Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 26 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    नि नो॒ होता॒ वरे॑ण्यः॒ सदा॑ यविष्ठ॒ मन्म॑भिः। अग्ने॑ दि॒वित्म॑ता॒ वचः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । नः॒ । होता॑ । वरे॑ण्यः । सदा॑ । य॒वि॒ष्ठ॒ । मन्म॑ऽभिः । अग्ने॑ । दि॒वित्म॑ता । वचः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। नः। होता। वरेण्यः। सदा। यविष्ठ। मन्मऽभिः। अग्ने। दिवित्मता। वचः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे यविष्ठाग्ने यजमान ! यो मन्मभिः सह वर्त्तमानो वरेण्यो होता नोऽस्माकं दिवित्मता वचः सङ्गमयति स त्वया सदा सङ्गन्तव्यः॥२॥

    पदार्थः

    (नि) नितराम् (नः) अस्माकम् (होता) सुखदाता (वरेण्यः) वरितुमर्हः। वृञ एण्यः। (उणा०३.२६) अनेनैण्यप्रत्ययः। (सदा) सर्वस्मिन् काले (यविष्ठ) अतिशयेन बलवान् यजमान (मन्मभिः) मन्यन्ते जानन्ति जना यैः पुरुषार्थैस्तैः। अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकेन। अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा०३.२.७५) अनेन करणे मनिन् प्रत्ययः। (अग्ने) विज्ञानादिप्रसिद्धस्वरूप ! (दिवित्मता) दिवं प्रकाशमिन्धते यैः प्रशस्तैः स्वगुणैस्तद्वता। अत्र दिव्शब्दोपपदादिन्धधातोः कृतो बहुलम् इति करणकारके (अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते) अनेन सूत्रेण क्विप्। ततः प्रशंसायां मतुप्। (वचः) उच्यते यत् तत्॥२॥

    भावार्थः

    अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (यज) इत्यस्याऽनुवृत्तिः। मनुष्यैः सज्जनजनसाहित्येन सकलकामनासिद्धिः कार्य्या। नैतेन विना कश्चित्सुखी भवितुमर्हतीति॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ) अत्यन्त बलवाले (अग्ने) यजमान ! जो (मन्मभिः) जिनसे पदार्थ जाने जाते हैं, उन पुरुषार्थों के साथ वर्त्तमान (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (होता) सुख देनेवाला (नः) हम लोगों के (दिवित्मता) जिनसे अत्यन्त प्रकाश होता है, उससे प्रसिद्ध (वचः) वाणी को (यज) सिद्ध करता है, उसी का (सदा) सब काल में संग करना चाहिये॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को योग्य है कि सज्जन मनुष्यों के सङ्ग से सकल कामनाओं की सिद्धि करें। इसके विना कोई भी मनुष्य सुखी रहने को समर्थ नहीं हो सकता॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे यविष्ठ अग्ने यजमान! यः मन्मभिः सह वर्त्तमानः वरेण्यः होता (नः)अस्माकं दिवित्मता वचः सङ्गमयति स त्वया सदा सङ्गन्तव्यः॥२॥

