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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 10
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न ये दि॒वः पृ॑थि॒व्या अन्त॑मा॒पुर्न मा॒याभि॑र्धन॒दां प॒र्यभू॑वन् । युजं॒ वज्रं॑ वृष॒भश्च॑क्र॒ इन्द्रो॒ निर्ज्योति॑षा॒ तम॑सो॒ गा अ॑दुक्षत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ये । दि॒वः । पृ॒थि॒व्याः । अन्त॑म् । आ॒पुः । न । मा॒याभिः॑ । ध॒न॒ऽदाम् । प॒रि॒ऽअभू॑वन् । युज॑म् । वज्र॑म् । वृ॒ष॒भः । च॒क्रे॒ । इन्द्रः॑ । निः । ज्योति॑षा । तम॑सः । गाः । अ॒धु॒क्ष॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् । युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । ये । दिवः । पृथिव्याः । अन्तम् । आपुः । न । मायाभिः । धनदाम् । परिअभूवन् । युजम् । वज्रम् । वृषभः । चक्रे । इन्द्रः । निः । ज्योतिषा । तमसः । गाः । अधुक्षत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (न) निषेधार्थे (ये) मेघावयवघनवद्दस्य्वादयः# शत्रवः (दिवः) सूर्यप्रकाशस्येव न्यायबलपराक्रमदीप्तेः। (पृथिव्याः) पृथिवीलोकस्यान्तरिक्षस्येव पृथिवीराज्यस्य। पृथिवीत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। पदनामसु च। निघं० ५।३। अनेन सुखप्राप्तिहेतुसार्वभौमराज्यं गृह्यते। (अन्तम्) सीमानम् (आपुः) प्राप्नुवन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (न) निषेधार्थे (मायाभिः) गर्जनांधकारविद्युदादिवत्कपटधूर्त्तताधर्मादिभिः (धनदाम्) वृष्टिवद्राजनीतिम् (पर्य्यभूवन्) परितस्सर्वतस्तिरस्कुर्वन्ति (युजम्) यो युज्यते तम्। अत्र क्विप् प्र०। (वज्रम्) छेदकत्वादिगुणयुक्तं किरणविद्युदाख्यादिवशस्त्रादिकम्। वज्र इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। (वृषभः) जलवद्वर्षयति शस्त्रसमूहम् (चक्रे) करोति। अत्र लडर्थे लिट्। (इन्द्रः) सूर्यलोकसदृक् शूरवीरसभाध्यक्षो राजा (निः) नितराम् (ज्योतिषा) प्रकाशवद्विद्यान्यायादिसद्गुणप्रकाशेन (तमसः) अन्धकारवदविद्याछलाधर्मव्यवहारस्य (गाः) पृथिवी इव मन आदीन्द्रियाणि (अधुक्षत्) प्रपिपूर्द्धि। अत्र लोडर्थे लुङ् ॥१०॥ # [अन्वये, आर्य भाषायाः पदार्थे च ’दस्य्वादयः शत्रवः’ अस्यार्थः स्खलितः। सं०]

