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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 15
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आवः॒ शमं॑ वृष॒भं तुग्र्या॑सु क्षेत्रजे॒षे म॑घव॒ञ्छ्वित्र्यं॒ गाम् । ज्योक् चि॒दत्र॑ तस्थि॒वांसो॑ अक्रञ्छत्रूय॒तामध॑रा॒ वेद॑नाकः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आवः॑ । शम॑म् । वृ॒ष॒भम् । तुग्र्या॑सु । क्षे॒त्र॒ऽजे॒षे । म॒घ॒ऽव॒न् । श्वित्र्य॑म् । गाम् । ज्योक् । चि॒त् । अत्र॑ । त॒स्थि॒ऽवांसः॑ । अ॒क्र॒न् । श॒त्रु॒ऽय॒ताम् । अध॑रा । वेद॑ना । अ॒क॒रित्य॑कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम् । ज्योक् चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आवः । शमम् । वृषभम् । तुग्र्यासु । क्षेत्रजेषे । मघवन् । श्वित्र्यम् । गाम् । ज्योक् । चित् । अत्र । तस्थिवांसः । अक्रन् । शत्रुयताम् । अधरा । वेदना । अकरित्यकः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (आवः) प्रापय (शमम्) शाम्यन्ति येन तम् (वृषभम्) वर्षणशीलं मेघम् (तुग्य्रासु) अप्सु हिंसनक्रियासु (क्षेत्रजेऽषे) क्षेत्रमन्नादिसहितं भूमिराज्यं जेषते प्रापयति तस्मै। अत्र अन्तर्गतो ण्यर्थः क्विबुपपदसमासश्च। (मघवन्) महाधन सभाध्यक्ष (श्वित्र्यम्) श्वित्रायां भूमेरावरणे साधु (गाम्) ज्योतिः पृथिवीं वा (ज्योक्) निरन्तरे (चित्) उपमार्थे (अत्र) अप्सु भूमौ वा (तस्थिवांसः) तिष्ठन्तः (अक्रन्) कुर्वन्ति। मन्त्रे घस#ह्वरणश० इत्यादिना च्लेर्लुक्। (शत्रूयताम्) शत्रुरिवाचरताम् (अधरा) नीचानि (वेदना) वेदनानि अत्रोभयत्र शे*श्छन्दसि बहुलम् इति शेर्ल्लोपः। (अकः) करोति। अत्र लडर्थे लुङ् ॥१५॥ #[अ० २।४।८०।] *[अ० ६।१।७०।]

    अन्वयः

    पुनरिन्द्रस्य किं कृत्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे मघवन् सभेश त्वं यथा सूर्यः क्षेत्रजेषे श्वित्र्यं वृषभं तुग्य्रास्वप्सु गां किरणसमूहभावः प्रवेशयति शत्रूयतां तेषां मेघावयवानामधरा नीचानि वेदना वेदनानि पापफलानि दुःखानि तस्थिवांसः किरणाश्छेदनं ज्योगक्रन्। अत्र भूमौ निपातनमकः क्षेत्रजेषे आसु क्रियासु श्वित्र्यं वृषभं शमभावः शांतिं प्रापयति गां पृथिवीभावः दुःखान्यक्रंश्चिदिव शत्रून्निवार्य प्रजाः सदा सुखय ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्योऽन्तरिक्षान्मेघजलं भूमौ निपात्य प्राणिभ्यः शमं सुखं ददाति तथैव सेनाध्यक्षादयो मनुष्या दुष्टान् शत्रून् बध्वा धार्मिकान् पालयित्वा सततं सुखानि भुंजीरन्निति ॥१५॥ पूर्वसूक्तार्थेन सहात्र सूर्यमेघयुद्धार्थवर्णनेनोपमानोपमेयालंकारेण मनुष्येभ्यो युद्धविद्योपदेशार्थस्यैतत्सूक्तार्थस्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इति तृतीयो वर्गस्त्रयस्त्रिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥३३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर इन्द्र का क्या कृत्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (मघवन्) बड़े धन के हेतु सभा के स्वामी ! आप जैसे सूर्यलोक (क्षेत्रजेषे) अन्नादि सहित पृथिवी राज्य को प्राप्त कराने के लिये (श्वित्र्यम्) भूमि के ढांप लेने में कुशल (वृषभम्) वर्षण स्वभाववाले मेघ के (तुग्य्रासु) जलों में (गाम्) किरण समूह को (आवः) प्रवेश करता हुआ (शत्रूयताम्) शत्रु के समान आचरण करनेवाले उन मेघावयवों के (अधरा) नीचे के (वेदना) दुष्टों को वेदनारूप पापफलों को (तस्थिवांसः) स्थापित हुए किरणें छेदन (ज्योक्) निरन्तर (अक्रन्) करते हैं (अत्र) और फिर इस भूमि में वह मेघ (अकः) गमन करता है उसके (चित्) समान शत्रुओं का निवारण और प्रजा को सुख दिया कीजिये ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अन्तरिक्ष से मेघ के जल को भूमि पर गिरा के सब प्राणियों के लिये सुख देता है वैसे सेनाध्यक्षादि लोग दुष्ट मनुष्य शत्रुओं को बांधकर धार्मिक मनुष्यों की रक्षा करके सुखों का भोग करें और करावें ॥१५॥ इस सूक्त में सूर्य मेघ के युद्धार्थ के वर्णन तथा उपमान उपमेय अलंकार वा मनुष्यों के युद्धविद्या के उपदेश करने से पिछले सूक्तार्थ के साथ इस सूक्तार्थ की संगति जाननी चाहिये। यह तीसरा वर्ग ३ तैतीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३३॥

