ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निर्देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
श्रु॒ष्टी॒वानो॒ हि दा॒शुषे॑ दे॒वा अ॑ग्ने॒ विचे॑तसः । तान्रो॑हिदश्व गिर्वण॒स्त्रय॑स्त्रिंशत॒मा व॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒ष्टी॒ऽवानः । हि । दा॒शुषे॑ । दे॒वाः । अ॒ग्ने॒ । विचे॑तसः । तान् । रो॒हि॒त्ऽअ॒श्व॒ । गि॒र्व॒णः॒ । त्रयः॑ऽत्रिंशतम् । आ । व॒ह॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुष्टीवानो हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतसः । तान्रोहिदश्व गिर्वणस्त्रयस्त्रिंशतमा वह ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुष्टीवानः । हि । दाशुषे । देवाः । अग्ने । विचेतसः । तान् । रोहित्अश्व । गिर्वणः । त्रयःत्रिंशतम् । आ । वह॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(श्रुष्टीवानः) ये श्रुष्टी शीघ्रं वनन्ति संभजन्ति ते। श्रुष्टी इति पदना०। निघं० ४।३। (हि) खलु (दाशुषे) दानशीलाय पुरुषार्थिन जनाय (देवाः) दिव्यगुणा विद्वांसः (अग्ने) विद्वन् (विचेतसः) विविधं चेतः शास्त्रोक्तबोधयुक्त्ता प्रज्ञा येषां ते (तान्) देवान् (रोहिदश्व) रोहितोऽश्वा वेगादयो गुणा यस्य तत्सम्बुद्धौ (गिर्वणः) यो गीर्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ (त्रयस्त्रिंशतम्) एतत्संख्याकान् पृथिव्यादीन् (आ) आभिमुख्ये (वह) प्राप्नुहि ॥२॥
अन्वयः
पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे रोहिदश्व गिर्वणोऽग्ने ! त्वमिह ये विचेतसः श्रुष्टीवानो देवा दाशुषे सुखं प्रयच्छन्ति तान् त्रयस्त्रिंशतं देवानावह ॥२॥
भावार्थः
यदा विद्वांसो विद्यार्थिने त्रयस्त्रिंशतो देवानां विद्याः साक्षात्कारयन्ति तदैते विद्युत्प्रमुखैः पदार्थैरनेकानुत्तमान्व्यवहारान्साधितुं शक्नुवन्ति ॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (रोहिदश्व) वेग आदि गुणयुक्त (गिर्वणः) वाणियों से सेवित (अग्ने) विद्वन् ! (त्वम्) आप इस संसार में जो (विचेतसः) नाना प्रकार के शास्त्रोक्त ज्ञानयुक्त (श्रुष्टीवानः) यथार्थ विद्या के सेवन करनेवाले (देवाः) दिव्य गुणवान् विद्वान् (दाशुषे) दानशील पुरुषार्थी मनुष्य के लिये सुख देते हैं (तान्) उन (त्रयस्त्रिंशतम्) भूमि आदि तैंतीस दिव्य गुण वालों को (हि) निश्चय करके (आवह) प्राप्त हूजिये ॥२॥
भावार्थ
जब विद्वान् लोग विद्यार्थियों को तैंतीस देव अर्थात् पृथिवी आदि तैंतीस पदार्थों की विद्या को अच्छे प्रकार साक्षात्कार कराते हैं तब वे बिजुली आदि अनेक पदार्थों से उत्तम-२ व्यवहारों की सिद्धि कर सकते हैं ॥२॥
विषय
तेंतीस देव
पदार्थ
१. (अग्ने) - परमात्मन् ! (विचेतसः) - विशिष्ट ज्ञानवाले (देवाः) - दिव्यवृत्तिवाले लोग (हि) - निश्चय से (दाशुषे) आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए (श्रुष्टीवानः) - उत्तम प्रेरणाओं को प्राप्त करानेवाले हैं [श्रुष्टिः प्रेरणार्थः, सा०; श्रुष्टिं वनन्ति, भजन्ति] । विचेतस् देव लोग अपने सम्पर्क में आनेवाले व्यक्ति को सदा उत्तम प्रेरणा प्राप्त कराते हैं ।
२. हे (रोहिदश्व) - सदा से वर्धमान व व्यापक प्रभो ! [रुह प्रादुर्भाव, अश् व्याप्तौ] अथवा हमारे इन्द्रियाश्वों के वर्धन करनेवाले प्रभो ! (गिर्वणः) - वेदवाणियों से सम्भजनीय प्रभो ! आप (तान्) - उन (त्रयंस्त्रिशतम्) - तेतीस - के - तेतीस दिव्य गुणों से युक्त विद्वानों को (आवह) - हमें प्राप्त कराइए । बाह्यजगत् में तेंतीस देव हैं, ये तेंतीस देव हमारे शरीर में भी प्रतिष्ठित हैं - 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते' । इन तेंतीस देवों के शरीर में ठीक रूप से प्रतिष्ठित होने पर मनुष्य देव बन जाता है । इन देवों के साथ हमारा सम्पर्क हो, ताकि हम भी 'देव' बनने के लिए प्रवृत्त हों ।
भावार्थ
भावार्थ - देवों के सम्पर्क में आकर उनसे प्रेरणा प्राप्त होते हुए हम भी देव बनें ।
