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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 26/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अथा॑ न उ॒भये॑षा॒ममृ॑त॒ मर्त्या॑नाम्। मि॒थः स॑न्तु॒ प्रश॑स्तयः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अथ॑ । नः॒ । उ॒भये॑षाम् । अमृ॑त । मर्त्या॑नाम् । मि॒थः । स॒न्तु॒ । प्रऽश॑स्तयः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्। मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथ। नः। उभयेषाम्। अमृत। मर्त्यानाम्। मिथः। सन्तु। प्रऽशस्तयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 26; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किमर्थं याचनीयो मनुष्यैश्च परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे अमृत जगदीश्वर ! भवत्कृपया यथोत्तमगुणकर्मग्रहणेनाथ नोऽस्माकमुभयेषां मर्त्यानां मिथः प्रशस्तयः सन्तु, तथा सर्वेषां भवन्त्विति प्रार्थयामः॥९॥

    पदार्थः

    (अथ) अनन्तरे (नः) अस्माकम् (उभयेषाम्) पण्डितापण्डितानाम् (अमृत) अविनाशिस्वरूपेश्वर (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् (मिथः) अन्योन्यार्थे (सन्तु) भवन्तु (प्रशस्तयः) उत्तमगुणकर्मग्रहणप्रशंसाः॥९॥

    भावार्थः

    यावन्मनुष्या रागद्वेषौ विहाय परस्परोपकाराय विद्याशिक्षापुरुषार्थैः प्रशस्तानि कर्माणि न कुर्वन्ति नैव तावत्तेषु सुखानि सम्पत्तुं शक्नुवन्ति। अथेत्यनन्तरं सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वराज्ञायां वर्त्तित्वा सर्वहितं नित्यं साधनीयमिति॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर किसलिये उस ईश्वर की प्रार्थना करना और मनुष्यों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अमृत) अविनाशिस्वरूप जगदीश्वर ! आप की कृपा से जैसे उत्तम गुण कर्मों के ग्रहण से (अथ) अनन्तर (नः) हम लोग जो कि विद्वान् वा मूर्ख हैं (उभयेषाम्) उन दोनों प्रकार के (मर्त्यानाम्) मनुष्यों की (मिथः) परस्पर संसार में (प्रशस्तयः) प्रशंसा (सन्तु) हों, वैसे सब मनुष्यों की हों, ऐसी प्रार्थना करते हैं॥९॥

    भावार्थ

    जब तक मनुष्य लोग राग वा द्वेष को छोड़कर परस्पर उपकार के लिये विद्या शिक्षा और पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम कर्म नहीं करते, तब तक वे सुखों के सम्पादन करने को समर्थ नहीं हो सकते। इसलिये सबको योग्य है कि परमेश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान होकर सब का कल्याण करें॥९॥

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    विषय

    फिर किसलिये उस ईश्वर की प्रार्थना करना और मनुष्यों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अमृत जगदीश्वर! भवत्कृपया यथा उत्तमगुण कर्मग्रहणेन अथ नः अस्माकम् उभयेषाम् मर्त्यानां मिथः प्रशस्तयः सन्तु, तथा सर्वेषां भवन्तु इति प्रार्थयामः॥९॥