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    विषय

    फिर इन्द्र का क्या कृत्य है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मघवन् सभेश त्वं यथा सूर्यः क्षेत्रजैषे श्वित्र्यं वृषभं तुग्य्रासि अप्सु गां किरणसमूहम् आवः प्रवेशयति शत्रूयतां तेषां मेघावयवानाम् अधरा नीचानि वेदना वेदनानि पाप फलानि दुःखानि तस्थिवांसः किरणाः च छेदनं ज्योक् अक्रन्। अत्र भूमौ निपातनम् अकः क्षेत्रजेषे आसु क्रियासु श्वित्र्यं वृषभं शमभावः शांतिं प्रापयति गां पृथिवीभावः दुःखानि अक्रंश्चित् इव शत्रून् निवार्य प्रजाः सदा सुखय ॥१५॥

    पदार्थ

    हे  (मघवन्) महाधन सभाध्यक्ष= महाधन सभा के स्वामी ! (त्वम्)=आप, (यथा)=जैसे, (सूर्यः)=सूर्य, (क्षेत्रजेऽषे) क्षेत्रमन्नादिसहितं भूमिराज्यं जेषते प्रापयति तस्मै=क्षेत्र के अन्नादि सहित पृथिवी राज्य को प्राप्त करने की इच्छा  के लिये, (श्वित्र्यम्) श्वित्रायां भूमेरावरणे साधु=भूमि का श्वेत आवरण करने में कुशल, (वृषभम्) वर्षणशीलं मेघम्=वर्षण स्वभाववाले मेघ के, (तुग्य्रासु) अप्सु हिंसनक्रियासु=जलों और हिंसक क्रियाओं में,  (गाम्) किरणसमूहम्=किरणों के समूह को,  (आवः) प्रापय=प्रवेश कराता है,  (शत्रूयताम्) शत्रुरिवाचरताम्= शत्रु के समान आचरण करनेवाले, (तेषाम्)=उन, (मेघावयवानाम्)=मेघ के अवयवों के, (अधरा) नीचानि=नीचे के, (वेदना) वेदनानि=वेदनारूप, (पापफलानि)=पापफलों को, (दुःखानि)=दुःख, (तस्थिवांसः) तिष्ठन्तः=स्थापित करते हुए, (च)=और,  (किरणाः)=किरणों से,  (ज्योक्) निरन्तरे=निरन्तर, (छेदनम्)=छेदन, (अक्रन्) कुर्वन्ति=करते हुए, (अत्र) अप्सु भूमौ वा=जलों या भूमि में, (निपातनम्)=नीचे, (अकः) करोति=करता है, अर्थात् गिराता है, (क्षेत्रजेऽषे) क्षेत्रमन्नादिसहितं भूमिराज्यं जेषते प्रापयति तस्मै=क्षेत्र के अन्नादि सहित पृथिवी राज्य को प्राप्त करने की इच्छा, के लिये, (क्रियासु)=क्रियाओं में, (आसु)=प्रभावी, (श्वित्र्यम्) श्वित्रायां भूमेरावरणे साधु=भूमि का श्वेत आवरण करने में कुशल, (वृषभम्) वर्षणशीलं मेघम्=वर्षण स्वभाववाले मेघ से, (शांतिम्) शान्ति, (प्रापयति)=प्राप्त करता है,   (गाम्) ज्योतिः पृथिवीं वा=किरण समूह को,  (पृथिवीभावः)=पृथिवी के गुणवाले, (दुःखानि)=दुःखी, (अक्रन्) कुर्वन्ति=करते हैं, (चित्) उपमार्थे=ऐसे ही, (शत्रून्)=शत्रुओं का, (निवार्य)=निवारण करके, (प्रजाः)=प्रजा को, (सदा)=सदा, (सुखय)=सुखी कीजिये॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अन्तरिक्ष से मेघ के जल को भूमि पर गिरा के सब प्राणियों के लिये सुख देता है वैसे सेनाध्यक्षादि लोग दुष्ट मनुष्य शत्रुओं को बांधकर धार्मिक मनुष्यों की रक्षा करके सुखों का भोग करें और करावें ॥