ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उपेद॒हं ध॑न॒दामप्र॑तीतं॒ जुष्टां॒ न श्ये॒नो व॑स॒तिं प॑तामि । इन्द्रं॑ नम॒स्यन्नु॑प॒मेभि॑र॒र्कैर्यः स्तो॒तृभ्यो॒ हव्यो॒ अस्ति॒ याम॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठइत् । अ॒हम् । ध॒न॒ऽदाम् । अप्र॑तिऽइतम् । जुष्टा॑म् । न । श्ये॒नः । व॒स॒तिम् । प॒ता॒मि॒ । इन्द्र॑म् । न॒म॒स्यन् । उ॒प॒ऽमेभिः॑ । अ॒र्कैः । यः । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । हव्यः॑ । अस्ति॑ । याम॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि । इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्यः स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥
स्वर रहित पद पाठउप । इत् । अहम् । धनदाम् । अप्रतिइतम् । जुष्टाम् । न । श्येनः । वसतिम् । पतामि । इन्द्रम् । नमस्यन् । उपमेभिः । अर्कैः । यः । स्तोतृभ्यः । हव्यः । अस्ति । यामन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(उप) सामीप्ये (इत्) एव (अहम्) मनुष्यः (धनदाम्) यो धनं ददाति तम् (अप्रतीतम्) यश्चक्षुरादीन्द्रियैर्न प्रतीयते तमगोचरम्। (जुष्टाम्) पूर्वकालसेविताम् (न) इव (श्येनः) वेगवान् पक्षी (वसतिम्) निवासस्थानम् (पतामि) प्राप्नोमि (इन्द्रम्) अखंडैश्वर्यप्रदं जगदीश्वरम् (नमस्यन्) नमस्कुर्वन् अत्र नमोवरिवश्चित्रङः क्यच्। अ० ३।१।१९। इति क्यच्। (उपमेभिः) उपमीयन्ते यैस्तै। अत्र माङ् धातोः घञर्थे क विधानम्। इति वार्त्तिकेन करणे कः प्रत्ययः। बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (अर्कैः) अनेकैः सूर्यलोकैः (यः) पूर्वोक्तः सूर्यलोकोत्पादकः (स्तोतृभ्यः) य ईश्वरं स्तुवन्ति तेभ्यः (हव्यः) होतुमादातुमर्हः (अस्ति) वर्त्तते (यामन्) याति गच्छति प्राप्नोति स यामा तस्मिन्नस्मिन् संसारे। अत्र सुपां सुलुग् इति विभक्तेर्लुक् ॥२॥
अन्वयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
यो हव्यः स्तोतृभ्यो धनप्रदोस्ति तमप्रतीतं धनदामिन्द्रं नमस्यन्नहं जुष्टां वसतिं श्येनो नेव यामन् गमनशीलेऽस्मिन् संसार उपमेभिरर्कैरिदेवोपपताम्यभ्युपगच्छामि ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा श्येनाख्यः पक्षी प्रावसेवितं सुखप्रदं निवासस्थानं स्थानान्तराद्वेगेन गत्वा प्राप्नोति तथैव परमेश्वरं नमस्यन्तो मनुष्या अस्मिन् संसारे तद्रचितैः सूर्यादिलोकदृष्टान्तैरीश्वरं निश्चित्य तमेवोपासताम् यावन्तोऽस्मिञ् जगति रचिताः पदार्था वर्त्तेते तावंतः सर्वे निर्मातारमीश्वरं निश्चापयंति। नहि निर्मात्रा विना किंचिन्निर्मितं संभवति। तथाऽस्मिन् मनुष्यै रचनीये व्यवहारे रचकेन विना किंचिदपि स्वतो न जायते तथैवेश्वरसृष्टौ वेदितव्यम्। अहो एवं सति य ईश्वरमनाहत्य नास्तिका भवंति तेषामिदं महदज्ञानं कुतः सभागतमिति। अत्राध्यापकविलसनेन श्येनस्य प्रसिद्धस्य पक्षिणो नामा विदित्वा गोदृष्टान्तो गृहीतोऽस्य मंत्रस्यान्यथार्थो वर्णितस्तस्मादिदमस्य व्याख्यानमनादरणीयमस्तीति ॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