    अन्वयः

    पुनरिन्द्रकर्माण्युपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे सभेश त्वं यथाऽस्य वृत्रस्य ये घनादयोऽवयवा दिवः सूर्य्यप्रकाशस्य पृथिव्या अन्तरिक्षस्य चान्तं नापुर्मायाभिर्धनदां न पर्यभूवन् तानुपरि वृषभ इन्द्रो युजं वज्रं प्रक्षिप्य ज्योतिषा तमस आवरणं निश्चक्रे गा अधुक्षत्तथा शत्रुषु वर्त्तस्व ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सूर्यस्य स्वभावप्रकाशसदृशानि कर्माणि कृत्वा सर्वशत्र्वन्यायाऽन्धकारं विनाश्य धर्मेण राज्यं सेवनीयम्। न हि मायाविनां कदाचित् स्थिरं राज्यं जायते तस्मात्स्वयममायाविभिर्विद्वद्भिः शत्रुप्रयुक्तां मायां निवार्य्य राज्यकरणायोद्यतैर्भवितव्यमिति ॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कर्मों का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे सभा के स्वामी आप ! जैसे इस मेघ के (ये) जो बद्दलादि अवयव (दिवः) सूर्य के प्रकाश और (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष की (अन्तम्) मर्यादा को (नापुः) नहीं प्राप्त होते (मायाभिः) अपनी गर्जना अंधकार और बिजली आदि माया मे (धनदाम्) पृथिवी का (न) (पर्यभूवन्) अच्छे प्रकार आच्छादन नहीं कर सकते हैं उन पर (वृषभः) वृष्टिकर्त्ता (इन्द्रः) छेदन करनेहारा सूर्य (युजं) प्रहार करने योग्य (वज्रम्) किरण समूह को फेंक के (ज्योतिषा) अपने तेज प्रकाश से (तमसः) अंधेर को (निश्चक्रे) निकाल देता और (गाः) पृथिवी लोकों को वर्षा से (अधुक्षत्) पूर्ण कर देता है वैसे जो शत्रुजन न्याय के प्रकाश और भूमि के राज्य के अन्त को न पावें धन देनेवाली राजनीति का नाश न कर सकें उन वैरियों पर अपनी प्रभुता विद्यादान से अविद्या की निवृत्ति और प्रजा को सुखों से पूर्ण किया कीजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि सूर्य के तेजरूप स्वभाव और प्रकाश के सदृश कर्म कर और सब शत्रुओं के अन्यायरूप अंधकार का नाश करके धर्म से राज्य का सेवन करें। क्योंकि छली कपटी लोगों का राज्य स्थिर कभी नहीं होता इससे सबको छलादि दोष रहित विद्वान् होके शत्रुओं की माया में न फँस के राज्य का पालन करने के लिये अवश्य उद्योग करना चाहिये ॥१०॥

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    विषय

    फिर इस मन्त्र में इन्द्र के कर्मों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सभेश त्वं यथा अस्य वृत्रस्य ये घनादयः अवयवाः दिवः सूर्य्यप्रकाशस्य पृथिव्या अन्तरिक्षस्य च अन्तं न आपुः मायाभिः धनदां न पर्यभूवन् तान् उपरि वृषभः इन्द्रः युजं वज्रं प्रक्षिप्य ज्योतिषा तमस आवरणं निः चक्रे गाः अधुक्षत् त्तथा शत्रुषु वर्त्तस्व ॥१०॥

