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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यच्चि॒द्धि शश्व॑ता॒ तना॑ दे॒वंदे॑वं॒ यजा॑महे। त्वे इद्धू॑यते ह॒विः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । चि॒त् । हि । शश्व॑ता । तना॑ । दे॒वम्ऽदे॑वम् । यजा॑महे । त्वे इति॑ । इत् । हू॒य॒ते॒ । ह॒विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे। त्वे इद्धूयते हविः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। चित्। हि। शश्वता। तना। देवम्ऽदेवम्। यजामहे। त्वे इति। इत्। हूयते। हविः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 26; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्होत्रादिभिरस्माभिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे नरो ! यथा वयं शश्वता तना कारणेनेदेव सहितमुत्पन्नं यं देवंदेवं चिदपि यजामहे सङ्गच्छामहे त्वे हि खलु हविर्हूयते तथा यूयमपि जुहोत॥६॥

    पदार्थः

    (यत्) वक्ष्यमाणम् (चित्) अपि (हि) खलु (शश्वता) अनादिना कारणेन (तना) विस्तृतेन (देवंदेवम्) विद्वांसं विद्वांसं पृथिव्यादिदिव्यगुणं पदार्थं पदार्थं वा। अत्र वचनव्यत्ययो वीप्सा च। (यजामहे) सङ्गच्छामहे (त्वे) तस्मिन् (इत्) एव (हूयते) प्रक्षिप्यते (हविः) होतव्यं द्रव्यम्॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गं कृत्वा अस्मिन् जगति यावन्तो दृश्यादृश्याः पदार्थाः सन्ति, ते सर्व अनादिना विस्तृतेन कारणेनोत्पद्यन्त इति बोध्यम्॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर यज्ञ करने-करानेवाले आदि हम लोगों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य लोगो ! जैसे हम लोग (यत्) जिससे ये (शश्वता) अनादि (तना) विस्तारयुक्त कारण से (इत्) ही उत्पन्न हैं, इससे उन (देवंदेवम्) विद्वान् विद्वान् और सब पृथिवी आदि दिव्यगुणवाले पदार्थ पदार्थ को (चित्) भी (यजामहे) सङ्गत अर्थात् सिद्ध करते हैं (त्वे) उसमें (हि) ही (हविः) हवन करने योग्य वस्तु (हूयते) छोड़ते हैं, वैसे तुम भी किया करो॥६॥

    भावार्थ

    यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस संसार में जितने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष पदार्थ हैं, वे सब अनादि अति विस्तारवाले कारण से उत्पन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये॥६॥

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    विषय

    फिर यज्ञ करने-करानेवाले आदि हम लोगों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे नरः ! यथा वयं शश्वता तना कारणेन इत् एव सहितम् उत्पन्नम् यं देवं देवं  चित् अपि यजामहे सङ्गच्छामहे त्वे हि खलु हविः हूयते तथा यूयम् अपि जुहोत॥६॥

    पदार्थ

    हे (नरः)=मनुष्य लोगों! (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम लोग,  (शश्वता) अनादिना कारणेन=अनादि  कारण से, (तना) विस्तृतेन=विस्तृत, (कारणेन)=कारण,  (सहितम्)=सहित, (इत्) एव=ही (उत्पन्नम्)=उत्पन्न हुए हैं, (यम्)=जिस, (देवंदेवम्) विद्वांसं विद्वांसं पृथिव्यादिदिव्यगुणं पदार्थं पदार्थं वा= विद्वान्-विद्वान् और सब पृथिवी आदि दिव्यगुणवाले पदार्थ-पदार्थ को, (चित्) अपि=भी, (यजामहे) सङ्गच्छामहे=सङ्गति करते हैं, (त्वे) तस्मिन्=उसमें, (हि) खलु=ही, (हविः) होतव्यं द्रव्यम्=हवन करने योग्य वस्तु, (हूयते) प्रक्षिप्यते=छोड़ते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब,  (अपि)=भी, (जुहोत)=हवन किया करो॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को विद्वानों के साथ सम्मिलित करते हुए इस संसार में जितने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पदार्थ हैं, वे सब अनादि विस्तृत कारण से उत्पन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (नरः) मनुष्य लोगो! (यथा) जैसे (वयम्) हम लोग  (शश्वता) अनादि  (तना)  विस्तृत (कारणेन) कारण (सहितम्) सहित (इत्) ही  (उत्पन्नम्) उत्पन्न हुए हैं। (यम्) जिस (देवंदेवम्) प्रत्येक विद्वान् और सब पृथिवी आदि दिव्य गुणवाले भिन्न-भिन्न पदार्थ की (चित्) भी (यजामहे) सङ्गति करते हैं। (त्वे) उस (हविः) हवन करने योग्य वस्तु को (हि) ही (हूयते) हवन में छोड़ते हैं। (तथा) वैसे ही, (यूयम्) तुम सब  (अपि) भी (जुहोत) हवन किया करो॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्) वक्ष्यमाणम् (चित्) अपि (हि) खलु (शश्वता) अनादिना कारणेन (तना) विस्तृतेन (देवंदेवम्) विद्वांसं विद्वांसं पृथिव्यादिदिव्यगुणं पदार्थं पदार्थं वा। अत्र वचनव्यत्ययो वीप्सा च। (यजामहे) सङ्गच्छामहे (त्वे) तस्मिन् (इत्) एव (हूयते) प्रक्षिप्यते (हविः) होतव्यं द्रव्यम्॥६॥
    विषयः- पुनर्होत्रादिभिरस्माभिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे नरो ! यथा वयं शश्वता तना कारणेनेदेव सहितमुत्पन्नं यं देवंदेवं चिदपि यजामहे सङ्गच्छामहे त्वे हि खलु हविर्हूयते तथा यूयमपि जुहोत॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गं कृत्वा अस्मिन् जगति यावन्तो दृश्यादृश्याः पदार्थाः सन्ति, ते सर्व अनादिना विस्तृतेन कारणेनोत्पद्यन्त इति बोध्यम्॥६॥ 