(यः) जो (हव्यः) ग्रहण करने योग्य ईश्वर (स्तोतृभ्यः) अपनी स्तुति करनेवालों के लिये धन देनेवाला (अस्ति) है उस (अप्रतीतम्) चक्षु आदि इन्द्रियों से अगोचर (धनदाम्) धन देनेवाले (इन्द्रम्) परमेश्वर को (नमस्यन्) नमस्कार करता हुआ (अहम्) मैं (न) जैसे (जुष्टाम्) पूर्व काल में सेवन किये हुए (वसतिम्) *घुसला को (श्येनः) वाज पक्षी प्राप्त होता है वैसे (यामन्) गमनशील अर्थात् चलायमान इस संसार में (उपमेभिः) उपमा देने के योग्य (अर्कैः) अनेक सूर्यों से (इत्) ही (उपपतामि) प्राप्त होता हूँ ॥२॥ *घौंसले। सं०
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे श्येन अर्थात् वेगवान् पक्षी अपने पहिले सेवन किये हुए सुख देनेवाले स्थान को स्थानान्तर से चलकर प्राप्त होता है वैसे ही परमेश्वर को नमस्कार करते हुए मनुष्य उसीके बनाये इस संसार में सूर्य आदि लोकों के दृष्टान्तों से ईश्वर का निश्चय करके उसीकी प्राप्ति करें क्योंकि जितने इस संसार में रचे हुए पदार्थ हैं वे सब रचनेवाले का निश्चय कराते हैं और रचनेवाले के विना किसी जड़ पदार्थ की रचना कभी नहीं हो सकती जैसे इस व्यवहार में रचनेवाले के विना कुछ भी पदार्थ नहीं बन सकता वैसे ही ईश्वर की सृष्टि में भी जानना चाहिये, बड़ा आश्चर्य है कि ऐसे निश्चय हो जाने पर भी जो ईश्वर का अनादर करके नास्तिक हो जाते हैं उनको यह बड़ा अज्ञान क्योंकर प्राप्त होता है ॥२॥
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यो हव्यः स्तोतृभ्यः धनप्रदः अस्ति तम् अप्रतीतम् धनदाम् इन्द्रम् नमस्यन् अहं जुष्टां वसतिं श्येनः न इव यामन् गमनशीले अस्मिन् संसार उपमेभिः अर्कैः इत् एव उपपतामि अभि उपगच्छामि ॥२॥
पदार्थ
(यः) पूर्वोक्तः सूर्यलोकोत्पादकः=सूर्य लोक का निर्माता परमेश्वर, (हव्यः) होतुम् आदातुम् अर्हः= देने और ग्रहण करने योग्य, (स्तोतृभ्यः) य ईश्वरं स्तुवन्ति तेभ्यः=अपनी स्तुति करनेवालों के लिये, (धनप्रदः)=धन देनेवाला, (अस्ति) वर्त्तते=है, (तम्)=उस, (अप्रतीतम्) यश्चक्षुरादीन्द्रियैर्न प्रतीयते तमगोचरम्=जिसे चक्षु आदि इन्द्रियों से प्रतीति नही होती है ऐसे अगोचर को, (धनदाम्) यो धनं ददाति तम्=धन देनेवाले को, (इन्द्रम्) अखंडैश्वर्यप्रदं जगदीश्वरम्=अखण्ड ऐश्वर्य प्रदाता परमेश्वर को, (नमस्यन्) नमस्कुर्वन्=नमस्कार करता हुआ, (अहम्) मनुष्यः=मनुष्य, (जुष्टाम्) पूर्वकालसेविताम्=पूर्व काल में सेवन किये हुए, (वसतिम्) निवासस्थानम्= निवास स्थान घोंसले को, (श्येनः) वेगवान् पक्षी=वाज पक्षी, (न) इव=जैसे, (यामन्) याति गच्छति प्राप्नोति स यामा तस्मिन्नस्मिन् संसारे=गमनशील