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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निर्देवाः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    महि॑केरव ऊ॒तये॑ प्रि॒यमे॑धा अहूषत । राज॑न्तमध्व॒राणा॑म॒ग्निं शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    महि॑ऽकेरवः । ऊ॒तये॑ । प्रि॒यऽमे॑धाः । अ॒हू॒ष॒त॒ । राज॑न्तम् । अ॒ध्व॒राणा॑म् । अ॒ग्निम् । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महिकेरव ऊतये प्रियमेधा अहूषत । राजन्तमध्वराणामग्निं शुक्रेण शोचिषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महिकेरवः । ऊतये । प्रियमेधाः । अहूषत । राजन्तम् । अध्वराणाम् । अग्निम् । शुक्रेण । शोचिषा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (महिकेरवः) महयो महान्तः केरवः कारवः शिल्पविद्यासाधका येषां ते। अत्र कृञ् धातोरुण् प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेन अकारस्य एकारश्च। (ऊतये) रक्षणाद्याय (प्रियमेधाः) सत्यविद्याशिक्षाप्रापिका प्रिया मेधा येषां ते (अहूषत) उपदिशत। अत्र लोडर्थे लुङ्। (राजन्तम्) प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) अहिंसनीयव्यवहाराख्यकर्मणाम् (अग्निम्) पावकवद्विद्वांसम् (शुक्रेण) शीघ्रकरेण (शोचिषा) पवित्रेण विज्ञानेन ॥४॥

    अन्वयः

    पुनर्विद्वांसस्तं कस्मै प्रयुंजीरन्नित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे महाविद्वांसो महिकेरवः प्रियमेधाः ! यूयमध्वराणामूतये शुक्रेण शोचिषा सह राजन्तमग्निमहूषत ॥४॥

    भावार्थः

    नहि कश्चिद्धार्मिकविंद्वत्सङ्गेन विना परमोत्तमव्यवहाराणां सिद्धिं कर्त्तुं शक्नोति तस्मात्सर्वैरेतेषां संगेन सकला विद्याः साक्षात्कर्त्तव्याः ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग उसको किसके लिये प्रेरणा करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे महाविद्वानो ! (महिकेरवः) जिनके बड़े-२ शिल्प विद्या के सिद्ध करनेवाले कारीगर हों ऐसे (प्रियमेधाः) सत्य विद्या वा शिक्षाओं की प्राप्त कराने वाली मेधा बुद्धि युक्त आप लोग (अध्वराणाम्) पालनीय व्यवहाररूपी कर्मों की (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (शुक्रेण) शुद्ध शीघ्रकारक (शोचिषा) तेज से (राजन्तम्) प्रकाशमान (अग्निम्) प्रसिद्ध वा बिजुली रूप आग के सदृश सभापति को (अहूषत) उपदेश वा उससे श्रवण किया करो ॥४॥

    भावार्थ

    कोई मनुष्य धार्मिक बुद्धिमानों के सङ्ग के विना उत्तम-२ व्यवहारों की सिद्धि करने को समर्थ नहीं हो सकता इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि इनके सङ्ग से इन विद्याओं को साक्षात्कार अवश्य करें ॥४॥