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ) अतिशयेन बलवान् यजमान= अत्यन्त बलवाले, (अग्ने) विज्ञानादिप्रसिद्धस्वरूप= विज्ञानादि से प्रसिद्ध स्वरूप वाले (यजमान)=यजमान! (यः)=जो, (मन्मभिः) मन्यन्ते जानन्ति जना यैः पुरुषार्थैस्तैः=जिनसे लोग जाने जाते हैं, उन पुरुषार्थों के साथ वर्त्तमान (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (होता) सुख देनेवाला (नः) अस्माकम्=हमारे, (सह)=साथ, (वर्त्तमानः)=वर्त्तमान, (वरेण्यः) वरितुमर्हः=स्वीकार करने योग्य,  (होता) सुखदाता=सुखदाता, (नः) अस्माकम्=हमारे, (दिवित्मता) दिवं प्रकाशमिन्धते यैः प्रशस्तैः स्वगुणैस्तद्वता=दिन में प्रकाश से चमकते हैं, ऐसे अपने गुणों से प्रसंशित, (वचः) उच्यते यत् तत्=जो कही जाती है उस वाणी के, (सङ्गमयति)=साथ जो सङ्गति करता है, (सः)=वह, (त्वया)=आपके द्वारा, (सदा) सर्वस्मिन् काले=सदैव, (सङ्गन्तव्यः)=सङ्गति किये जाने योग्य है॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज) इस पद की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों के द्वारा सज्जन मनुष्यों के सङ्ग से सकल कामनाओं की सिद्धि करनी चाहिए। इसके विना कोई मनुष्य सुखी रहने में समर्थ नहीं हो सकता है॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (यविष्ठ) अत्यन्त बलवाले (अग्ने) विज्ञानादि से प्रसिद्ध स्वरूप वाले (यजमान) यजमान! (यः) जो (मन्मभिः) जिनसे लोग जाने जाते हैं, उन पुरुषार्थों के साथ (नः) हमारे (सह) साथ (वर्त्तमानः) वर्त्तमान (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (होता) सुखदाता है। (नः) हमारे लिये (दिवित्मता) दिन में प्रकाश से चमकते हैं, ऐसे अपने गुणों से प्रसंशित,  (वचः) जो कही जाती है उस वाणी के (सङ्गमयति) साथ जो सङ्गति करता है, (सः) वह (त्वया) आपके द्वारा (सदा) सदैव (सङ्गन्तव्यः) सङ्गति किये जाने योग्य है॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नि) नितराम् (नः) अस्माकम् (होता) सुखदाता (वरेण्यः) वरितुमर्हः। वृञ एण्यः। (उणा०३.२६) अनेनैण्यप्रत्ययः। (सदा) सर्वस्मिन् काले (यविष्ठ) अतिशयेन बलवान् यजमान (मन्मभिः) मन्यन्ते जानन्ति जना यैः पुरुषार्थैस्तैः। अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकेन। अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा०३.२.७५) अनेन करणे मनिन् प्रत्ययः। (अग्ने) विज्ञानादिप्रसिद्धस्वरूप ! (दिवित्मता) दिवं प्रकाशमिन्धते यैः प्रशस्तैः स्वगुणैस्तद्वता। अत्र दिव्शब्दोपपदादिन्धधातोः कृतो बहुलम् इति करणकारके (अन्यभ्योऽपि दृश्यन्ते) अनेन सूत्रेण क्विप्। ततः प्रशंसायां मतुप्। (वचः) उच्यते यत् तत्॥२॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे यविष्ठाग्ने यजमान ! यो मन्मभिः सह वर्त्तमानो वरेण्यो होता नोऽस्माकं दिवित्मता वचः सङ्गमयति स त्वया सदा सङ्गन्तव्यः॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (यज) इ

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु की यविष्ठता

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की प्रेरणा को सुनकर 'शुनः शेप' प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (अग्ने) - हमारी उन्नति के साधक प्रभो! (यविष्ठ) - हमारे दुरितों को दूर करके भद्रों का हमारे साथ सम्पर्क करनेवाले प्रभो! आप ही (नि) - [सीद] हमारे हृदयों में निषण्ण होओ । आप ही निश्चय से (नः) - हमारे लिए (होता) - सब - कुछ देनेवाले हैं , (वरेण्य) - आप ही वरण के योग्य हैं । आपका वरण करके हमें क्या प्राप्त नहीं हो जाता?

    २. हे प्रभो! आप (सदा) - सदा (मन्मभिः) - मननीय स्तोत्रों द्वारा , विचारपूर्वक किये गये स्तवनों से तथा (दिवित्मता , वचः) - ज्योतिर्मय वचनों से [वचसा] प्राप्त करने योग्य हैं , अर्थात् ज्ञान की वाणियों के ग्रहण से तथा विचारपूर्वक की गई स्तुतियों से हम आपको अपने हृदयों में बिठा पाते हैं । उस समय हमें ऐसा अनुभव होता है कि हमें सब प्राप्य वस्तुएँ प्राप्त हो गई हैं [होता] और हमें वह आनन्द अनुभव होता है जो इन सांसारिक वस्तुओं में प्राप्य न था । आपको प्राप्त करके मुझसे सब अशुभ दूर हो जाते हैं और मैं शुभों को प्राप्त करनेवाला बनता हूँ । 

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान व स्तवन के द्वारा प्रभु को प्राप्त करके हम अशुभों से दूर व शुभों के समीप हो सकें । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विद्वान् पुरुषों की सेवा ।