अर्थात् चलायमान इस संसार में, (उपमेभिः) उपमीयन्ते यैस्तै=उपमा देने के योग्य के द्वारा, (अर्कैः) अनेकैः सूर्यलोकैः=अनेक सूर्य लोकों से, (इत्) एव=ही, (उप) सामीप्ये=समीपता से, (पतामि) अभि उपगच्छामि=प्राप्नोमि=प्राप्त होऊँ ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे श्येन नाम का पक्षी अच्छी तरह से सेवित किए हुए निवास स्थान से स्थानपरिलर्तन के बाद वेग से जाकर पहुँचता है, वैसे ही परमेश्वर को नमस्कार करते हुए मनुष्य इस संसार में उसके निर्मित किए हुए सूर्य आदि लोकों का दिखानेवाला परमेश्वर है, निश्चितरूप से उसी की उपासना करें। जब तक इस संसार में निर्मित किए हुए पदार्थ हैं, तब तक सबके निर्माता ईश्वर की ही सलाह लेते हैं। निर्माता के विना कोई निर्मित पदार्थ सम्भव नहीं है। ऐसे ही इस मनुष्य के रचना करने के व्यवहार द्नारा रचना के विना कोई भी वस्तु अपने आप ही उत्पन्न नहीं होती है, ऐसा ही परमेश्वर की सृष्टि के बारे में जानना चाहिए। दुःख है कि ऐसा होने पर जो ईश्वर का अनादर करके नास्तिक हो जाते हैं, उनका महान् अज्ञान क्यों न न्याय के समक्ष रखा जाये। इस मन्त्र में अध्यापक विलसन द्वारा “श्येन” शब्द से प्रसिद्ध पक्षी के नाम को समझते हुए गाय का दृष्टान्त लेने से मन्त्र का अन्यथा अर्थ हो जाने से इस मन्त्र की वर्णित व्याख्या आदर किए जाने योग्य नहीं है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) सूर्य लोक का निर्माता परमेश्वर (हव्यः) देने और ग्रहण करने योग्य (स्तोतृभ्यः) अपनी स्तुति करनेवालों के लिये (धनप्रदः) धन देने वाला (अस्ति) है। (तम्) उस परमेश्वर को, (अप्रतीतम्) जिसे चक्षु आदि इन्द्रियों से प्रतीति नही होती है। ऐसे अगोचर और (धनदाम्) धन देनेवाले (इन्द्रम्) अखण्ड ऐश्वर्य प्रदाता परमेश्वर को (नमस्यन्) नमस्कार करता हुआ (अहम्) मनुष्य (जुष्टाम्) पूर्व काल में सेवन किये हुए (वसतिम्) निवास स्थान घोंसले को (श्येनः) वाज पक्षी (न) जैसे (यामन्) गमनशील अर्थात् चलायमान इस संसार में (उपमेभिः) उपमा देने के योग्य हैं जो उनके के द्वारा (अर्कैः) अनेक सूर्य लोकों से (इत्) ही (उप) समीपता से (पतामि) प्राप्त होऊँ ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उप) सामीप्ये (इत्) एव (अहम्) मनुष्यः (धनदाम्) यो धनं ददाति तम् (अप्रतीतम्) यश्चक्षुरादीन्द्रियैर्न प्रतीयते तमगोचरम्। (जुष्टाम्) पूर्वकालसेविताम् (न) इव (श्येनः) वेगवान् पक्षी (वसतिम्) निवासस्थानम् (पतामि) प्राप्नोमि (इन्द्रम्) अखंडैश्वर्यप्रदं जगदीश्वरम् (नमस्यन्) नमस्कुर्वन् अत्र नमोवरिवश्चित्रङः क्यच्। अ० ३।१।१९। इति क्यच्। (उपमेभिः) उपमीयन्ते यैस्तै। अत्र माङ् धातोः घञर्थे क विधानम्। इति वार्त्तिकेन करणे कः प्रत्ययः। बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (अर्कैः) अनेकैः सूर्यलोकैः (यः) पूर्वोक्तः सूर्यलोकोत्पादकः (स्तोतृभ्यः) य ईश्वरं स्तुवन्ति तेभ्यः (हव्यः) होतुमादातुमर्हः (अस्ति) वर्त्तते (यामन्) याति गच्छति प्राप्नोति स यामा तस्मिन्नस्मिन् संसारे। अत्र सुपां सुलुग् इति विभक्तेर्लुक् ॥२॥
विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यो हव्यः स्तोतृभ्यो धनप्रदोस्ति तमप्रतीतं धनदामिन्द्रं नमस्यन्नहं जुष्टां वसतिं श्येनो नेव यामन् गमनशीलेऽस्मिन् संसार उपमेभिरर्कैरिदेवोपपताम्यभ्युपगच्छामि ॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा श्येनाख्यः पक्षी प्रावसेवितं सुखप्रदं निवासस्थानं स्थानान्तराद्वेगेन गत्वा प्राप्नोति तथैव परमेश्वरं नमस्यन्तो मनुष्या अस्मिन् संसारे तद्रचितैः सूर्यादिलोकदृष्टान्तैरीश्वरं निश्चित्य तमेवोपासताम् यावन्तोऽस्मिञ् जगति रचिताः पदार्था वर्त्तेते तावंतः सर्वे निर्मातारमीश्वरं निश्चापयंति। नहि निर्मात्रा विना किंचिन्निर्मितं संभवति। तथाऽस्मिन् मनुष्यै रचनीये व्यवहारे रचकेन विना किंचिदपि स्वतो न जायते तथैवेश्वरसृष्टौ वेदितव्यम्। अहो एवं सति य ईश्वरमनाहत्य नास्तिका भवंति तेषामिदं महदज्ञानं कुतः सभागतमिति। अत्राध्यापकविलसनेन श्येनस्य प्रसिद्धस्य पक्षिणो नामा विदित्वा गोदृष्टान्तो गृहीतोऽस्य मंत्रस्यान्यथार्थो वर्णितस्तस्मादिदमस्य व्याख्यानमनादरणीयमस्तीति ॥२॥
विषय
जुष्टा - वसति
पदार्थ
१. गतमन्त्र की उपासना को ही इन शब्दों में कहते हैं कि (अहम्) - मैं (इत्) - निश्चय से (उपपतामि) - समीप जाता हूँ । उस प्रभु के समीप जाता हूँ जो [क] (धनदाम्) - मेरे लिए सब धनों के देनेवाले हैं । [ख] (अप्रतीतम्) - [अ प्रति इतम्] किन्हीं भी शत्रुओं से तिरस्कृत न किये जानेवाले हैं, अथवा [न प्रतीयते स्म] चक्षु आदि इन्द्रियों के अगोचर हैं । [ग] (इन्द्रम्) - जो परमैश्वर्यशाली हैं । [घ] (यः) - जो (यामन्) - इस जीवन - यात्रा के मार्ग में (स्तोतृभ्यः) - स्तोताओं के लिए (हव्यः) - [कर्त्तरि यत्] सब उत्तम पदार्थों को देनेवाले (अस्ति) - हैं ।
२. उस प्रभु के समीप मैं इस प्रकार जाता हूँ (न) - जैसे कि (श्येनः) - एक पक्षी (जुष्टां वसतिम्) - प्रीतिपूर्वक सेवन किये गये घोंसले में आता है । प्रभु ही जीव का वह घोंसला है जहाँ कि वह शान्तिपूर्वक रह पाता है ।
३. उस (इन्द्रम्) - परमैश्वर्यशाली प्रभु को (उपमेभिः) - उपमानस्थानीय अर्थात् अनुपम (अर्कैः) - स्तोत्रों से (नमस्यन्) - पूजा करता हुआ मैं प्राप्त होता हूँ । प्रभु के ये स्तोत्र मेरी अन्तर्दृष्टि के सामने प्रभु को चित्रित करनेवाले होते हैं । इनसे प्रभु के स्वरूप का आभास मिलता है ।
