन (त्वा) आपको (जोहवीमि) निरन्तर कहता हूँ ऐसे कर हम लोग (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) दुःखत्याग और (जीरदानुम्) जीवदया को (विद्याम) प्राप्त हों ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो जिज्ञासु जन योगारूढ़ पुरुषों से योगशिक्षा को प्राप्त होकर पुरुषार्थ से योग का अभ्यास कर सिद्ध होते हैं, वे पूर्ण सुख को पाते और जो उत्तम योगियों का सेवन करते, वे भी सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में विद्या, पुरुषार्थ और योग का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ छिहत्तरवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
ऐश्वर्यवृद्धि की याचना ।
भावार्थ
व्याख्या देखो ( सूक्त १७५, मन्त्र ६ ) इत्येकोनविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्र देवता । छन्द्रः– १, ४ अनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् ३ विराडनुष्टुप् । ५ भुरिगुष्णिक् । त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे जिज्ञासू लोक योगारूढ पुरुषांकडून योगशिक्षण प्राप्त करून पुरुषार्थाने योगाचा अभ्यास करून सिद्ध होतात ते पूर्ण सुख प्राप्त करतात व जे उत्तम योग्याचा स्वीकार करतात तेही सुख प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler of the world, be like water to the thirsty, a source of inspiration, incentive and comfort to the wise dedicated to the ancient and eternal knowledge and to the glory of the nation of humanity and divinity. In keeping with that tradition of knowledge and the glory of humanity and divinity, I offer my songs and prayers to you so that we may be blest with food and energy for body and mind, the right path of living and the light of life and spirit divine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The Yogic exercise is emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man ! you are keen to get the knowledge of the Divine great wealth of the yoga, because men well versed in Siddhas. Having acquired such expertise, you would also be giver of happiness like water to a thirsty. Therefore, I constantly invoke you who are well-versed in the science of Yoga and a man of determination. With it, we would fulfil of our desires, freedom from misery and kindness of living beings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who acquire the knowledge of the Yoga from the experienced Yogis and practice it incessantly and industriously? become Siddhas (accomplished Yogis). They get much happiness. Those who serve them also share happiness.
Foot Notes
(इन्द्र) योगैश्व्र्यजिज्ञासो = O Eager to know the great wealth of the Yoga.( वृजनम्) दुःखत्यागम् = Renunciation from or free from misery.(जीरदानुम) जीवदयाम् = Kindness to living beings.
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