    पदार्थ

    हे (सभेश)=हे सभा के स्वामी, (त्वम्)=आप ! (यथा)=जैसे, (अस्य)=इस,  (वृत्रस्य)=मेघ के, (ये) मेघावयवघनवद्दस्य्वादयः शत्रवः=मेघ के अवयव बादल आदि के समान शत्रु हैं, (दिवः) सूर्यप्रकाशस्येव न्यायबलपराक्रमदीप्तेः=सूर्य के प्रकाश के समान न्याय, बल, और पराक्रम का प्रकाश, (पृथिव्याः) पृथिवीलोकस्यान्तरिक्षस्येव पृथिवीराज्यस्य=पृथिवीलोक के अन्तरिक्ष के समान पृथिवी के राज्य का, (च)=और,  (अन्तरिक्षस्य)=अन्तरिक्ष की, (अन्तम्)=अन्तिम सीमा को, (न) निषेधार्थे=नहीं, (आपुः)=प्राप्त होते, (मायाभिः) गर्जनांधकारविद्युदादिवत्कपटधूर्त्तताधर्मादिभिः=अपनी गर्जना अँधकार और बिजली आदि कपट, धूर्तता के स्वभाव से (धनदाम्) वृष्टिवद्राजनीतिम्= वर्षा के समान राजनीति का, (न) निषेधार्थे=नहीं, (पर्य्यभूवन्) परितस्सर्वतस्तिरस्कुर्वन्ति=हर ओर से तिरस्कार करते हैं (तान्)=उनके, (उपरि)=ऊपर, (वृषभः) जलवद्वर्षयति शस्त्रसमूहम्=जल बरसाता हुआ शस्त्र समूह,  (इन्द्रः) सूर्यलोकसदृक् शूरवीरसभाध्यक्षो राजा=सूर्यलोक के समान शूरवीर सभाध्यक्ष राजा, (युजम्) यो युज्यते तम्=जो संयोजित होता है, उस, (वज्रम्)=वज्र को, (प्रक्षिप्य)=फेंक कर, (ज्योतिषा) प्रकाशवद्विद्यान्यायादिसद्गुणप्रकाशेन=प्रकाश के समान विद्या, न्याय आदि सद्गुणो के प्रकाश से, (तमस)=अंधेरे के, (आवरणम्)=आवरण को, (निः) नितराम्=पूरी तरह से, (चक्रे) करोति=करता है, (गाः) पृथिवी इव मन आदीन्द्रियाणि=पृथिवी जैसे मन आदि इन्द्रियों को, (अधुक्षत्) पूर्ण रूप से रिक्त कर देता है=पूर्ण रूप से रिक्त कर देता है,  (तथा)=वैसे ही, (शत्रुषु)=शत्रुओं से, (वर्त्तस्व)=व्यवहार करो ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि सूर्य के तेजरूप स्वभाव और प्रकाश के सदृश कर्म कर और सब शत्रुओं के अन्यायरूप अंधकार का नाश करके धर्म से राज्य का सेवन करें। क्योंकि छली कपटी लोगों का राज्य स्थिर कभी नहीं होता इससे सबको छलादि दोष रहित विद्वान् होके शत्रुओं की माया में न फँस के राज्य का पालन करने के लिये अवश्य उद्योग करना चाहिये ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सभेश) सभा के स्वामी (त्वम्) आप ! (यथा) जैसे (अस्य) इस  (वृत्रस्य) मेघ के (ये) मेघ के अवयव बादल आदि के समान शत्रु हैं। (दिवः) सूर्य के प्रकाश के समान न्याय, बल, और पराक्रम का प्रकाश (पृथिव्याः) पृथिवीलोक के अन्तरिक्ष के समान पृथिवी के राज्य का (च) और  (अन्तरिक्षस्य) अन्तरिक्ष की (अन्तम्) अन्तिम सीमा को  (न+आपुः)=प्राप्त नहीं होते हैं। (मायाभिः) अपनी गर्जना अंधकार और बिजली आदि कपट, धूर्तता के स्वभाव से (धनदाम्) वर्षा के समान रणनीति का  (न+पर्य्यभूवन्) हर ओर से तिरस्कार नहीं करते हैं। (तान्) उनके (उपरि) ऊपर (वृषभः) जल बरसाता हुआ शस्त्र समूह (इन्द्रः) सूर्यलोक के समान शूरवीर सभाध्यक्ष राजा (युजम्) जो संयोजित होता है, उस (वज्रम्) वज्र को (प्रक्षिप्य) फेंक कर (ज्योतिषा) प्रकाश के समान विद्या, न्याय आदि सद्गुणो के प्रकाश से (तमस) अंधेरे के (आवरणम्) आवरण को (निः) पूरी तरह से [दूर करने का कार्य] (चक्रे) करता है। (गाः) पृथिवी जैसे मन आदि इन्द्रियों को (अधुक्षत्) पूर्ण रूप से रिक्त कर देता है, (तथा) वैसे ही (शत्रुषु) शत्रुओं से (वर्त्तस्व) व्यवहार करो ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (न) निषेधार्थे (ये) मेघावयवघनवद्दस्य्वादयः# शत्रवः (दिवः) सूर्यप्रकाशस्येव न्यायबलपराक्रमदीप्तेः। (पृथिव्याः) पृथिवीलोकस्यान्तरिक्षस्येव पृथिवीराज्यस्य। पृथिवीत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। पदनामसु च। निघं० ५।३। अनेन सुखप्राप्तिहेतुसार्वभौमराज्यं गृह्यते। (अन्तम्) सीमानम् (आपुः) प्राप्नुवन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (न) निषेधार्थे (मायाभिः) गर्जनांधकारविद्युदादिवत्कपटधूर्त्तताधर्मादिभिः (धनदाम्) वृष्टिवद्राजनीतिम् (पर्य्यभूवन्) परितस्सर्वतस्तिरस्कुर्वन्ति (युजम्) यो युज्यते तम्। अत्र क्विप् प्र०। (वज्रम्) छेदकत्वादिगुणयुक्तं किरणविद्युदाख्यादिवशस्त्रादिकम्। वज्र इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २।२०। (वृषभः) जलवद्वर्षयति शस्त्रसमूहम् (चक्रे) करोति। अत्र लडर्थे लिट्। (इन्द्रः) सूर्यलोकसदृक् शूरवीरसभाध्यक्षो राजा (निः) नितराम् (ज्योतिषा) प्रकाशवद्विद्यान्यायादिसद्गुणप्रकाशेन (तमसः) अन्धकारवदविद्याछलाधर्मव्यवहारस्य (गाः) पृथिवी इव मन आदीन्द्रियाणि (अधुक्षत्) प्रपिपूर्द्धि। अत्र लोडर्थे लुङ् ॥१०॥ # [अन्वये, आर्य भाषायाः पदार्थे च 'दस्य्वादयः शत्रवः' अस्यार्थः स्खलितः। सं०]
    विषयः- पुनरिन्द्रकर्माण्युपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे सभेश त्वं यथाऽस्य वृत्रस्य ये घनादयोऽवयवा दिवः सूर्य्यप्रकाशस्य पृथिव्या अन्तरिक्षस्य चान्तं नापुर्मायाभिर्धनदां न पर्यभूवन् तानुपरि वृषभ इन्द्रो युजं वज्रं प्रक्षिप्य ज्योतिषा तमस आवरणं निश्चक्रे गा अधुक्षत्तथा शत्रुषु वर्त्तस्व ॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सूर्यस्य स्वभावप्रकाशसदृशानि कर्माणि कृत्वा सर्वशत्र्वन्यायाऽन्धकारं विनाश्य धर्मेण राज्यं सेवनीयम्। न हि मायाविनां कदाचित् स्थिरं राज्यं जायते तस्मात्स्वयममायाविभिर्विद्वद्भिः शत्रुप्रयुक्तां मायां निवार्य्य राज्यकरणायोद्यतैर्भवितव्यमिति ॥१०॥