४. 'यामन्' शब्द संग्राम - वाचक भी है, अतः (यः) - जो प्रभु (यामन्) - वासनाओं के साथ संग्राम में (स्तोतृभ्यः) - स्तोताओं के लिए (हव्यः अस्ति) - पुकारने योग्य हैं । प्रभु की मदद से ही हमें इन वासनाओं को जीतना है । सत्य तो यह है कि प्रभु ही हमारे लिए इन वासनाओं को पराजित करते हैं । वे प्रभु ही अप्रतीत हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अनुपम स्तोत्रों से प्रभु का अर्चन करते हुए प्रभु की उपासना करें । जीवन - संग्राम में प्रभु ही हमारे द्वारा आराधन के योग्य हैं, वे ही हमें आवश्यक धनों को देनेवाले हैं ।
विषय
राजा
भावार्थ
( श्येनः) बाज पक्षी (न) जिस प्रकार अपने ( जुष्टाम् ) प्रिय (वसतिं ) निवासस्थान को जाता है मैं उसी प्रकार ( धनदाम् ) ऐश्वर्य के देने वाले ( अप्रतीतम् ) चक्षु आदि इन्द्रियों से न दीखने वाले, अगोचर, अथवा (अप्रतीतम् ) अनुपम, (इन्द्रम् ) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु को ( उपमेभिः ) उसके गुणों का बहुत अधिक ज्ञान कराने वाले, उपगानों द्वारा वर्णन करने वाले ( अर्कैः ) स्तुति-वचनों से ( नमस्यन् ) प्रभु की नमस्या, वन्दना करता हुआ अतिवेग से विह्वल होकर ( पतामि ) उस प्रभु को प्राप्त होऊ ( यः ) जो ( यामन्) प्रति प्रहर ( स्तोतृभ्यः ) गुण स्तुति करने वाले भक्तों के (हव्यः अस्ति) सदा स्मरण और स्तुति करने योग्य होता है । राजा के पक्ष में—( अप्रतीतम् ) शत्रुओं से अजेय, धनदाता राजा को मैं प्रिय वसतिस्थान को जाने वाले पक्षी के समान प्राप्त होंऊ । नाना उपमाओं से युक्त स्तुतियों से उसकी स्तुति करूं । वह विद्वानों का भी इस ( यामन् ) जगत् या मार्ग में पूज्य होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ शेषाः त्रिष्टुभः । १४, १५ भुरिक् पंक्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा श्येन पक्षी अर्थात वेगवान पक्षी एका स्थानाहून दुसऱ्या स्थानी जाऊन पूर्वी भोगलेले सुख प्राप्त करतो, तसेच परमेश्वराला नमस्कार करीत माणसाने त्यानेच निर्माण केलेल्या सूर्य इत्यादी दृष्टान्तांवरून ईश्वराचा निश्चय करून त्याचीच प्राप्ती करावी. कारण या जगात निर्माण झालेले पदार्थ निर्मात्याचा निश्चय करवितात. निर्मात्याशिवाय कोणत्याही जड पदार्थाची निर्मिती होऊ शकत नाही. जसा व्यवहारात निर्मात्याशिवाय कोणताही पदार्थ बनू शकत नाही तसेच ईश्वराच्या सृष्टीतही जाणून घ्यावे. अत्यंत आश्चर्याची गोष्ट ही आहे की, ईश्वराचा असा निश्चय झाल्यावरही जे ईश्वराचा अनादर करतात व नास्तिक होतात त्यांच्यात एवढे मोठे अज्ञान का उत्पन्न होते? ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as a falcon flies to its favourite haunt and home, so bowing and praying with exemplary songs and offerings I yearn to reach Indra, lord of honour and splendour, giver of wealth, but invisible and incomprehensible, who alone is adorable for the worshippers in the world of time.
