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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 176 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 176/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    आवो॒ यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो॒ऽर्केषु॑ सानु॒षगस॑त्। आ॒जाविन्द्र॑स्येन्दो॒ प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आवः॑ । यस्य॑ । द्वि॒ऽबर्ह॑सः । अ॒र्केषु॑ । सा॒नु॒षक् । अस॑त् । आ॒जौ । इन्द्र॑स्य । इ॒न्दो॒ इति॑ । प्र । आ॒वः॒ । वाजे॑षु । वा॒जिन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आवो यस्य द्विबर्हसोऽर्केषु सानुषगसत्। आजाविन्द्रस्येन्दो प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आवः। यस्य। द्विऽबर्हसः। अर्केषु। सानुषक्। असत्। आजौ। इन्द्रस्य। इन्दो इति। प्र। आवः। वाजेषु। वाजिनम् ॥ १.१७६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 176; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्दो यस्य द्विबर्हसोऽर्केषु सानुषगसत्। यं त्वमावः स इन्द्रस्याजौ वाजेषु वाजिनं त्वा प्रावः सततं रक्षन्तु ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (आवः) (यस्य) (द्विबर्हसः) यो द्वाभ्यां विद्यापुरुषार्थाभ्यां वर्द्धते तस्य (अर्केषु) सुसत्कृतेष्वन्नेषु (सानुषक्) सानुकूलता (असत्) भवेत् (आजौ) संग्रामे (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (इन्दो) सुप्रजासु चन्द्रवद्वर्त्तमान (प्र) (आवः) रक्ष (वाजेषु) वेगेषु (वाजिनम्) बलवन्तम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    यथा सेनेशो सर्वान् भृत्यान् रक्षेत्तथा भृत्यास्तं सततं रक्षेयुः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्दो) अपनी प्रजाओं में चन्द्रमा के समान वर्त्तमान ! (यस्य) जिस (द्विबर्हसः) विद्या पुरुषार्थ से बढ़ते हुए जन के (अर्केषु) अच्छे सराहे हुए अन्नादि पदार्थों में (सानुषक्) सानुकूलता ही (असत्) हो जिसकी आप (आवः) रक्षा करें वह (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य सम्बन्धी (आजौ) संग्राम में (वाजेषु) वेगों में वर्त्तमान (वाजिनम्) बलवान् आपको (प्र, आवः) अच्छे प्रकार रक्षायुक्त करे अर्थात् निरन्तर आपकी रक्षा करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जैसे सेनापति सब चाकरों की रक्षा करे, वैसे वे चाकर भी उसकी निरन्तर रक्षा करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    उपासना-सातत्य

    पदार्थ

    १. हे सोम ! (यस्य) = जिस (द्विबर्हसः) = [बृहि वृद्धौ] ज्ञान व बल दोनों के दृष्टिकोण से बढ़े हुए पुरुष के (अर्केषु) = स्तुतिसाधन मन्त्रों में (सानुषक्) = सातत्य-नैरन्तर्य [निरन्तरता] (असत्) = होता है, आप उसकी (आव:) = रक्षा करते हो । मनुष्य को ज्ञान और बल [ब्रह्म + क्षत्र] दोनों का वर्धन करके 'द्विबर्हस्' बनना है। इसके लिए आवश्यक है कि वह प्रभु-स्मरण से कभी पृथक् न हो । प्रभु-स्मरण से हमारे जीवनों में वासना को स्थान नहीं मिलता। वासना से ऊपर उठने पर ज्ञान और शक्ति दोनों का वर्धन होता है। २. हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम! आप (इन्द्रस्य आजौ) = इस इन्द्र के संग्राम में-वासनाओं के साथ चलनेवाले अध्यात्म-संग्राम में इस (वाजिनम्) = शक्तिशाली पुरुष को (वाजेषु) = [strength, wealth] शक्तियों व ऐश्वर्यों में (प्रावः) = सुरक्षित करते हो । सोम की कृपा से हम संग्रामों में विजयी बनते हैं और शक्ति व ऐश्वर्य का वर्धन करनेवाले होते हैं । में विजयी

    भावार्थ

    भावार्थ- हम निरन्तर प्रभु के उपासक बनें। यह उपासना हमें अध्यात्म संग्राम बनाकर शक्ति व ऐश्वर्य में स्थापित करेगी।

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    विषय

    ऐश्वर्यवृद्धि की याचना ।

    भावार्थ

    ( द्विबर्हसः ) विद्या और पुरुषार्थ कर्म या राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों से बढ़ने वाले ( यस्य ) जिसकी ( अर्केषु ) अन्नों के प्राप्ति कार्य में ( सानुषक् ) सदा अनुकूलता ( असत् ) रहती है है ( इन्द्रो ) ऐश्वर्यवन् ! तू उसकी ( आअवः ) रक्षा कर । तू ( आजौ ) संग्राम के लिये ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् राष्ट्र के ( वाजेषु ) ऐश्वर्यों को प्राप्त करने के लिये ( वाजिनम् ) बलवान्, वेगवान् सैन्य या पुरुष की ( प्र अवः ) अच्छी प्रकार रक्षा कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्र देवता । छन्द्रः– १, ४ अनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् ३ विराडनुष्टुप् । ५ भुरिगुष्णिक् । त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा सेनापती सर्व चाकरांचे रक्षण करतो तसे त्यांनीही त्याचे निरंतर रक्षण करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power, protection and progress, protect and promote the man who accords with all the praises and appreciations of the nation’s achievement and creates and grows in geometric progression. Lord of brilliance and bliss like the moon, in the plans and projects of Indra, honour and glory, progress and development, and in the battles for justice and freedom, protect and promote the man of courage, dynamism and dedication.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The army and its commanders should protect each other.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O King Indra ! you are the ruler and behave like the moon among your subjects. The person under your protection and care and whose hospitality you accept always grows by both, knowledge and industriousness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A commander of an army protects all his loyal combatants and non-combatants. Likewise they also should guard him well.

    Foot Notes

    (द्विबर्हसः) यो द्वाभ्यां विद्यापुरुषार्थाभ्यां वर्द्धते तस्य = Of the person who grows both from knowledge and industriousness. (अर्केषु ) सुसंस्कृतेष्वन्नेषु = In well-cooked food.

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