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    विषय

    महिकेरु - प्रियमेध

    पदार्थ

    १. (महिकेरवः) - महनीय - उत्तम कर्मों को सुन्दरता से करनेवाले (प्रियमेधः) - प्रिय बुद्धि व यज्ञोंवाले लोग (अध्वराणाम्) - यज्ञों की (ऊतये) - रक्षा के लिए (शुक्रेण) - देदीप्यमान (शोचिषा) - तेजस्विता व ज्ञान की दीप्ति से (राजन्तम्) - चमकते हुए (अग्निम्) - सब उत्तम कर्मों को आगे ले - चलनेवाले उस प्रभु को (अहूषत) - पुकारते हैं ।
    २. "विश्वामित्र" यज्ञ करते थे तो 'राम' उस यज्ञ के रक्षण के लिए उपस्थित थे । यज्ञ न होता तो रक्षण किस वस्तु का होता ? इसी प्रकार हम यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं तो उस प्रभु के उन यज्ञों के रक्षण के लिए पुकारने के पात्र होते हैं । 
    ३. 'महिकेरु - प्रियमेध' लोग यज्ञ करते हैं और शुक्र - शोचि से देदीप्यमान प्रभु उस यज्ञ का रक्षण करते हैं । 
    ४. मनुष्य का आदर्श यह है कि वह 'महिकेरु - प्रियमेध' हो - महनीय, उत्तम कर्मों को करनेवाला, बुद्धि को प्रियवस्तु समझनेवाला व यज्ञरुचि हो । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम यज्ञ करें, प्रभु हमारे यज्ञों के रक्षक हों । 

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    विषय

    प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (

    भावार्थ

    (महिकेरवः) बड़े बड़े कार्यों को करने वाले विद्वान् एवं शिल्पीगण और (प्रियमेधाः) सबको संन्तुष्ट करनेवाली, मनोहर बुद्धियों से युक्त पुरुष भी (अध्वराणाम्) अवध्य, अति प्रबल राजाओं के बीच में (अग्निं) ज्ञानी, प्रतापी और (शुक्रेण) अति शुक्ल, निष्पाप, अति उज्वल (शोचिषा) तेज से (राजन्तम्) चमकनेवाले अति तेजस्वी, प्रतापी धर्मात्मा पुरुष को (ऊतये) अपनी रक्षा के लिए (अहूषत) प्रधान राजा रूप से स्वीकार करें। इसी प्रकार विद्वान्जन रक्षा और ज्ञान के लिए ज्ञानी गुरु और परमेश्वर की स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    फिर विद्वान् लोग उसको किसके लिये प्रेरणा करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे महाविद्वांसः महिकेरवः प्रियमेधाः ! यूयम् अध्वराणाम् ऊतये शुक्रेण शोचिषा सह राजन्तम् अग्निम् अहूषत ॥४॥