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    विषय

    एक - एक देव का यजन

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (यत् चित् हि) - यह जो निश्चय से (शश्वता) - [शश प्लुतगतौ] आलस्यशून्य , क्रियाशीलतावाले (तना) - [तनु विस्तारे] शक्तियों के विस्तार से (देवं देवम्) - एक - एक दिव्यगुण को (यजामहे) - अपने साथ संगत करते हैं । यह सब (त्वे इत्) - आपमें ही (हविः हूयते) - हवि डाली जाती है , अर्थात् यह आपका ही यज्ञ और उपासन होता है । 

    २. प्रभु का सच्चा उपासन यही है कि हम एक - एक उत्तम गुण को अपने में धारण करने का प्रयत्न करें । देवों को अपनाकर ही हम महादेव के समीप पहुँचते हैं । 

    ३. दिव्यगुणों को धारण करने का उपाय यह है कि हम शक्तियों का विस्तार करें [तना] , वीर बनें । वीरता के साथ ही virtue - गुणों का वास है । शक्तियों के विस्तार के लिए क्रियाशीलता की आवश्यकता है । क्रिया ही शक्ति की जननी है । क्रिया के अभाव में प्रत्येक अंग निर्बल पड़ जाता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम क्रियाशीलता से सब अंगों की शक्ति का वर्धन करें । शक्ति - वृद्धि से हममें दिव्यगुणों का विकास होगा । यह दिव्यगुणों का अपने साथ - संग करना ही सच्चा प्रभु - पूजन होगा । 

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    विषय

    परमेश्वर से प्रार्थना ।

    भावार्थ

    ( यत् चित् ही ) और जब जब भी (तना शश्वता ) अति विस्तृत अनादि सिद्ध वेदज्ञान से ( देवंदेवं ) किसी मी दिव्य पदार्थ या ज्ञानद्रष्टा, तत्व प्रकाशक विद्वान् को ( यजामहे ) संभव हो, उसका आदर सत्कार करते हैं, तब भी ( त्वे इत् ) उस तुझ में ही हे (अग्ने) ज्ञानवन् परमेश्वर ! ( हविः ) अग्नि में डाली आहुति के समान तेरे में ही ( हविः ) वह ग्रहण करने योग्य, या देने योग्य आदर सत्कार स्तुति वचन आदि ( हूयते ) प्रदान किया जाता है । अर्थात् विद्वानों, सत्पुरुषों का आदर सत्कार आदि भी परमेश्वर की ही पूजा करना है।

    टिप्पणी

    सर्वदैव नमस्कारः केशवं प्रति गच्छति । स्फुट । पृथिव्यादि पदार्थों में विशेष गुण लाने के लिए भी अग्नि में ही आहुति दी जाती है और सब श्रेष्ठ कार्य करते समय भी परमेश्वर की ही स्तुति की जाती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्त्तिर्ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१-८, ९ आर्ची उष्णिक् । २-६ निचृद्गायत्री । ३ प्रतिष्ठा गायत्री । ४, १० गायत्री । ५, ७ विराड् गायत्री । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात जितके प्रत्यक्ष किंवा अप्रत्यक्ष पदार्थ आहेत, ते सर्व अनादी अतिविस्तार असणाऱ्या कारणांपासून (प्रकृती) उत्पन्न झालेले आहेत, हे जाणले पाहिजे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    By whichever eternal and extended holy powers of cosmic yajna were the brilliant and generous powers of nature created, to the same divine powers we offer yajna, to one and all. And to the same powers is the holy material of yajna offered for all time.

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    Subject of the mantra

    Then what should we, those doing Yajan and getting Yajan performed do? This has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (naraḥ)=men, (yathā)=as, (vayam)=we, (śaśvatā)=primordial cause, [aura]=and, (tanā)=detailed, (kāraṇena)=reason, (sahitam) =with, (it)=only,(utpannam)=have arisen, [aura]=and, (yam)=which, (devaṃdevam)=of every scholar and all earth etc. different substances of divine virtues, (cit)=as well, (yajāmahe)=harmonize, (tve)=to those (haviḥ)=able to be offered in yajna, (hi)=only, (hūyate)=leave in the yajan, (tathā)=in the same way, (yūyam)=all of you, (api)=also, (juhota)=do.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Just like, we are born with an eternal and elaborate primordial cause, which every scholar and all the earth etc. also associate with different substances with divine virtues. Let's offer only that yajan worthy thing in the yajan. In the same way all of you also perform yajan.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. By including human beings with the scholars, all the perceptible or imperceptible substances in this world, they all arise from the eternal, elaborate primordial cause, one should know that.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should be done by us (priests and others) is further taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, whatever object like the earth etc. or learned persons we come across in this world, is produced by the eternal and vast material cause-Matter. The fire in which oblation. is put is also the product of Matter. You should also put oblation in the fire born out of matter.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( शश्वता) अनादिना कारणेन = Eternal cause. (तना ) विस्तृतेन = Vast तनु-1 तु-विस्तारे ( देवं देवम् विद्वांसं ) पृथिव्यादि दिव्यगुणं पदार्थ वा = Learned person, or earth etc. full of divine properties. ( हवि:) होतव्यं द्रव्यम् = Oblation to be put in fire.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should have association with learned persons and know that whatever visible or invisible things exist in this world, are the products of the vast eternal cause-Mattoir.

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