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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 8
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    च॒क्रा॒णासः॑ परी॒णहं॑ पृथि॒व्या हिर॑ण्येन म॒णिना॒ शुम्भ॑मानाः । न हि॑न्वा॒नास॑स्तितिरु॒स्त इन्द्रं॒ परि॒ स्पशो॑ अदधा॒त्सूर्ये॑ण ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒का॒णासः॑ । प॒रि॒ऽनह॑म् । पृ॒थि॒व्याः । हिर॑ण्येन । म॒णिना॑ । शुम्भ॑मानाः । न । हि॒न्वा॒नासः॑ । ति॒ति॒रुः॒ । ते । इन्द्र॑म् । परि॑ । स्पशः॑ । अ॒द॒धा॒त् । सूर्ये॑ण ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः । न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चकाणासः । परिनहम् । पृथिव्याः । हिरण्येन । मणिना । शुम्भमानाः । न । हिन्वानासः । तितिरुः । ते । इन्द्रम् । परि । स्पशः । अदधात् । सूर्येण॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (चक्राणासः) भृशं युद्धं कुर्वाणाः (परीणहम्) परितस्सर्वतः प्रबन्धनं सुखाच्छादकत्वेन व्यापनं वा। णह बन्धन इत्यस्मात् क्विप् च इति क्विप् नहिवृति० #अनेनादेर्दीर्घः। (पृथिव्याः) भूमे राज्यस्य (हिरण्येन) न्यायप्रकाशेन सुवर्णादिधातुमयेन वा। (मणिना) आभूषणेन (शुम्भमानाः) शोभायुक्ताः (न) निषेधार्थे (हिन्वानासः) सुखं संपादयन्तः (तितिरुः) प्लवन्त उल्लंघयन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (ते) शत्रवो दुष्टा मनुष्याः (इन्द्रम्) सबलं सेनाध्यक्षम् (परि) सर्वतो भावे (स्पशः) ये स्पशन्ति ते। अत्र क्विप् प्र०। (अदधात्) दधाति। अत्र लडर्थे लङ्। (सूर्येण) सवितृमण्डलेनेव ॥८॥ #[अ० ६।३।११६।]

    अन्वयः

    पुनरिन्द्रकृत्यमुपदिश्यते।

    पदार्थः

    यथा यान् सूर्य्यः पर्य्यदधात् परिदधाति ते वृत्रावयवा घनाः सूर्यस्य प्रकाशं स्पशो बाधमानाः पृथिव्याः परीणहं चक्राणासो हिरण्येन मणिनेव सूर्य्येण शुम्भमाना हिन्वानास इन्द्रं नतितिरुर्नप्लवन्ते नोल्लंघयंति तथा स्वसेनाध्यक्षादीञ् जनाँञ्छत्रवो बाधितुं समर्था यथा न स्युस्तथा सर्वैरनुष्ठेयम् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमात्मना सूर्येण सह प्रकाशाकर्षणादीनि कर्माणि निवद्धानि तथैव विद्याधर्मन्यायशूरवीरसेनादिसामग्रीप्राप्तेन पुरुषेण सह पृथिवीराज्यं नियोजितमिति ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    जैसे जिनको सूर्य्य (पर्य्यदधात्) सब ओर से धारण करता है (ते) वे मेघ के अवयव बादल सूर्य के प्रकाश को (स्पशः) बाधनेवाले (पृथिव्याः) पृथिवी को (परीणहम्) चौतर्फी घेरे हुए के समान (चक्राणासः) युद्ध करते हुए (हिरण्येन) प्रकाशरूप (मणिना) मणि से जैसे (सूर्य्येण) सूर्य्य के तेज से (शुम्भमानाः) शोभायमान (हिन्वानासः) सुखों को संपादन करते हुए (इन्द्रम्) सूर्यलोक को (न) नहीं (तितिरुः) उल्लंघन कर सकते हैं वैसे ही सेनाध्यक्ष अपने धार्मिक शूरवीर आदि को शत्रुजन जैसे जीतने को समर्थ न हों वैसा प्रयत्न सब लोग किया करें ॥८॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर ने सूर्य के साथ प्रकाश आकर्षणादि कर्मों का निबन्धन किया है वैसे ही विद्या धर्म न्याय शूरवीरों की सेनादि सामग्री को प्राप्त हुए पुरुष के साथ इस पृथिवी के राज्य को नियुक्त किया है ॥८॥