विषय
प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन्! राजन्! (विचेतसः) विविध प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता (देवाः) विद्या के दाता, विद्वान् आचार्यगण भी (दाशुषे) भक्तिपूर्वक दान देनेवाले शिष्य के लिए ही (श्रुष्टीवानः) उत्तम अन्न आदि को प्राप्त करें। हे (रोहिदश्व) रक्तवर्ण के अश्वों या अश्वारोही सैनिकों के स्वामिन्! हे (गिर्वणः) स्तुति वाणियों के पात्र! तू ही (तान्) उन (त्रिंशतम्) तेंतीस प्रकार के विद्वानों को (आवह) प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे रोहिदश्व गिर्वणःअग्ने ! त्वम् इह ये विचेतसः श्रुष्टीवानः देवा दाशुषे सुखं प्र यच्छन्ति तान् त्रयस्त्रिंशतं देवानावह ॥२॥
पदार्थ
हे (रोहिदश्व) रोहितोऽश्वा वेगादयो गुणा यस्य तत्सम्बुद्धौ= जिसके वेग आदि गुणयुक्त, अश्व हैं, ऐसे, (गिर्वणः) यो गीर्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ= जो वाणियों से अच्छीतरह से पूजा करता है, ऐसे, (अग्ने) विद्वन्= विद्वान् ! (त्वम्) आप इस संसार में जो (विचेतसः) विविधं चेतः शास्त्रोक्तबोधयुक्त्ता प्रज्ञा येषां ते=नाना प्रकार के शास्त्रोक्त ज्ञानयुक्त (श्रुष्टीवानः) ये श्रुष्टी शीघ्रं वनन्ति संभजन्ति ते= यथार्थ विद्या के सेवन करनेवाले (देवाः) दिव्यगुणा विद्वांसः= दिव्य गुणवाले विद्वान्, (दाशुषे) दानशीलाय पुरुषार्थिन जनाय= दानशील पुरुषार्थी मनुष्य के लिये सुख देते हैं (तान्) उन (त्रयस्त्रिंशतम्) एतत्संख्याकान् पृथिव्यादीन्= भूमि आदि तैंतीस दिव्य गुण वालों को (हि) निश्चय करके (आवह) प्राप्त करें ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जब विद्वान् लोग विद्यार्थियों में तैंतीस देवों की विद्या को अच्छे प्रकार साक्षात्कार कराते हैं, तब वे बिजली आदि अनेक पदार्थों से उत्तम-उत्तम व्यवहारों को सिद्ध कर सकते हैं ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (रोहिदश्व) वेग आदि गुणों से युक्त अश्ववाले, (गिर्वणः) वाणियों से अच्छीतरह से पूजा करनेवाले (अग्ने) विद्वान् ! (त्वम्) आप इस संसार में (विचेतसः) नाना प्रकार के शास्त्रों में कहे गये ज्ञान से युक्त, (श्रुष्टीवानः) यथार्थ विद्या के सेवन करनेवाले, (देवाः) दिव्य गुणवाले विद्वान् [और] (दाशुषे) दानशील पुरुषार्थी मनुष्य के लिये सुख देते हैं। [वे] (तान्) उन (त्रयस्त्रिंशतम्) भूमि आदि तैंतीस दिव्य गुण वाले देवों को (हि) निश्चय से ही (आवह) प्राप्त करें ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (श्रुष्टीवानः) ये श्रुष्टी शीघ्रं वनन्ति संभजन्ति ते। श्रुष्टी इति पदना०। निघं० ४।३। (हि) खलु (दाशुषे) दानशीलाय पुरुषार्थिन जनाय (देवाः) दिव्यगुणा विद्वांसः (अग्ने) विद्वन् (विचेतसः) विविधं चेतः शास्त्रोक्तबोधयुक्त्ता प्रज्ञा येषां ते (तान्) देवान् (रोहिदश्व) रोहितोऽश्वा वेगादयो गुणा यस्य तत्सम्बुद्धौ (गिर्वणः) यो गीर्भिर्वन्यते सम्भज्यते तत्सम्बुद्धौ (त्रयस्त्रिंशतम्) एतत्संख्याकान् पृथिव्यादीन् (आ) आभिमुख्ये (वह) प्राप्नुहि ॥२॥ विषयः- पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे रोहिदश्व गिर्वणोऽग्ने ! त्वमिह ये विचेतसः श्रुष्टीवानो देवा दाशुषे सुखं प्रयच्छन्ति तान् त्रयस्त्रिंशतं देवानावह ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदा विद्वांसो विद्यार्थिने त्रयस्त्रिंशतो देवानां विद्याः साक्षात्कारयन्ति तदैते विद्युत्प्रमुखैः पदार्थैरनेकानुत्तमान्व्यवहारान्साधितुं शक्नुवन्ति ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा विद्वान लोक विद्यार्थ्यांना तेहतीस देव अर्थात पृथ्वी इत्यादी तेहतीस पदार्थांच्या विद्येला चांगल्या प्रकारे साक्षात्कार करवितात तेव्हा ते विद्युत इत्यादी अनेक पदार्थांनी उत्तम व्यवहाराची सिद्धी करू शकतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light, knowledge and power of the world, moving at lightning speed of the red flames of fire, bring here for the generous man of charity and brilliant piety the thirty-three divinities of the universe such as earth and vital airs which are givers of light and intelligence and which instantly bring up the blessings of life.