१५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (मघवन्) महाधन सभा के स्वामी ! (त्वम्) आप (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य (क्षेत्रजेऽषे) क्षेत्र के अन्नादि सहित पृथिवी राज्य को प्राप्त करने की इच्छा  के लिये (श्वित्र्यम्) भूमि को श्वेत आवरण करने में कुशल (वृषभम्) वर्षण स्वभाववाले मेघ के (तुग्य्रासु) जलों और हिंसक क्रियाओं में (गाम्) किरणों के समूह को (आवः) प्रवेश कराता है। (शत्रूयताम्) शत्रु के समान आचरण करनेवाले (तेषाम्) उन (मेघावयवानाम्) मेघ के अवयवों से (अधरा) नीचे (वेदना) वेदनारूप  (पापफलानि) पापफलों को और  (दुःखानि) दुःखों को (तस्थिवांसः) स्थापित करता है  (च) और (किरणाः) किरणों से (ज्योक्) निरन्तर (छेदनम्) छेदन (अक्रन्) करते हुए (अत्र) जलों     और भूमि में (निपातनम्) नीचे (अकः) करता है अर्थात् गिराता है। (क्षेत्रजेऽषे) क्षेत्र के अन्नादि सहित पृथिवी राज्य को प्राप्त करने की इच्छा के लिये (क्रियासु) क्रियाओं में (आसु) प्रभावी (श्वित्र्यम्) भूमि का श्वेत आवरण करने में कुशल  (वृषभम्) वर्षण स्वभाववाले मेघ में (शान्तिम्) शान्ति (प्रापयति) प्राप्त कराता है।   (गाम्) किरण समूह को (पृथिवीभावः) पृथिवी के गुणवाले (दुःखानि) दुःखी (अक्रन्) करते हैं। (चित्) ऐसे ही (शत्रून्) शत्रुओं का  (निवार्य) निवारण करके (प्रजाः) प्रजा को व सदा  (सुखय) सुखी कीजिये॥१५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आवः) प्रापय (शमम्) शाम्यन्ति येन तम् (वृषभम्) वर्षणशीलं मेघम् (तुग्य्रासु) अप्सु हिंसनक्रियासु (क्षेत्रजेऽषे) क्षेत्रमन्नादिसहितं भूमिराज्यं जेषते प्रापयति तस्मै। अत्र अन्तर्गतो ण्यर्थः क्विबुपपदसमासश्च। (मघवन्) महाधन सभाध्यक्ष (श्वित्र्यम्) श्वित्रायां भूमेरावरणे साधु (गाम्) ज्योतिः पृथिवीं वा (ज्योक्) निरन्तरे (चित्) उपमार्थे (अत्र) अप्सु भूमौ वा (तस्थिवांसः) तिष्ठन्तः (अक्रन्) कुर्वन्ति। मन्त्रे घस#ह्वरणश० इत्यादिना च्लेर्लुक्। (शत्रूयताम्) शत्रुरिवाचरताम् (अधरा) नीचानि (वेदना) वेदनानि अत्रोभयत्र शे*श्छन्दसि बहुलम् इति शेर्ल्लोपः। (अकः) करोति। अत्र लडर्थे लुङ् ॥१५॥ #[अ० २।४।८०।] *[अ० ६।१।७०।
    विषयः- पुनरिन्द्रस्य किं कृत्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मघवन् सभेश त्वं यथा सूर्यः क्षेत्रजेषे श्वित्र्यं वृषभं तुग्य्रास्वप्सु गां किरणसमूहमावः प्रवेशयति शत्रूयतां तेषां मेघावयवानामधरा नीचानि वेदना वेदनानि पापफलानि दुःखानि तस्थिवांसः किरणाश्छेदनं ज्योगक्रन्। अत्र भूमौ निपातनमकः क्षेत्रजेषे आसु क्रियासु श्वित्र्यं वृषभं शमभावः शांतिं प्रापयति गां पृथिवीभावः दुःखान्यक्रंश्चिदिव शत्रून्निवार्य प्रजाः सदा सुखय ॥१५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्योऽन्तरिक्षान्मेघजलं भूमौ निपात्य प्राणिभ्यः शमं सुखं ददाति तथैव सेनाध्यक्षादयो मनुष्या दुष्टान् शत्रून् बध्वा धार्मिकान् पालयित्वा सततं सुखानि भुंजीरन्निति ॥१५॥