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    विषय

    फिर इस मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यथा यान् सूर्य्यः पर्य्यदधात् परिदधाति ते वृत्रावयवा घनाः सूर्यस्य प्रकाशं स्पशः बाधमानाः पृथिव्याः परीणहं चक्राणासः हिरण्येन मणिना इव सूर्य्येण शुम्भमाना हिन्वानासः इन्द्रम् न तितिरुः न प्लवन्ते न उल्लंघयंति तथा स्वसेनाध्यक्षादीन्  जनान् शत्रवः बाधितुं समर्थाः यथा न स्युः तथा सर्वैः अनुष्ठेयम् ॥८॥

    पदार्थ

    (यथा)=जैसे, (यान्)=जिनको, (सूर्य्यः)=सूर्य्य,  (परि) सर्वतो भावे=सब ओर से, (अदधात्) दधाति=धारण करता है,  (ते) शत्रवो दुष्टा मनुष्याः=वे शत्रु रूपी दुष्ट,  (वृत्रावयवा)=मेघ के अवयव (घनाः)=घने, (सूर्यस्य)=सूर्य के, (प्रकाशम्)=प्रकाश से, (स्पशः) ये स्पशन्ति ते=युद्ध करते हैं, वे (पृथिव्याः) भूमे राज्यस्य=पृथिवी में राज्य को, (परीणहम्) परितस्सर्वतः प्रबन्धनं सुखाच्छादकत्वेन व्यापनं वा=सब ओर से व्याप्त करते हुए सुख से आच्छादित करने के समान, (चक्राणासः) भृशं युद्धं कुर्वाणाः=घनघोर युद्ध करते हुए, (हिरण्येन) न्यायप्रकाशेन सुवर्णादिधातुमयेन वा=न्याय अथवा स्वर्णमय आदि धातु के प्रकाश के, (मणिना) आभूषणेन=आभूषण से, (इव)=जैसे, (सूर्येण) सवितृमण्डलेनेव=उगने से पहले सूर्य को सविता कहा जाता है, उस सूर्य मण्डल के समान,  (शुम्भमानाः) शोभायुक्ताः=शोभायमान, (हिन्वानासः) सुखं संपादयन्तः=सुखों का सम्पादन करते हुए,  (इन्द्रम्) सबलं सेनाध्यक्षम्= बलवान् सेनाध्यक्ष को, (न) निषेधार्थे=नहीं, (तितिरुः) प्लवन्त उल्लंघयन्ति= उल्लंघन करते हैं। (तथा)=वैसे ही,  (स्वसेनाध्यक्षादीन्)=सेनाध्यक्ष आदि, (जनान्)=लोग,  (शत्रवः)=शत्रुओं को,  (बाधितुम्)=रोकने में, (समर्थाः)=समर्थ हों। (तथा)=वैसे ही, (सर्वैः)=सब, (अनुष्ठेयम्)=लोग किया करें ॥८॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर ने सूर्य के साथ प्रकाश आकर्षण आदि कर्मों का प्रबन्धन किया है, वैसे ही विद्या धर्म न्याय शूरवीरों की सेनादि सामग्री को प्राप्त हुए पुरुष के साथ इस पृथिवी के राज्य को नियुक्त किया है ॥८॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यथा) जैसे (यान्) जिनको (सूर्य्यः) सूर्य  (परि) सब ओर से (अदधात्) धारण करता है, (ते) वे शत्रु रूपी दुष्ट (वृत्रावयवा) मेघ के अवयव (घनाः) घने (सूर्यस्य) सूर्य के (प्रकाशम्) प्रकाश से (स्पशः) युद्ध करते हैं, वे (पृथिव्याः) पृथिवी में राज्य को (परीणहम्) सब ओर से व्याप्त करते हुए सुख से आच्छादित करने के समान (चक्राणासः) घनघोर युद्ध करते हुए (हिरण्येन) स्वर्णमय आदि धातु के प्रकाश के (मणिना) आभूषण से (इव) जैसे (सूर्येण) उगने से पहले सूर्य को सविता कहा जाता है, उस सूर्य मण्डल के समान  (शुम्भमानाः) शोभायमान (हिन्वानासः) सुखों का सम्पादन करते हुए  (इन्द्रम्) बलवान् सेनाध्यक्ष का  (न+तितिरुः) उल्लंघन नहीं करते हैं। (तथा) वैसे ही  (स्वसेनाध्यक्षादीन्) सेनाध्यक्ष आदि (जनान्) लोग  (शत्रवः) शत्रुओं को  (बाधितुम्) रोकने में (समर्थाः) समर्थ हों। (तथा) वैसे ही (सर्वैः) सब लोग (अनुष्ठेयम्) किया करें ॥८॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (चक्राणासः) भृशं युद्धं कुर्वाणाः (परीणहम्) परितस्सर्वतः प्रबन्धनं सुखाच्छादकत्वेन व्यापनं वा। णह बन्धन इत्यस्मात् क्विप् च इति क्विप् नहिवृति० #अनेनादेर्दीर्घः। (पृथिव्याः) भूमे राज्यस्य (हिरण्येन) न्यायप्रकाशेन सुवर्णादिधातुमयेन वा। (मणिना) आभूषणेन (शुम्भमानाः) शोभायुक्ताः (न) निषेधार्थे (हिन्वानासः) सुखं संपादयन्तः (तितिरुः) प्लवन्त उल्लंघयन्ति। अत्र लडर्थे लिट्। (ते) शत्रवो दुष्टा मनुष्याः (इन्द्रम्) सबलं सेनाध्यक्षम् (परि) सर्वतो भावे (स्पशः) ये स्पशन्ति ते। अत्र क्विप् प्र०। (अदधात्) दधाति। अत्र लडर्थे लङ्। (सूर्येण) सवितृमण्डलेनेव ॥८॥ #[अ० ६।३।११६।]
    विषयः- पुनरिन्द्रकृत्यमुपदिश्यते।