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    विषय

    माया से "धनदा" का अतिरस्कार

    पदार्थ

    १. (ये) - जो लोग (दिवः) - द्युलोक के तथा (पृथिव्याः) - पृथिवी के (अन्तः) - अन्त को (न आपुः) - नहीं प्राप्त कर लेते । 'द्युलोक' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है, इनके अन्त को न प्राप्त करने का अभिप्राय यह है कि जो उनकी उन्नति से सन्तुष्ट नहीं हो जाते, जो सदा इनकी उन्नति में लगे ही रहते हैं 
    २. तथा जो (मायाभिः) इन संसार की मायाओं से (धनदाम्) - सब धनों के देनेवाले प्रभु को (न पर्यभूवन्) - तिरस्कृत नहीं कर देते, अर्थात् जो धन में आसक्त होकर धन के दाता प्रभु को भूल नहीं जाते, जिनकी दृष्टि से हिरण्मय पात्र के द्वारा सत्य का स्वरूप छिप नहीं जाता । 
    ३. इनमें से प्रत्येक (वज्रम्) - [वज - गतौ] क्रियाशील पुरुष को (वृषभः) - सब सुखों की वर्षा करनेवाला (इन्द्रः) - परमैश्वर्यशाली प्रभु (युजम्) - अपने से मेलवाला (चक्रे) - करता है, प्रभु ऐसे पुरुषों का साथी होता है । 
    ४. प्रभु की मित्रता को प्राप्त करने पर मन्त्र का ऋषि हिरण्यस्तूप (ज्योतिषा) - ज्ञान की ज्योति के द्वारा (तमसः) - अँधेरे से (गाः) - इन्द्रियों को (निः) - बाहर करके (अधुक्षत्) - पूरित करता है, अर्थात् इन इन्द्रियों की न्यूनताओं को दूर करता है । प्रभु की मित्रता से ही इन्द्रियों की न्यूनताएँ दूर होती हैं । न्यूनताओं के दूर करने का साधन 'ज्ञान की ज्योति' बनती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें शरीर व मस्तिष्क की उन्नति से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए । धन को प्राप्त करके प्रभु को न भूल जाना चाहिए, प्रभु ऐसों का ही मित्र बनता है । प्रभु से मित्रता होने पर इन्द्रियाँ अन्धकार से बाहर होती हैं और हम इनका पूरण कर पाते हैं । 
     