    पदार्थ

    हे (अमृत) अविनाशिस्वरूपेश्वर=अविनाशिस्वरूप जगदीश्वर! (भवत्कृपया)=आपकी कृपा से, (यथा)=जैसे, (उत्तमगुणः)=उत्तमगुण, (कर्मग्रहणेन)=और कर्म ग्रहण करने, (अथ) अनन्तरे=के बाद,  (नः) अस्माकम्=हमारे, (उभयेषाम्) पण्डितापण्डितानाम्=उन दोनों प्रकार के विद्वानों के, (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम्=मनुष्यों की, (मिथः) अन्योन्यार्थे=परस्पर संसार में, (प्रशस्तयः) उत्तमगुणकर्मग्रहणप्रशंसाः=उत्तम गुण और कर्म के ग्रहण करने की प्रशंसा, (सन्तु) भवन्तु=हो, (तथा)=वैसे ही, (सर्वेषाम्)=सबकी प्रशंसा, (भवन्तु)=हो, (इति)=ऐसी, (प्रार्थयामः)=हम प्रार्थना करते हैं ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जब तक मनुष्य लोग राग वा द्वेष को छोड़कर परस्पर उपकार के लिये विद्या शिक्षा और पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम कर्म नहीं करते तब तक वे सुखों को सम्पत्ति बनाने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। इसलिये इसके बाद सब मनुष्यों को परमेश्वर की आज्ञा व्यवहार में लाकर सब का कल्याण नित्य करना चाहिए॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अमृत) अविनाशिस्वरूप जगदीश्वर! (भवत्कृपया) आपकी कृपा से (यथा) जैसे (उत्तमगुणः) उत्तम गुण (कर्मग्रहणेन) और कर्मों को ग्रहण करने (अथ)  के बाद  (नः) हमारे (उभयेषाम्) उन दोनों प्रकार के विद्वान् (मर्त्यानाम्) मनुष्यों की (मिथः) परस्पर संसार में, (प्रशस्तयः) उत्तम गुण और कर्मों के ग्रहण करने की प्रशंसा (सन्तु) हों।  (तथा) वैसे ही (सर्वेषाम्) सबकी प्रशंसा  (भवन्तु) हों, (इति) ऐसी (प्रार्थयामः) हम प्रार्थना करते हैं ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अथ) अनन्तरे (नः) अस्माकम् (उभयेषाम्) पण्डितापण्डितानाम् (अमृत) अविनाशिस्वरूपेश्वर (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् (मिथः) अन्योन्यार्थे (सन्तु) भवन्तु (प्रशस्तयः) उत्तमगुणकर्मग्रहणप्रशंसाः॥९॥
    विषयः- पुनः स किमर्थं याचनीयो मनुष्यैश्च परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे अमृत जगदीश्वर ! भवत्कृपया यथोत्तमगुणकर्मग्रहणेनाथ नोऽस्माकमुभयेषां मर्त्यानां मिथः प्रशस्तयः सन्तु, तथा सर्वेषां भवन्त्विति प्रार्थयामः॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यावन्मनुष्या रागद्वेषौ विहाय परस्परोपकाराय विद्याशिक्षापुरुषार्थैः प्रशस्तानि कर्माणि न कुर्वन्ति नैव तावत्तेषु सुखानि सम्पत्तुं शक्नुवन्ति। अथेत्यनन्तरं सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वराज्ञायां वर्त्तित्वा सर्वहितं नित्यं साधनीयमिति॥९॥

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    विषय

    परस्पर भावन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार उत्तम माता - पिता व आचार्य से शिक्षित होने पर (अथा) - अब (नः) - हमारी (अमृतमर्त्यानाम्) - 'अमृत' कभी न बुझनेवाली ज्ञानाग्नि और यज्ञ करनेवाले जो हम मर्त्य हैं (उभयेषाम्) - इन दोनों की (मिथः) - परस्पर (प्रशस्तयः) - प्रशस्तियाँ (सन्तु) - हों , अर्थात् - हमारे जीवन यज्ञमय हों और इस प्रकार देवों से प्रशंसा के योग्य हों तथा वाय्वादि देव भी हमें उत्तम अन्नादि प्राप्त करानेवाले हों और हम उन देवों के अनुग्रह का प्रशंसन करें । 

    २. गीता में मनुष्य को कहा गया है कि "देवान् भावयतानेन" - तुम यज्ञ द्वारा देवों का आदर करो 'ते देवा भावयन्तु वः' - वे देव अन्नादि के प्रापण से तुम्हारा आदर करें । इस प्रकार 'परस्पर भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्य' - परस्पर भावना करते हुए तुम उत्कृष्ट कल्याण को प्राप्त करोगे । कालिदास ने लिखा है कि मृत्युलोक का राजा दिलीप यज्ञों के द्वारा इस पृथिवीलोक को खाली करके द्युलोक को भर रहा था तथा द्युलोक का राजा इन्द्र वृष्टि द्वारा द्युलोक को खाली करके पृथिवीलोक को भरने में लगा था । इस प्रकार दोनों मिलकर दोनों लोकों का सुन्दरता से धारण कर रहे थे । यही 'अमृत' व मर्त्यों' की परस्पर प्रशस्ति है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम यज्ञों से देवों को प्रीणित करें । देव वृष्टि द्वारा अन्नादि देकर हमें प्रीणित करनेवाले हों । 

