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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    पूर्व्य॑ होतर॒स्य नो॒ मन्द॑स्व स॒ख्यस्य॑ च। इ॒मा उ॒ षु श्रु॑धी॒ गिरः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पूर्व्य॑ । हो॒तः॒ । अ॒स्य । नः॒ । मन्द॑स्व । स॒ख्यस्य॑ । च॒ । इ॒माः । ऊँ॒ इति॑ । सु । श्रु॒धी॒ । गिरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा उ षु श्रुधी गिरः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्व्य। होतः। अस्य। नः। मन्दस्व। सख्यस्य। च। इमाः। ऊँ इति। सु। श्रुधी। गिरः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कथं वर्त्तेत इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे पूर्व्य होतर्यजमान वा त्वं नोऽस्माकमस्य सख्यस्य मन्दस्व कामयस्व, उ इति वितर्के नोऽस्माकमिमा वेदविद्यासंस्कृता गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु श्रावय वा॥५॥

    पदार्थः

    (पूर्व्य) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतो मित्रः। अत्र पूर्वैः कृतमिनियौ च। (अष्टा०४.४.१३३) अनेन पूर्वशब्दाद्यः प्रत्ययः (होतः) यज्ञसम्पादक (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (नः) अस्माकम् (मन्दस्व) मोदस्व (सख्यस्य) सखीनां कर्मणः (च) पुत्रादीनां समुच्चये (इमाः) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानाः (उ) वितर्के (सु) शोभनार्थे (श्रुधि) शृणु श्रावय वा। अत्रैकपक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक् श्रुशृणुपॄकृवृभ्यः इति हेर्ध्यादेशश्च। (गिरः) वेदविद्यासंस्कृता वाचः॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वेषु मनुष्येषु मैत्रीं कृत्वा सुशिक्षाविद्ये श्रुत्वा विद्वद्भिर्भवितव्यम्॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसे वर्त्ते, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (पूर्व्य) पूर्व विद्वानों ने किये हुए मित्र (होतः) यज्ञ करने वा करानेवाले विद्वन् ! तू (नः) हमारे (अस्य) इस (सख्यस्य) मित्रकर्म की (मन्दस्व) इच्छा कर (उ) निश्चय है कि हम लोगों को (इमाः) ये जो प्रत्यक्ष (गिरः) वेदविद्या से संस्कार की हुई वाणी हैं, उनको (सुश्रुधि) अच्छे प्रकार सुन और सुनाया कर॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि सब मनुष्यों में मित्रता रखकर उत्तम शिक्षा और विद्या को पढ़ सुन और विचार के विद्वान् होवें॥५॥

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    विषय

    फिर वह कैसे वर्त्ते, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे पूर्व्य होतः(यजमान वा) त्वं नःअस्माकं सख्यस्य अस्य मन्दस्व कामयस्व, उ इति वितर्के नःअस्माकम् इमा वेदविद्या संस्कृता गिरः सु श्रुधि सुष्ठु शृणु श्रावय वा॥५॥

    पदार्थ

    हे (पूर्व्य) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतो मित्रः=पूर्व विद्वानों के द्वारा बनाये हुए मित्र,  (होतः)  यज्ञसम्पादक=यज्ञ करने वा करानेवाले विद्वान्! (त्वम्)=आप, (नः) अस्माकम्=हमारे लिये, (सख्यस्य) सखीनां कर्मणः=मित्रकर्म की, (अस्य) वक्ष्यमाणस्य=कहे गए कर्मों को, (मन्दस्व) मोदस्व=इच्छा कर,  (वक्ष्यमाणस्य)=प्राप्त होने वाले का,  (नः) अस्माकम्=हमारे, (इमाः) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानाः=ये जो प्रत्यक्ष,  (वेदविद्या)=वेदविद्या से, (संस्कृता)=संस्कृत, (गिरः)=वाणी, (सु) शोभनार्थे=अच्छे प्रकार से, (उ) इति वितर्के=या,  (श्रुधि) शृणु श्रावय वा=सुन या सुनाया करो ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के  द्वारा सब मनुष्यों में मित्रता रखकर उत्तम शिक्षा और विद्या को सुन कर विद्वान्  होना चाहिए॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (पूर्व्य) पूर्व विद्वानों के द्वारा बनाये हुए मित्र और  (होतः)  यज्ञ करने वा करानेवाले विद्वान्! (त्वम्) आप (नः) हमारे लिये  (अस्य) कहे गए  (सख्यस्य) मित्रकर्म की  (मन्दस्व) इच्छा करो।  (इति) ऐसा (वक्ष्यमाणस्य) कहे गए कर्मों को  (नः) हमारे  (इमाः) यह जो प्रत्यक्ष  (वेदविद्या) वेदविद्या से (संस्कृता) संस्कृत की हुई (गिरः) वाणी है (सु) उसे अच्छे प्रकार से, (श्रुधि+उ) सुनो या  सुनाया करो ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (पूर्व्य) पूर्वैर्विद्वद्भिः कृतो मित्रः। अत्र पूर्वैः कृतमिनियौ च। (अष्टा०४.४.१३३) अनेन पूर्वशब्दाद्यः प्रत्ययः (होतः) यज्ञसम्पादक (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (नः) अस्माकम् (मन्दस्व) मोदस्व (सख्यस्य) सखीनां कर्मणः (च) पुत्रादीनां समुच्चये (इमाः) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानाः (उ) वितर्के (सु) शोभनार्थे (श्रुधि) शृणु श्रावय वा। अत्रैकपक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थो बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक् श्रुशृणुपॄकृवृभ्यः इति हेर्ध्यादेशश्च। (गिरः) वेदविद्यासंस्कृता वाचः॥५॥
    विषयः- पुनः स कथं वर्त्तेत इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे पूर्व्य होतर्यजमान वा त्वं नोऽस्माकमस्य सख्यस्य मन्दस्व कामयस्व, उ इति वितर्के नोऽस्माकमिमा वेदविद्यासंस्कृता गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु श्रावय वा॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सर्वेषु मनुष्येषु मैत्रीं कृत्वा सुशिक्षाविद्ये श्रुत्वा विद्वद्भिर्भवितव्यम्॥५॥ 