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    विषय

    वीर योद्धा का शत्रु विजय, सेनापति ।

    भावार्थ

    मेघ जिस प्रकार (दिवः पृथिव्याः अन्तम् आपुः) आकाश और पृथिवी दोनों के ही सीमा तक नहीं पहुंचते और (मायाभिः धनदां न परि अभूवन्) गर्जना, अन्धकार आदि चमत्कार चेष्टाओं से भी धन और अन्न की देनेवाली पृथिवी को या तेजप्रद सूर्य को नहीं ढाँप सकते । उनको (वृषभः) वर्षणशील (इन्द्रः) सूर्य (युजं वज्रं चक्रे) अपने सहायक वज्ररूप वायु, या विद्युत् का प्रयोग करता है और (ज्योतिषा) अपने तीव्र तेज से (तमसः) अन्धकारमय गहरे मेघ से (गाः) वेग से जाने वाली जल-धाराओं को (निर् अधुक्षत्) सब तरह से गौओं को गवाले के समान दूह लेता है, उनको जलरहित कर देता है । उसी प्रकार (ये) जो दुष्ट पुरुष (दिवः) न्याय, बल, पराक्रम और तेज और (पृथिव्याः) पृथिवी के शासनोपयोगी (अन्तम्) सीमा या मर्यादा को (न आपुः) नहीं प्राप्त कर सकते, नहीं पालन करते, और जो (मायाभिः) अपनी कुटिल बुद्धियों, कपट छल से भरी चेष्टाओं से (धनदाम्) ऐश्वर्य प्रदान करने वाली पृथ्वी या राजशक्ति के भी (न परि अभूवन्) अधीन नहीं रहते उनपर (वृषभः) बलवान् (इन्द्रः) राष्ट्रपति (वज्रं) पापों से निवारक अस्त्र बल का (युजं चक्रे) प्रयोग करे । और (ज्योतिषा) अपने तेज से (तमसः) अन्धकार के समान के क्लेशदायी शत्रु से (गाः) वाणियों, भूमियों और पशु आदि समृद्धियों को (निर् अधुक्षत्) सब प्रकार से दोह ले उनका ऐश्वर्य स्वयं प्राप्त करके शत्रु की भूमियों का सर्वस्व प्राप्त कर ले। इति द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सूर्याच्या तेजस्वी स्वभावाप्रमाणे प्रकाशयुक्त कर्म करून सर्व शत्रूंच्या अन्यायरूपी अंधःकाराचा नाश करून धर्माने राज्याचे सेवन करावे. कारण छळ व कपट करणाऱ्याचे राज्य कधी स्थिर होऊ शकत नाही. त्यासाठी सर्वांनी छळ इत्यादी दोषांनी रहित विद्वान बनून शत्रूच्या मायाजालात न फसता राज्याचे पालन करण्यासाठी अवश्य उद्योगी बनले पाहिजे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    There are those who do not understand the end and purpose of the earth and heaven, nor can they, with all their magic and power, conquer or insult the mother giver earth. Indra, virile and generous lord ruler of earth and heaven, uses his ready weapon of the thunderbolt of light and force, kindles the sense and mind of the people and delivers the earth from the darkness of ignorance and evil.