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    विषय

    अग्नि, विद्वान्, राजा, नायक, परमेश्वर ।

    भावार्थ

    हे ( अमृत ) कभी न मरने वाले चिरायुष ! दीर्घजीवन ! आयुष्मन् ! ( अथ ) और नः हमारे ( उभयेषाम् ) मूर्ख और पंडित दोनों पक्षों के ( मर्त्यानाम् ) मरणधर्मा, वीर पुरुषों के ( मिथः ) परस्पर ( प्रशस्तयः ) उत्तम प्रवचन हों। राजा के पक्ष में—हे वीर नेतः ! ( उभयेषाम् ) निज और शत्रु दोनों पक्षों के वीर मर्दों में परस्पर (प्र-शस्तयः ) खूब शस्त्रप्रहार, कटाकटी हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्त्तिर्ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१-८, ९ आर्ची उष्णिक् । २-६ निचृद्गायत्री । ३ प्रतिष्ठा गायत्री । ४, १० गायत्री । ५, ७ विराड् गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जोपर्यंत माणसे राग किंवा द्वेष सोडून परस्पर उपकारासाठी विद्या व शिक्षण तसेच पुरुषार्थाने उत्तम कर्म करत नाहीत तोपर्यंत ते सुख प्राप्त करू शकत नाहीत. त्यासाठी सर्वांनी परमेश्वराच्या आज्ञेत राहून सदैव सर्वांचे कल्याण करावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord eternal and immortal, by your kindness and grace, may the mutual praise and appreciation of both kinds of people—all subject to mortality, both average and exceptional of knowledge and achievement—be for our good.

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    Subject of the mantra

    Then, why that God should be prayed and how men should behave mutually, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (amṛta)=God having imperishable nature, (bhavatkṛpayā)=by your grace, (yathā)=as, (uttamaguṇaḥ)=excellent virtues, (karmagrahaṇena)=and obtaining deeds, (atha)=afterwards, (naḥ)=our, (ubhayeṣām)=those both types of scholars, (martyānām)=of men, (mithaḥ)=mutually in the world, (praśastayaḥ) =there should be appreciations of embracing good virtues and deeds, (santu)=be, (tathā)=in the same way, (sarveṣām)=praise of all, (bhavantu)=there must be, (iti)=like, (prārthayāmaḥ)=we pray.

    English Translation (K.K.V.)

    O imperishable God! By your grace, as after excellent virtues and let obtaining deeds of those of our both kinds of learned men be praised for imbibing good virtues and deeds from each other in the world. There should be appreciations of embracing good virtues and deeds, in the same way, there must be praise of all, we pray like this.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Unless human beings leave attachment or hatred and do good deeds for mutual benefits with the help of knowledge, education and efforts, till then they cannot be able to make happiness into wealth. Therefore, after this, all human beings should do the welfare of all regularly by practicing the command of God.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Why should be God prayed to and how should men deal with one another is taught in the 9th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O immortal God, by Thy Grace, may the praises of mankind consisting of highly learned and ordinary persons be mutually the source of happiness to all, by the acceptance of good virtues and actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उभयेषाम् ) पण्डितापण्डितानाम् = Both of highly learned scholars and of ordinary persons. ( प्रशस्तयः) उत्तमगुणकर्म ग्रहणे प्रशंसाः = Praises on account of the acceptance of good virtues and actions.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men can not enjoy happiness unless they give up all attachment and jealousy and engage themselves in the performance of admirable acts with knowledge, education and industriousness. Then all men should obey the commands of God and bring about the welfare of all.

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