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    विषय

    शम व वृषभ का रक्षण

    पदार्थ

    १. हे (मघवन्) - सब ऐश्वर्यों के स्वामिन् प्रभो ! आप (आवः) - रक्षित करते हो । किसको ? [क] (शमम्) - शान्त स्वभाववाले पुरुष को, [ख] (वृषभम्) - श्रेष्ठ व शक्तिशाली को, [ग] (तुग्र्यासु) - [अप्सु, आपः - रेतः] रोग - कृमियों का संहार करनेवाले रेतः कणों के होने पर (क्षेत्रजेषे) - रणभूमि में - विजय के निमित्त (गाम्) - [गतम्] जानेवाले को, अर्थात् वीर्यरक्षा के द्वारा व्याधियों व आधियों के जीतनेवाले को [घ] (श्वित्र्यम्) - अत्यन्त शुद्ध जीवनवाले को । 
    २. इस प्रकार प्रभु से रक्षित होने पर (अत्र) - यहाँ इस मानव - योनि में हम (चित्) - निश्चय से (ज्योक्) - खूब देर तक (तस्थिवांसः) - ठहरनेवाले होकर (अक्रन्) - सदा यज्ञादि उत्तम कर्मों को करते हैं 
    ३. तथा (शत्रूयताम्) - शत्रु की भाँति आचरण करनेवालों को (अधरा वेदना) - तीन पीड़ाएँ (अकः) - करते हो । कामादि को पीड़ित करके ही हम अपने उत्कर्ष के मार्ग पर जा पाते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम [शम, वृषभ, श्वित्र] तथा रेतः कणों की रक्षा करके शत्रुओं के साथ रणांगण में विजयशील बनें । ऐसा होने पर हम प्रभु की रक्षा के पात्र होंगे और वासनारूप शत्रुओं का पूर्ण पराजय करके इस दीर्घ जीवन में सदा क्रियाशील होंगे । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ 'उपासना से सुमति - वर्धन' के साथ होता है [१] । उपासित प्रभु ही हमें धनों को देनेवाले है [२] । वे ही हमारे सच्चे स्वामी हैं [३] । उस प्रभु का 'ओम्' नाम ही हमारा धनुष हो [४] । इस धनुष के द्वारा धृतिपूर्वक हम शत्रुओं का संहार करें [५] । हम शत्रुओं का संहार ऐसे करें जैसे कि एक वीर नपुंसकों को नष्ट कर देता है [६] । शत्रुओं को नष्ट करके हम यज्ञशील व स्तोता बनें [७] । शरीर का पूर्ण नियमन करनेवाले बनें [८] । शरीर व मस्तिष्क दोनों का रक्षण करें [९] । धन हमें प्रभु से दूर करनेवाला न हो [१०] । आत्मतत्त्व का धारण हमें वृत्र - विनाश - क्षम बनाये [११] । अनालस्य व ओजस्विता से वृत्ररूप शत्रु का नाश होगा [१२] । वस्तुतः क्रियाशीलता ही वासना को नष्ट करती है [१३] । कुत्स ही प्रभु की रक्षा का पात्र होता है [१४] । शम अर्थात् शान्तस्वभाववाले की प्रभु रक्षा करते हैं । [१५] । इस शान्ति की प्राप्ति के लिए प्राणसाधना आवश्यक है -
     