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    विषय

    प्रभु की मित्रता

    पदार्थ

    १. हे (पूर्व्य) - सृष्टि से पूर्व होनेवाले प्रभो! [हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे] , अर्थात् कभी न उत्पन्न होनेवाले , सनातन 'स्वयम्भू' नामवाले परमात्मन्! हे (होतः) - सब आवश्यक वस्तुओं को प्रदान करनेवाले प्रभो! (नः) - हमारे (अस्य) - गतमन्त्र में वर्णित अपने हृदय में 'वरुण , मित्र व अर्यमा' को आसीन करने के प्रयत्न को (च) - और (सख्यस्य) - आपके मित्र बनने के भाव को जानकर (मन्दस्व) - आप प्रसन्न हों , अर्थात् हम आपको अपने इन कर्मों से प्रसन्न कर सकें । 

    २. (उ) - और आप (सु) - उत्तमता से उच्चारण की गई (इमाः) - इन (गिरः) - स्तुति - वाणियों को (श्रुधि) - सुनिए । इन वाणियों में की गई आराधना हमारी उन्नति का कारण बने । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के मित्र बनें , प्रभु का स्तवन करें । यह स्तवन हमें प्रभु के गुणों को स्वजीवन में अनूदित करने की प्रेरणा दे । यह व्यर्थ न हो , सुना जाए । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुषों की सेवा ।

    भावार्थ

    हे ( पूर्व्य ) पूर्व के विद्वान् पुरुषों द्वारा सरकार पानेहारे ! उन द्वारा उच्चासन पर स्थापित हे ( होतः ) अधिकारों और प्रजाओं को नाना ऐश्वर्य सुखों के देने हारे ! तू ( सख्यस्य ) इस मित्रता और (च) बन्धुता के कारण सदा (मन्दस्व) खूब प्रसन्न हर्षित हो और ( इमाः ) इन ( गिरः ) वाणियों, स्तुतियों को ( श्रुधि ) श्रवणकर और हे विद्वन् ! ( इमाः गिरः श्रुधि ) इन वेदवाणियों को श्रवण करा । इति विशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्त्तिर्ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१-८, ९ आर्ची उष्णिक् । २-६ निचृद्गायत्री । ३ प्रतिष्ठा गायत्री । ४, १० गायत्री । ५, ७ विराड् गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सर्व माणसांशी मैत्री करावी. सुशिक्षण घेऊन विद्या, वाचन व श्रवण करून संपादन करावे आणि विद्वान बनावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, self-refulgent eternal power of yajna, friend of our forefathers and high-priest of our noble creative acts of yajna, exhilarate, enjoy and brighten up this friendly yajna of ours and listen to these holy chants and prayers.

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    Subject of the mantra

    Then, how should he behave, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (pūrvya)=friends made by former scholars, [aura]=and, (hotaḥ)=who perform or conduct yajan, (tvam)=you, (naḥ)=for us, (asya)=the said, (sakhyasya)=of the friendly deed, (mandasva)=desire, (iti)=such, (vakṣyamāṇasya)= to said deeds, (naḥ)=our, (imāḥ)=this which evidently, (vedavidyā)=by the knowledge of Vedas, (saṃskṛtā)= beautifully adorned, (giraḥ) is the speech, (su)=to that well, (śrudhi+u)=listen or recite.

    English Translation (K.K.V.)

    O friends made by former scholars and scholars who perform or get yajan performed! You wish for the friendly deeds said for us. Listen or narrate such said deeds by this evident speech which is beautifully adorned by the knowledge of Vedas.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    By keeping friendship among all human beings by humans, one should be learned by listening to the best education and learning.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a man behave is further taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O performer or priest of the Yajna whose friendship has been made by experienced learned persons, be pleased with and desire this our friendship and listen to these our words refined by the study of the Vedas, make us hear them again and again.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पूर्व्यः) पूर्वविद्वद्भिः कृतो मित्रः । अव पूर्वेः कृतमिनियौ च (अष्टा० ४.४.१३४) अनेन पूर्वशब्दाद् यः प्रत्ययः । = Made friends by elderly or experienced learned men. ( मन्दस्व ) मोदस्व-कामयस्व = Desire and be glad. ( गिरः) वेदविद्यासंस्कृता वाचः = Refined speech or words by the study of the Vedas.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should have friendship with all other men and should become enlightened by receiving proper education and wisdom.

    Translator's Notes

    मदि स्तुति मोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु = Be pleased and desire.

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