    अन्वयः- यथा यान् सूर्य्यः पर्य्यदधात् परिदधाति ते वृत्रावयवा घनाः सूर्यस्य प्रकाशं स्पशो बाधमानाः पृथिव्याः परीणहं चक्राणासो हिरण्येन मणिनेव सूर्य्येण शुम्भमाना हिन्वानास इन्द्रं नतितिरुर्नप्लवन्ते नोल्लंघयंति तथा स्वसेनाध्यक्षादीञ् जनाँञ्छत्रवो बाधितुं समर्था यथा न स्युस्तथा सर्वैरनुष्ठेयम् ॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमात्मना सूर्येण सह प्रकाशाकर्षणादीनि कर्माणि निवद्धानि तथैव विद्याधर्मन्यायशूरवीरसेनादिसामग्रीप्राप्तेन पुरुषेण सह पृथिवीराज्यं नियोजितमिति ॥८॥
     

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    विषय

    ज्ञान - ज्योति के पात्र

    पदार्थ

    १. (पृथिव्याः) - इस पृथिवीरूप शरीर को (परीणहम्) चारों ओर से बन्धन में (चक्राणासः) - करते हुए, अर्थात् शरीर की सब क्रियाओं को अत्यन्त नियम में रखते हुए 
    २. (हिरण्येन) - हित व रमणीय (मणिना) - वीर्यशक्ति से (शुम्भमानाः) - शोभायमान होते हुए, वीर्य शरीर में सब रोगकृमियों का नाशक होने के कारण हितकर है तथा शरीर को रमणीय बनानेवाला है । यह शरीर में मणि - तुल्य है । स्वास्थ्य के द्वारा यह अपने धारण करनेवाले को उसी प्रकार सुशोभित करता है जैसेकि कोई मणि अपने धारक को सुशोभित करती है ।
    ३. (ते) - ये शरीर की क्रियाओं को मर्यादित करनेवाले तथा वीर्यरूप मणि से शोभायमान पुरुष (हिन्वानासः) - [हि गतिवृद्धयोः] निरन्तर क्रियाशीलता से वृद्धि को प्राप्त होते हुए (इन्द्रं न तितरुः) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का कभी उल्लंघन नहीं करते, अर्थात् सदा प्रभु के आदेशों के अनुसार अपने जीवनक्रम को चलाते हैं । 
    ४. प्रभु भी (स्पशः) - [one who fights with savage animals] काम, क्रोध आदि पशुओं से, [पाशविक वासनाओं से] निरन्तर संग्राम करनेवाले पुरुषों को (सूर्येण) - सूर्य के समान देदीप्यमान ज्ञान के प्रकाश से (परि अदधात्) - सर्वतः धारण करता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - [क] शारीरिक क्रियाओं का सर्वतः नियमन करनेवाले 
    [ख] हित रमणीय वीर्यशक्ति से अपने को सुशोभित करनेवाले 
    [ग] गति द्वारा वृद्धिशील
    [घ] प्रभु की मर्यादाओं का उल्लंघन न करनेवाले 
    [ङ] वासनाओं से संग्राम करनेवाले पुरुषों को प्रभुकृपा से ज्ञान की ज्योति प्राप्त होती है । 
     

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    विषय

    वीर योद्धा का शत्रु विजय, सेनापति ।

    भावार्थ

    (पृथिव्याः) पृथिवी लोक, उसमें रहने वाले प्रजाजनों के (परीणहं) ऊपर शासन प्रबन्ध को (चक्राणासः) करने वाले और (हिरण्येन मणिना) सुवर्ण के बने मणि के समान हितकारी और मनोहर, शिरोमणि नायक से (शुम्भमानाः) शोभा को प्राप्त होकर (हिन्वानासः) वृद्धि को प्राप्त होते हुए (स्पशः) वीर पुरुष भी (इन्द्रम्) राष्ट्र के तेजस्वी स्वामी को (न तितिरुः) नहीं लांघते, उससे बढ़ नहीं सकते। वह (स्पशः) बाधक शत्रुओं को तथा अपने तक पहुंचने वाले जनों को एवं सत्यासत्य के विवेचक पुरुषों के भी (परि) ऊपर ( सूर्येण ) अपने सूर्य के समान प्रखर तेज से (अदधात्) शासन करता है, उनको अपने अधीन रखता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे परमेश्वराने सूर्याद्वारे प्रकाश, आकर्षण इत्यादी कर्मांचे व्यवस्थापन केलेले आहे, तसेच विद्या, धर्म, न्याय, शूरवीरांची सेना इत्यादी साहित्य प्राप्त झालेल्या पुरुषाला पृथ्वीचे राज्य दिलेले आहे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The fighting forces of the sun, beautified by golden jewels of light by the sun, messengers of peace and joy of the earth, do not break the protective cover of the earth, nor do they violate the purpose of the sun, and by virtue of the same sun they serve and glorify Indra, lord ruler of the earth and her children.$(Similarly, the dynamic forces of the earth’s dominion, invested with the golden jewels of royal robes, dedicated to service and well-being, do not violate the bounds of the earth’s protective laws and, as messengers and agents of the universal lord of light, they uphold the ruler and the rule of law.)