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    विषय

    योद्धा और वृषभ की तुलना ।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन्! इन्द्र! राजन्! जिस प्रकार सूर्य (तुग्र्यासु) ग्रीष्म की दुःखदायी, प्राणियों का नाश करने वाली दशाओं में, या जलों के निमित्त (शमं) शान्तिदायक (वृषभम्) जल के वर्षाने वाले मेघ को (आ अवः) प्राप्त कराता है उसी प्रकार तू (तुग्र्यासु) दुष्ट पुरुषों द्वारा प्राप्त होने वाले बध, बन्धन आदि पीड़ाकारी अत्याचारों के होने पर (शमं) उनको शान्त करने वाले पुरुष को (प्र अवः) भेज। हे राजन्! (क्षेत्रजेषे) खेत के हलने के लिए किसान जिस प्रकार (श्वित्र्यं) पृथ्वी के हितकारी (गाम्) वलीवर्द को खेत में (प्र अवः) लाता है और सूर्य जिस प्रकार (क्षेत्रजषे) खेतों में अन्न उपजाने के निमित्त (श्वित्र्यं गाम् आ अवः) भूमि के हितकारी किरणों को फेंकता है उसी प्रकार तू भी (क्षेत्रजेषे) रणक्षेत्रों के विजय के लिए (श्वित्र्यं) भूमि लोक के हितजनक (गाम्) उसके प्रबन्ध और शासन के भार उठाने में समर्थ नरपुंगव को (आ अवः) भेज। (अत्र) इस भूमि पर (तस्थिवांसः) स्थिर रूप से रहनेवाले प्रजानन (ज्योक्) चिरकाल तक (अक्रन्) अपनी कृषि व्यापार आदि कार्य करे। हे राजन्! तू (शत्रूयताम्) शत्रुता का आचरण करने वाले शत्रुओं और द्रोहियों को (अधरा वेदना) निकृष्ट कोटि की अति कष्टदायी पीढ़ायें (अकः) दे । इति तृतीयो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य अंतरिक्षातील मेघाच्या जलाला भूमीवर पाडून सर्व प्राण्यांना सुख देतो, तसे सेनाध्यक्ष इत्यादी लोकांनी दुष्ट माणसे व दुष्ट शत्रूंना बंधनात ठेवून धार्मिक माणसांचे रक्षण करून सुखाचा भोग करावा व करवावा. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, Maghavan, lord of power and glory, just as in matters of the prosperity of the various fields of the earth the sun directs its catalytic rays of energy to engage the cloud in battles of precipitation to rain down the soothing life sustaining showers, so may you, like the sun and showers, help the people settled here in peace so that they may for long carry on their earthly chores. Like the sun, bring the hostile elements of the dominion to book and keep them down to suffer as they deserve.

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    Subject of the mantra

    Then again, what are deeds of Indra, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (maghavan)=Lord of precious wealth chairman, (tvam)=you, (yathā)=like, (sūryaḥ)=Sun, (kṣetraje’ṣe)=for the desire to acquire the kingdom of the earth with the grain of the region, (śvitryam)=skillful in covering with white cover the earth, (vṛṣabham)=of cloud having nature of raining, (tugyrāsu)=in waters and violent actions, (gām)=to group of rays, (āvaḥ)=brings in, (śatrūyatām)=behaving as an enemy, (teṣām)=to those, (meghāvayavānām)=of the components of the cloud, (adharā)=downwards, (vedanā)=form of pain, (pāpaphalāni)=results of sins, [aura]=and, (duḥkhāni)=to sorrows, (tasthivāṃsaḥ)=sets up, (ca)=and,(kiraṇāḥ)=by rays, (jyok)=continuously, (chedanam)=piercing, (akran)=doing, (atra)=in water and land, (nipātanam)=down, (akaḥ)=does, in other words pours, (kṣetraje’ṣe)=for the desire to acquire the kingdom of the earth with the grain of the region, (kriyāsu)=in actions, (āsu)=effective, (śvitryam)=skillful in covering with white cover the earth, (vṛṣabham)=of cloud having nature of raining, (śāntim)=peace, (prāpayati)=gets obtained, (gām)=groups of rays, (pṛthivībhāvaḥ)=having earthy qualities, (duḥkhāni)=sad, (akran)=make, (cit)=such, (śatrūn)=of enemies, (nivārya)=eliminating, (prajāḥ)=to descendent, (sadā)=always, (sukhaya)=make happy.

    English Translation (K.K.V.)