Subject of the mantra
Then, what kind of He (God) is? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ)=God the creator of the sun world, (havyaḥ)=capable of giving and receiving, (stotṛbhyaḥ)=for those who praise you, (dhanapradaḥ)=money giver, (asti)=is, (tam)=to that God, (apratītam) One who is not perceived by the senses etc., such imperceptible, [aura ]=and, (dhanadām)=provider of wealth,(indram)=To God the provider of eternal opulence, (namasyan)=while saluting, (aham)=man, (juṣṭām)=used in the past, (vasatim)=to habitat nest, (śyenaḥ)=bird eagle, (na)=like (yāman)= in this moving world, (upamebhiḥ)= those who are worthy of comparing, by them, (arkaiḥ)= from many sun-worlds, (it)=only, (upa)=from proximity,(patāmi)=I get obtained.
English Translation (K.K.V.)
The creator of the Sun world is the giver of wealth to those who praise Him, who is capable of giving and receiving. Saluting the God, who is not perceivable by the senses like the eye, et cetera. A man saluting such an imperceptible and rich giver of eternal opulence, the man who used in the past the nest of the dwelling place, like an eagle bird that is capable of being praised in this world. Through them, I can get close to many Sun worlds.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile in this mantra. Just as a bird named Shyen (eagle) moves from a well-maintained abode to a place after changing different places, in the same way man, saluting the God, is the Lord showing the Sun and other worlds created by Him in this world certainly, He must be worshiped. As long as there are created things in this world, the creator of all takes the advice of God. Nothing is possible without a creator. In the same way, by the activity of creating this man, without creation, nothing arises on its own, similarly one should know about the creation of God. It is a pity that when this happens, those who become atheists by disrespecting God. Why should not their great nescience be put to justice. In this mantra, the professor Wilson understood the name of a bird famous by the word "Shyen" (eagle), taking the example of a cow and taking the translation of the mantra otherwise, the described explanation of this mantra is not respect worthy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is He (Indra) is taught in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I fly to God and seek Him who is worthy of being accepted, Giver of wealth (material as well as spiritual) to His worshippers and Who can not be grasped with these external senses. I fly to that Invisible wealth-giver as the falcon does to its cherished nest. With fairest hymns of praise, adoring God I approach Him, Whose glory is known through many solar worlds in this universe.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अप्रतीतम् ) यः चक्षुरादीन्द्रियैः न प्रतीयते तम् अगोचरम् = Invisible or that cannot be grasped with the eyes and other senses. ( उपमेभिः) उपमीयन्ते यैस्तैः । अत्र माङ् धातोर्घअर्थे कविधानम् । इति वार्तिकेन करणे कः प्रत्ययः । बहुलं छन्दसीति भिस ऐस् न ।। = By illustrations. (यामन्) याति गच्छति प्राप्नोति स यामा तस्मिन् अस्मिन् संसारे ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in this Mantra. As a hawk reaches its cherished pleasant nest from other places quickly, in the same manner, men should adore God bowing before Him and verifying His glory through the illustration of the solar worlds and other wonderful things. All the created substances in the world ensure the presence of the Creator. Nothing can be created without a creator. As in this world, nothing can be made unless there is a maker, in the same way, we should know about the creation made by God. That being. the case, how absurd and foolish it is on the part of those who denying the existence of God become atheists? It shows their profound ignorance. Here Prof. Wilson has not understood the simile of the Hawk and has taken it to mean cow, which is wrong.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has criticized Prof. Wilson for wrongly translating the word. श्येन: which means hawk as cow. In the edition that I have been using in this translation now and then, Prof. Wilson's translation is- “I fly, like a hawk to its cherished nest, to that Indra, who is to be invoked by his worshippers in battle, glorifying with excellent hymns, him who is invincible and the giver of wealth." (Rigveda – Sanhita Vol. 1 Translated by H. H. Wilson M. A., F. R. S., Published by the Bangalore Printing and Publishing Co. Ltd., Bangalore City. May 1946.) Therefore it may be that in Rishi Dayananda's days, there was an edition ( as it was printed for the first time in 1850 and there after) which contained the horrible mistake pointed out by the Rishi.
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