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    Subject of the mantra

    Then again, Indra’s deeds have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=Like, (yān)=to whom, (sūryyaḥ)=Sun, (pari) =from all sides, (te)=those evil enemies, (adadhāt)=posses, they are evil in the form of enemies, (vṛtrāvayavā)=parts of the cloud, (ghanāḥ)=dense, (sūryasya) =of the Sun, (prakāśam)=by light, (spaśaḥ)=fight, [ve]=they, (pṛthivyāḥ)=to the kingdom on earth, (parīṇaham)=like covering with happiness, pervading from all sides, (cakrāṇāsaḥ)=waging a fierce battle (hiraṇyena)=by the light of golden metal, (maṇinā)=by jewelery, (iva)=like, (sūryeṇa)=The sun before rising is called Savita, similar to that solar system, (śumbhamānāḥ)=Beautiful, (hinvānāsaḥ)=enacting the pleasures, (indram)=of the powerful commander, (na+titiruḥ)=do not violate. (tathā)=in the same way, (svasenādhyakṣādīn)=the commander etc. (janān)=people, (śatravaḥ)=to enemies, (bādhitum)=in stopping, (samarthāḥ)=be able, (tathā)=in the same way, (sarvaiḥ)=all (anuṣṭheyam)=must do.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as those whom the Sun holds from all sides, they fight the enemy's evil cloud with the dense Sun light. They are enveloping the kingdom from all sides in the earth, fighting fiercely like covering it with happiness, with ornaments of gold et cetera. Just as the Sun is called Savita before rising, as beautiful as that solar system, while performing pleasures, do not violate the strong army chief. Similarly, army chiefs etc. should be able to stop the enemies. So should everyone do.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, there is latent vocal simile as a figurative. Just as the Supreme Lord has arranged light, attraction etc. with the Sun, in the same way, the kingdom of this earth has been appointed with the man who has received the military material of knowledge, righteousness, justice and knights.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of Indra are taught further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the clouds trying to cover the light of the sun and to envelop the earth, can not overcome the sun who is decorated with gold and jewels (so to speaks in the same manner, all should endeavor in such a way that the enemies may not be able to harm the commanders of their armies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( परीणसम् ) परितः सर्वतः प्रबन्धनं मुखाच्छादकत्वेन. व्यापनं वा । णह्बन्धने इत्यस्मात् क्विप् चेति क्विप् नहि वृतिवृषि व्याधि रुचि सहित नुषु क्वौ (अष्टा० ३.११६) अनेनादेदीर्घः = Enveloping on all sides. (हिरण्येन) न्यायप्रकाशेन सुवर्णादिधातुमयेन वा = With the light of justice or with gold etc. (हिन्वानासः) सुखं सम्पादयन्तः = Causing happiness.(इन्द्रम् ) सबलं सेनाध्यक्षम् = Mighty commander of the army. (तितिरु:) प्लवन्ते उल्लंघयन्ति । अत्र लडर्थे लिट् । = Overcome. ( स्पश:) ये स्पशन्ति ते ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God has endowed the Sun with light, attraction and gravitation etc. He has enjoined upon all to appoint only such persons for ruling as are endowed with knowledge, Dharma (righteousness) justice and brave army etc. It is only they that can rule over men on account of their extra-ordinary ability.

    Translator's Notes

    हिरण्येन has been explained by Rishi Dayananda as न्यायप्रकाशेन for which the following passages from the Brahamanas may be quoted-— ज्योतिर्हिरण्यम् || गोपथ् पू० २.२१, ज्योतिर्हिहिरण्यम् || (शतपथे ४.३.१.२१) ज्योतिर्वैहिरण्यम् । ताण्ड्यब्राह्मणे ६.६.१०, १८.७.८, शत० ६.७.१.२ । In all these passages हिरण्यम् has been interpreted as ज्योति: or light. So Rishi Dayananda's interpretation as the light of justice is well-authenticated.

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