    O Lord of precious wealth chairman! A Sun like you, skillful in covering the land with white cover for the desire to attain the kingdom of the earth with the beginning of the region, enters the waters of cloudy rain, establishes the sinful rewards of pain and sorrows below those clouds, acting like enemies and by piercing continuously with rays, lowers it down into the waters and the earth. Efficient in making white cover of the land effective in actions for the desire to attain the earthly kingdom with the grain of the region, brings peace in the rainy cloud. Those with the qualities of the earth make the rays group sad. Make the people happy forever by eliminating such enemies.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this hymn the description of the war meaning of the Sun and cloud, and the simile figures of speech in comparison or preaching the warfare of humans, should be known as the association of this hymn with the previous hymn.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile in this mantra. Just as the Sun gives happiness to all living beings by dropping the water of the clouds from space on the ground, similarly the chief of the army, by tying up the wicked enemies and protecting the righteous people, enjoy the pleasures and get them obtained to others.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the function of Indra is taught further in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wealthy president of the council of ministers, as the Sun causes his rays to enter the raining clouds which are inimical to him in order to help the enjoyment of the earth with food etc. and causes pain to the wicked as a result of their unrighteous deeds, he causes the cloud to fall down on the earth and gives happiness and peace to all through his action in the waters, protects the earth and removes misery, in the same manner, you should always make your people happy by subduing or removing all your enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( वृषभम् ) वर्षणशीलं मेघम् = The cloud that rains. ( तुग्यासु ) अप्सु हिंसनक्रियासु = In the waters that destroy diseases. (गाम्) ज्योतिः पृथिवीं वा = The light or the earth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is implied simile used in the Mantra. As the sun gives happiness to all beings by causing the fall of the water of the cloud from the firmament, in the same manner, the commander of the army and other persons should constantly enjoy happiness by captivating and imprisoning wicked enemies and protecting the righteous people.

    Translator's Notes

    Here again Sayanacharya has committed the mistake of taking श्वित्र्यम् as the proper noun शिवव्यायाः पुत्रं पूर्वोक्तं पुरुषम् Wilson has followed him by translating "Thou hast protected the excellent son of Shvitra-Griffith followed Sayana and Wilson in taking Dashadyum in the 14th. and Shwitra in the 15th Mantra though admitting in the foot note-Dashadyum is also said to have been a Rishi, but nothing is known of him. The same may be said of Swaitreya or Svitrya, the son of a woman named Shvitra. How un-certain and un-reliable are the explanations of many Western translators in clear from the following note given by Griffith on the word Tugryas which he translates as Tugra's Houses, He says "The meaning of Tugryas in the text is not clear. Sayana explains it in the waters "Benfey Translates "among Tugra's daughters" and the Petersburg Lexicon takes it to moan "among the families of the Tugryas.' P. 47. In this hymn Rishi Dayananda has taken Indra besides God to mean in some Mantras as समेश, राज्यैस्वयं युक्त ( President of the Assembly or the council of ministers and in others as सेनाध्य्क्ष् शत्रुणा दारयिता the Chief Commander of the Army, the destroyer of enemies. Both these meanings are substantiated clearly by the Brahmanic passages like इन्द्रो वै देवामामोजिष्ठो बलिष्ठः सहिष्ठः सत्तमः पारयिष्णुतमः ॥ ऐतरेय ७. १६ ॥ ८.१२ ) These adjectives are applicable to the President of the Assembly or the council of ministers as the mightiest and the best among enlightened persons. इन्द्रो वै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठः ॥ (कौषीतकी ब्राह्मणे ६.१४ गोपथ उ० १.३ ) The two adjectives used here are chiefly applicable to the commander-in-Chief of an army as the mightiest or the most powerful among the heroes desiring to conquer. In some mantras the word Indra stands for the sun for which there is the authority of the Brahmnas saying. स यः स इन्द्रः एष एव स य एष ( सूर्य: ) एव तपति ।। (जैमिनीयोपनिषद् ब्रह्मणे १.२८.२) अथयः स इन्द्रोऽसौ स आदित्यः || शतपथ ब्रा०८.५.३.२ एष एवेन्द्र: य एष (सूर्यः) तपति । शतपथ० १.६.४.१८) Concluding remarks of the commentator- पूर्व सूक्तार्थेन सहात्र सूर्यमेघयुद्धार्थवर्णनेनोपमानोपमेयालङ्कारेण मनुष्येभ्यो युद्धविद्योपदेशार्थस्यैतत् सूक्तार्थस्य संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति त्रयस्त्रिशं सूक्तम् । In this hymn also by the simile of the battle between the Sun and the cloud, the military science is taught, hence it has direct connection with the previous hymn. Here ends the thirty third hymn of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.

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