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (rohidaśva)=horsemen with qualities like speed etc., (girvaṇaḥ)= good worshipers with their speech, (agne)=scholar, (tvam)=you in this world, (vicetasaḥ)=full of knowledge from various scriptures, (śruṣṭīvānaḥ)=realists, (devāḥ)=scholars of divine virtues, [aura]=and, (dāśuṣe) =provide happiness to charitable person, [ve]=they, (tān) =to those, (trayastriṃśatam) to those earth etc. thirty-three deities with divine virtues, (hi) =certainly, (āvaha) =obtain.
English Translation (K.K.V.)
O scholar with speed of horseman’s qualities, who worships well with words! You provide happiness in this world to the person who is full of knowledge, told in different types of scriptures; who uses accurate knowledge, is a scholar with divine qualities and is a charitable man. They should, certainly obtain those earth et cetera thirty-three deities with divine virtues.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
When learned people impart the knowledge of thirty-three deities to the students in a good way, then they can accomplish the best behaviour with many things like electricity et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should he (Agni) do is further taught in the 2nd Manta.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned and respectable person, the enlightened persons of divine virtues, who are active, doing their works soon, who possess intelligence full of Shastric knowledge certainly give happiness to the industrious men of charitable disposition. O man of speedy vehicles, attain and give the knowledge of thirty-three devas ( earth and others) to your pupils and other seekers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( श्रुष्टीवान: ) ये श्रुष्टी शीघ्र वनन्ति संभजन्ति ते । श्रुष्टी इतिपदनाम ( निघ० १.३ ) = Those persons who are active and discharge their duties quickly. ( रोहिदश्व ) रोहित: अश्वा वेगादयो गुणा यस्य तत्सम्बुद्धौ = Possessing speed and other qualities.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When learned scientists give the correct and clear knowledge of thirty-three devas ( divine or useful objects) to their pupils, they are able to accomplish many good works with the help of electricity and other substances.
Translator's Notes
श्रुष्टी इति पदनाम ( निघ० १.३ ) पद -गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र शीघ्रगमनार्थग्रहणम् Prof. Wilson has translated श्रुष्टीवान: as discriminating on what authority, we do not know. It is not in accordance with Sayanacharya's commentary also which he has generally followed. Griffith translates it as “ those who understand this" This also cannot be correct, as there is another clear adjective प्रचेतसः meaning full of knowledge or wise. By 33 devas are meant 8 Vasus 11 Rudras 12 Adityas, Indra (electricity) and Prajapati or Yajna as mentioned in the Shatapath Brahmana, which has been quoted before.
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