    पदार्थ

    हे (महाविद्वांसः)= महाविद्वानो ! (महिकेरवः) महयो महान्तः केरवः कारवः शिल्पविद्यासाधका येषां ते= जिनके बड़े- बड़े शिल्प विद्या के सिद्ध करनेवाले कारीगर हों ऐसे (प्रियमेधाः) सत्यविद्याशिक्षाप्रापिका प्रिया मेधा येषां ते= सत्य विद्या और शिक्षाओं की प्राप्त कराने वाली मेधा बुद्धिवाले, (यूयम्)=आप लोग, (अध्वराणाम्) अहिंसनीयव्यवहाराख्यकर्मणाम्=अहिंसनीय व्यवहार नाम के कर्मों की, (ऊतये) रक्षणाद्याय=रक्षा केलिये, (शुक्रेण) शीघ्रकरेण=शीघ्रता से, (शोचिषा) पवित्रेण विज्ञानेन=पवित्र विशेष ज्ञान के, (सह)=साथ, (राजन्तम्) प्रकाशमानम्= प्रकाशमान, (अग्निम्) पावकवद्विद्वांसम्=पवित्र करनेवाले विद्वान, (अहूषत) उपदिशत= उपदेश किया करो ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    किसी धार्मिक विद्वान् की सङ्गति के विना परम उत्तम व्यवहारों की सिद्धि नहीं की जा सकती है, इसलिये सब मनुष्यों को इनकी सङ्गति से समस्त विद्याओं को पूरी तरह से जानना चाहिए ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (महाविद्वांसः) महाविद्वानो ! (महिकेरवः) जिनके बड़े-बड़े शिल्प विद्या के सिद्ध करनेवाले कारीगर हों, [ऐसे] (प्रियमेधाः) सत्य विद्या और शिक्षाओं की प्राप्त कराने वाली मेधा बुद्धिवाले (यूयम्) आप लोग, (अध्वराणाम्) अहिंसनीय व्यवहार के कर्मों की (ऊतये) रक्षा केलिये (शुक्रेण) शीघ्रता से (शोचिषा) पवित्र विशेष ज्ञान के, (सह)=साथ (राजन्तम्) प्रकाशमान का (अग्निम्) पवित्र करनेवाले विद्वान (अहूषत) उपदेश किया करो ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (महिकेरवः) महयो महान्तः केरवः कारवः शिल्पविद्यासाधका येषां ते। अत्र कृञ् धातोरुण् प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेन अकारस्य एकारश्च। (ऊतये) रक्षणाद्याय (प्रियमेधाः) सत्यविद्याशिक्षाप्रापिका प्रिया मेधा येषां ते (अहूषत) उपदिशत। अत्र लोडर्थे लुङ्। (राजन्तम्) प्रकाशमानम् (अध्वराणाम्) अहिंसनीयव्यवहाराख्यकर्मणाम् (अग्निम्) पावकवद्विद्वांसम् (शुक्रेण) शीघ्रकरेण (शोचिषा) पवित्रेण विज्ञानेन ॥४॥ विषयः - पुनर्विद्वांसस्तं कस्मै प्रयुंजीरन्नित्युपदिश्यते। अन्वयः - हे महाविद्वांसो महिकेरवः प्रियमेधाः ! यूयमध्वराणामूतये शुक्रेण शोचिषा सह राजन्तमग्निमहूषत ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि कश्चिद्धार्मिकविंद्वत्सङ्गेन विना परमोत्तमव्यवहाराणां सिद्धिं कर्त्तुं शक्नोति तस्मात्सर्वैरेतेषां संगेन सकला विद्याः साक्षात्कर्त्तव्याः ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणताही माणूस धार्मिक बुद्धिमानांच्या संगतीशिवाय उत्तम व्यवहार सिद्ध करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी त्यांच्या संगतीने विद्यांचा साक्षात्कार अवश्य करावा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Great artists and men, who love intelligence, industry and research for the sake of progress and protection, invoke, study and explain agni, fire and electricity, brilliant power of creative and constructive yajnic programmes blazing with instant energy.

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    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (mahāvidvāṃsaḥ) =great scholars, (mahikeravaḥ)=whose artisans are masters of great craftsmanship, [aise]=such, (priyamedhāḥ)=Intelligent minded person who acquires true knowledge and teachings, (yūyam)=you people, (adhvarāṇām)=of deeds of nonviolent behavior, (ūtaye) =for protection, (śukreṇa)=rapidly, (śociṣā)=of holy special knowledge, (saha)=with, (rājantam) =of radiant, (agnim)= sanctifying scholar, (ahūṣata)= make a sermon.

    English Translation (K.K.V.)

    Hey great scholars! You people, whose artisans are masters of great craftsmanship, such as those who are the ones who attain true knowledge and teachings to protect the deeds of non-violent behaviour, quickly preach the scholar who sanctifies the light with special knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the communion of a righteous scholar, the best practices cannot be achieved, therefore all human beings should learn all the knowledge thoroughly through their communion.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons, you who are accomplishers of great industrial works, who possess highly developed intellect that leads to true knowledge and education, for the protection of all Yajnas and inviolable dealings, call a learned person who is purifier like the fire, and who is shining with prompt and pure scientific knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (महिकेरवः) महयः-महान्तः केरवः-कारवः शिल्पविद्यासाधका येषां ते अत्र कृत् धातोः उण् प्रत्ययः वर्णव्यत्ययेनेकारस्य एकारश्च = Those who are accomplishers of great industrial works under them. ( प्रियमेधाः ) सत्यविद्याशिक्षा प्रापिका प्रिया मेधा येषां ते = Those whose dear intellect leads to true knowledge and education. (शोचिषा) पवित्रेण विज्ञानेन = With pure knowledge ( Scientific and spiritual).

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can accomplish good works without the association of the righteous and learned persons. Therefore, all should acquire thorough knowledge of all sciences with their association.

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