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    Subject of the mantra

    Then again, Indra’s deeds have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sabheśa)=lord of the assembly, (tvam)=you, (yathā)=like, (asya)=this, (vṛtrasya)=of the cloud, (ye) = The constituents of the cloud are enemies like clouds etc., (avayavāḥ)=parts are, (divaḥ)=the light of justice, strength, and might, like the light of the sun, (pṛthivyāḥ)=like the sky associated with earth, that of kingdom of earth, (ca)=and, (antarikṣasya)=of space, (antam)=to final limit, (na+āpuḥ)=do not arrive, (māyābhiḥ)=by the nature of his roaring, darkness, lightning etc. and by wickedness, (dhanadām)=rain-like strategy, (na+paryyabhūvan) =do not despise from all sides, (tān)=their, (upari)=above, (vṛṣabhaḥ)=group of weapons as raining water, (indraḥ)=as brave as the sun, the brave hero, lord of assembly king, (yujam) =who is associated, [usa]=that, (vajram)=to thunderbolt, (prakṣipya)=by throwing, (jyotiṣā)=with the light of virtues like knowledge, justice etc., (tamasa)=of darkness, (āvaraṇam)=to cover, (niḥ) =Completely, [dūra karane kā kārya]= the act of removing, (cakre) =does, (gāḥ)=senses like earth, mind etc., (adhukṣat)=makes empty completely, (ttathā)=in the same way, (śatruṣu)=against enemies, (varttasva)=treat.

    English Translation (K.K.V.)

    O Lord of the assembly you! The constituents of the cloud are enemies like clouds etc. Like the light of the Sun, the light of justice, strength and might, like the space of the earth world, does not reach the kingdom of the earth and the final limit of space. By the nature of their roar, darkness and lightning, et cetera, they do not despise the rain-like strategy from all sides. The raining water on them, like the valiant councilor king, who is combined like the Sun, throws that thunderbolt like light and works to completely remove the cover of darkness with the light of virtues like education, justice et cetera. Treat your enemies in the same way as the earth completely empties the mind et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. The human beings are worthy to serve the kingdom with righteousness by performing deeds like the bright nature and light of the Sun and destroying the unjust darkness of all enemies. Because the kingdom of deceitful people is never stable, because of this, everyone must be a scholar without deceit and blame and must make efforts to follow the kingdom of the enemies.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The acts of Indra are further taught-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly, as the clouds can never reach the end of the light of the sun, the earth and the middle regions and they cannot cover for ever the sun with all their thunder, darkness and lightning, in the same way, thieves, robbers and other wicked foes cannot attain the end of the splendor of your justice, force and might, of your vast government on earth, with all their deceit, cunningness and unrighteousness like the thunder and darkness of the clouds. They can not comprehend your politics which is like the rain, showering happiness on the people. The brave President of the Assembly or the council of ministers who is splendid like the Sun and showerer of arms like the rain on his un-righteous enemies grasps powerful weapons like the thunderbolt and with the light of the good education and justice dispels the darkness of ignorance, cunningness and un-righteous conduct and fills like the earth, mind and other senses.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( दिव:) सूर्यप्रकाशस्येव न्यायबल पराक्रमदीप्तै: = Of the light of justice, force and might. (मायाभिः) गर्जनान्धकार विद्युदादिवत् कपट धूर्तताऽधर्मादिभिः । = Deceit, cunningness and un-righteousness which are like the thunder, darkness and lightning. (वृषभः) जलवद् वर्षयति यः शस्त्रसमूहम् = The showerer of the arms like the rain. (इन्द्रः) सूर्यलोकसदृक् शूरवीर: सभाध्यक्षो राजा = The Brave President of the Assembly or the council of . Ministers like the sun. (ज्योतिषा) प्रकाशवविद्यान्यायादिसद्गुणप्रकाशेन = With the light of the knowledge, justice and other noble virtues. (तम:) अन्धकारवत् अविद्याछलाधर्मव्यहारस्य | = The darkness of ignorance, cunningness and un-righteous conduct.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is वाचक लुप्तोपमालंकार or implied simile used in the Mantra. Men should righteously enjoy the happiness of good Government by acting like the sun bearing splendor and light (of wisdom) dispelling the darkness of injustice done by the enemies of the State. There can not be any stability in the rule of deceitful and cunning people. Therefore, highly educated persons should be prepared to administer the state, being themselves free from deception, but at the same time, removing or displacing the cunningness used by their opponents.

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