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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निर्देवाः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्रा॒त॒र्याव्णः॑ सहस्कृत सोम॒पेया॑य सन्त्य । इ॒हाद्य दैव्यं॒ जनं॑ ब॒र्हिरा सा॑दया वसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒तः॒ऽयाव्नः॑ । स॒हः॒ऽकृ॒त॒ । सो॒म॒ऽपेया॑य । स॒न्त्य॒ । इ॒ह । अ॒द्य । दैव्य॑म् । जन॑म् । ब॒र्हिः । आ । सा॒द॒य॒ । व॒सो॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातर्याव्णः सहस्कृत सोमपेयाय सन्त्य । इहाद्य दैव्यं जनं बर्हिरा सादया वसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातःयाव्नः । सहःकृत । सोमपेयाय । सन्त्य । इह । अद्य । दैव्यम् । जनम् । बर्हिः । आ । सादय । वसो इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (प्रातर्याव्णः) ये प्रातः प्रतिदिनं यान्ति पुरुषार्थं गच्छन्ति तान् (सहस्कृत) सहो बलं कृतं येन तत्सम्बुद्धौ (सोमपेयाय) यः सोमो रसश्च पेयः पातुं योग्यश्च तैस्मै (संत्य) सनन्ति सम्भजन्ति ये ते सन्तस्तेषु साधो (इह) अस्मिन् विद्याव्यवहारे (अद्य) अस्मिन् दिने (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु कुशलम् (जनम्) पुरुषार्थयुक्तं धार्मिकं विपश्चितम् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आ) समन्तात् (सादय) आसय। अत्र अन्येषामपि० इति दीर्घः। (वसो) यः श्रेष्ठेषु गुणेषु वसति तत्संबुद्धौ ॥९॥

    अन्वयः

    एतदनुष्ठाता मनुष्यः कस्मै किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे सहस्कृत सन्त्य वसो विद्वँस्त्वमिहाद्य सोमपेयाय प्रातर्याव्णो दैव्यं जनं बर्हिश्चासादय ॥९॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या उत्तमगुणेभ्यो मनुष्येभ्य एवोत्तमानि वस्तूनि ददति तादृशानां सङ्गः सर्वैः कार्य्यः न हि कश्चिदपि विद्यापुरुषार्थयुक्तानां संगोपदेशाभ्यां विना दिव्यानि सुखानि प्राप्तुमर्हति ॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    इसके अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य किसके लिये क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (सहस्कृत) सबको सिद्ध करने (सन्त्य) जो संभजनीय क्रियाओं में कुशल विद्वानों में सज्जन (वसो) श्रेष्ठ गुणों में वसनेवाले विद्वान् ! तू (इह) इस विद्या व्यवहार में (अद्य) आज (सोमपेयाय) सोम रस के पीने के लिये (प्रातर्याव्णः) प्रातःकाल पुरुषार्थ को प्राप्त होनेवाले विद्वानों और (दैव्यम्) विद्वानों में कुशल (जनम्) पुरुषार्थ युक्त धार्मिक मनुष्य और (बर्हिः) उत्तम आसन को (आसादय) प्राप्त कर ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य उत्तम गुण युक्त मनुष्यों ही को उत्तम वस्तु देते हैं ऐसे मनुष्यों ही का संग सब लोग करें कोई भी मनुष्य विद्या वा पुरुषार्थ युक्त मनुष्यों के संग वा उपदेश के विना पवित्र गुण वस्तुओं और सुखों को प्राप्त नहीं हो सकता ॥९॥

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    विषय

    सोमपान से सहस् की उत्पत्ति

    पदार्थ

    १. हे (सहस्कृत) - सहस् के द्वारा उत्पन्न, अर्थात् जिन आपका प्रादुर्भाव हमारे हृदयों में तभी होता है जबकि हम 'सहस्' वाले बनते हैं । आनन्दमयकोश की शक्ति का नाम ही "सहस्" है ; प्रभु का दर्शन 'सहस्' से ही होता है । निर्बल व चिड़चिड़े पुरुष को प्रभु का प्रकाश प्राप्त नहीं होता । हे (सन्त्य) - उत्तमोत्तम साधनभूत वस्तुओं के प्राप्त करानेवाले प्रभो ! आप (इह) - इस मानव - जीवन में (अद्य) - आज और अब (सोमपेयाय) - सोम का पालन करने के लिए, सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखने के लिए (दैव्यं जनम्) - देववृत्तिवाले पुरुषों को (बहिः) - यज्ञों में (आसादय) - प्राप्त कराइए । वस्तुतः यज्ञों में लगे रहना ही वह उपाय है जोकि मनुष्यों को वासनाओं का शिकार नहीं होने देता और इस प्रकार उसे सोम का रक्षण करने के योग्य बनाता है । हे (वसो) - हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! आप (प्रातर्याव्णः) - प्रातः से ही कर्मों में लगनेवाले इन लोगों को (बर्हिः आसादय) - यज्ञों में प्राप्त कराइए । यह कहा जा चुका है कि सोमरक्षण के लिए कर्मशीलता, यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे रहना आवश्यक है । उसी बात पर बल देने के लिए 'प्रातर्याव्णः' शब्द का प्रयोग है - प्रातः से ही कर्मों में व्याप्त हो जाना कर्मों में लग जाना, इसलिए नितान्त आवश्यक है कि जरा खाली हुए और वासनाओं का आक्रमण हुआ । साथ ही प्रातः जागरण भी आवश्यक है । वेद में अन्यत्र कहा गया है कि प्रातः सोये हुओं के तेज को सूर्य अपहत कर लेता है । ३. 'प्रातः उठना व यज्ञादि कर्मों में लगे रहना' ही मनुष्य को 'सोमपान' करनेवाला बनाता है । सोमपान से शक्ति व सहस् उत्पन्न होता है । इस सहस् की उत्पत्ति से हमें प्रभुदर्शन होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रातः उठें, कार्यों में लगे रहें [समारम्भ ही हमारा ध्येय हो] । सोम रक्षण द्वारा सहस् वाले बनें । हमारे हृदयों में प्रभु का प्रकाश होगा ।