    भावार्थ

    हे ( यविष्ठ ) अति बलशालिन् ! हे ( अग्ने ) अग्नि के समान तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! परमेश्वर ! राजन् ! विद्वन् ! तू ( नः ) हमें ( होता ) समस्त सुखप्रद पदार्थों और ज्ञानों के देने हारा ( वरेण्यः ) उत्तम पद और कार्य के लिए वरण करने योग्य श्रेष्ठ और ( मन्मभिः ) मनन करने योग्य ज्ञाताव्य गुणों से युक्त होकर ( दिवित्मता ) प्रकाश और ज्ञान को अधिक बढ़ाने वाले उत्तम गुण या तेज से युक्त होकर ( नः वचः ) हमें वाणी, वेदवाणी और उत्तम आज्ञा का उपदेश कर । अथवा हे ( अग्ने ) परमेश्वर ( दिवित्मता वचः ) ज्ञान के वर्धक वचन, वागी उपदेश से युक्त कर । इस मन्त्र में विद्वान् ज्ञानी पुरुष को ही यज्ञ के लिए भी होता वरण करना चाहिए, यह भाव स्पष्ट है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्त्तिर्ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१-८, ९ आर्ची उष्णिक् । २-६ निचृद्गायत्री । ३ प्रतिष्ठा गायत्री । ४, १० गायत्री । ५, ७ विराड् गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात पूर्व मंत्राच्या (यज) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. माणसांनी सज्जन माणसांच्या संगतीने संपूर्ण कामनांना सिद्ध करावे. त्याशिवाय कोणीही माणूस सुख संपादन करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, ever most youthful power of yajna, may the chosen high-priest with noble thoughts and hymns always help us realise the words of our prayer with your gifts of heavenly light and joy.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, what kind of that is, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (yaviṣṭha)=very powerful, (agne)=having famous form by specific knowledge, (yajamāna) parishioner (yaḥ)=that, (manmabhiḥ=by whom people are known, present with those efforts, (vareṇyaḥ)=acceptable, (hotā)=is provider of happiness, (naḥ)=us, (saha)=with,(varttamānaḥ)=present,(vareṇyaḥ=acceptable, (hotā)=is provider of happiness (naḥ)=for us, (divitmatā)= shining in the light of the day, admired by their virtues, famous for that, (vacaḥ)=of the voice that is said, (saṅgamayati)=which accompanies together, (saḥ)=that, (tvayā)=by you, (sadā)=always, (saṅgantavyaḥ)=is compatible.

    English Translation (K.K.V.)

    O very powerful, having famous form by specific knowledge, parishioner! With those efforts by whom people are known, the present with us is the giver of acceptable happiness. He shines with light in the day for us, praised by his qualities, who associates with the speech that is said, he deserves to be associated with you forever.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra the root ‘yaj’ is being followed from the previous mantra. All desires should be fulfilled by human beings with the company of gentlemen. Without it no man can be able to be happy.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that is taught, further in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O powerful Yajamana full of knowledge, you should always associate with a learned person who is selected by us, because he is giver of happiness on account of his industriousness, wisdom and other virtues and who unites our speech with resplendent knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( होता ) सुखदाता = Giver of happiness. (मन्मभिः) मन्यते जानन्ति जना यैः पुरुषार्थेः तैः अत्र कृतो बहुलम् इति वार्तिकेन अन्येभ्योऽपि- दृश्यते (अष्टा० ३.२.७५ ) अनेन करणेमनिन् प्रत्ययः = By industriousness etc. which help in the acquirement of knowledge. (अग्ने) विज्ञानादिप्रसिद्धस्वरूप | = Well known on account of knowledge etc. ( दिवित्मता ) दिवं प्रकाशम् इन्धते यैः प्रशस्तैः स्वगुणैः तद्वता । अत्र दिव् शब्दोपपदात् इन्धधातोः कृतो बहुलम् इति करणकारके प्रशंसायां मतुप् ||

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should accomplish all their good desires with the assistance of noble persons. Without association with such noble wise persons, none can enjoy happiness.

    Translator's Notes

    होता - is derived from हु-दानादनयो: आदाने च here the first meaning of the verb दान or giving has been taken, therefore the meaning as सुखदाता Giver of happiness अग्ने has been because it is derived interpreted as विज्ञानादि प्रसिद्ध-स्वरूप from अगि-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था ज्ञानं गमनं प्रप्तिश्च here the first meaning of or knowledge has been taken, therefore the meaning as given above. अग्नि कस्मात् अग्रणीर्भवति (निरुक्ते ७.१४ ) According to this etymology given in the Nirukta, a wise leader also is called Agni. Not understanding the deeper meaning, Sayanacharya, Wilson, Griffith and others have taken Agni only as fire, and I have translated as- "Propitiated by brilliant strains, do thou ever youthful Agni, selected by us, become our ministrant priest, invested with radiance.” (Wilson). Sit ever to be chosen, as our priest, most youthful, through our hymns, O Agni, through our heavenly word.” (Griffith). How can this inanimate material fire be the priest ( होता ) as stated in the Mantras? These translators have never bothered to think, following Sayanacharya who explains it as होमनिष्पादक: Rishi Dayananda's interpretation is therefore rational and substantiated by ancient authorities.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top