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    विषय

    प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (

    भावार्थ

    हे (सहस्कृत) बल को सम्पादन करने वाले! हे (सन्त्य) सज्जनो में कुशल! हे (वसो) श्रेष्ठ गुणों में वसने वाले विद्वन्! (इह) यहां (अद्य) इस काल में (प्रातर्याव्णः) प्रातः ही आकर उपस्थित होने वाले शिष्य गणों और (दैव्यं जनम्) विद्वानों के प्रिय पुरुष को भी (सोमपेयाय) ओषधि रसपान के लिये वैद्य जिस प्रकार रोगियों को आदर से बैठाता है उसी प्रकार (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आसादय) बैठा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    इसके विद्या व्यवहार में अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य सोम रस के पीने के लिये लिये क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सहस्कृत सन्त्य वसो विद्वन् त्वम् इह अद्य सोमपेयाय प्रातर्याव्णः दैव्यं जनं बर्हिः च आसादय ॥९॥

    पदार्थ

    हे (सहस्कृत) सहो बलं कृतं येन तत्सम्बुद्धौ= जिसने सबको बलशाली बनाया है, ( सन्त्य) सनन्ति सम्भजन्ति ये ते सन्तस्तेषु साधो= उन साधुओं में जो प्रदान करने का कार्य करते हैं, (वसो) यः श्रेष्ठेषु गुणेषु वसति तत्संबुद्धौ=जिसमें श्रेष्ठ गुण रहते हैं, ऐसे (विद्वन्)= विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (इह) अस्मिन् विद्याव्यवहारे=इस विद्या के व्यवहार में, (अद्य) अस्मिन् दिने=आज के दिन, (सोमपेयाय) यः सोमो रसश्च पेयः पातुं योग्यश्च तैस्मै=जो सोम का रस पीने के योग्य है, उसके लिये, (प्रातर्याव्णः) ये प्रातः प्रतिदिनं यान्ति पुरुषार्थं गच्छन्ति तान्=जो प्रतिदिन जाकर पुरुषार्थ करते हैं, (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु कुशलम्= देवों और विद्वानों में कुशल, (जनम्) पुरुषार्थयुक्तं धार्मिकं विपश्चितम्= पुरुषार्थी धार्मिक विद्वान् ब्राह्मण, (बर्हिः) उत्तमासनम्= उत्तम आसन को, (च)=भी, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (सादय) आसय=बैठे ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य उत्तम गुणों से युक्त मनुष्यों के लिये उत्तम वस्तु देते हैं, ऐसे मनुष्यों के साथ कोई भी मनुष्य विद्या और पुरुषार्थ से युक्त मनुष्यों के साथ और उपदेश के विना सब कार्य और पवित्र गुण दिव्य सुखों को प्राप्त करने के योग्य नहीं होता है ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सहस्कृत) सबको बलशाली बनानेवाले, (सन्त्य) साधुओं में प्रदान करने का कार्य करनेवाले [और] (वसो) श्रेष्ठ गुणवाले (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (इह) इस विद्या के व्यवहार में (अद्य) आज के दिन ही (सोमपेयाय) सोम का रस पीने के योग्य वालों लिये, (प्रातर्याव्णः) जो प्रतिदिन जाकर पुरुषार्थ करते हैं, [ऐसे] (दैव्यम्) देवों और विद्वानों में कुशल, (जनम्) पुरुषार्थी धार्मिक विद्वान् ब्राह्मण (बर्हिः) उत्तम आसन पर (च)भी (आ) हर ओर से (सादय) बैठें ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (प्रातर्याव्णः) ये प्रातः प्रतिदिनं यान्ति पुरुषार्थं गच्छन्ति तान् (सहस्कृत) सहो बलं कृतं येन तत्सम्बुद्धौ (सोमपेयाय) यः सोमो रसश्च पेयः पातुं योग्यश्च तैस्मै (संत्य) सनन्ति सम्भजन्ति ये ते सन्तस्तेषु साधो (इह) अस्मिन् विद्याव्यवहारे (अद्य) अस्मिन् दिने (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु कुशलम् (जनम्) पुरुषार्थयुक्तं धार्मिकं विपश्चितम् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आ) समन्तात् (सादय) आसय। अत्र अन्येषामपि० इति दीर्घः। (वसो) यः श्रेष्ठेषु गुणेषु वसति तत्संबुद्धौ ॥९॥ विषयः - एतदनुष्ठाता मनुष्यः कस्मै किं कुर्यादित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे सहस्कृत सन्त्य वसो विद्वँस्त्वमिहाद्य सोमपेयाय प्रातर्याव्णो दैव्यं जनं बर्हिश्चासादय ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्या उत्तमगुणेभ्यो मनुष्येभ्य एवोत्तमानि वस्तूनि ददति तादृशानां सङ्गः सर्वैः कार्य्यः न हि कश्चिदपि विद्यापुरुषार्थयुक्तानां संगोपदेशाभ्यां विना दिव्यानि सुखानि प्राप्तुमर्हति ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे उत्तम गुणयुक्त माणसांनाच उत्तम वस्तू देतात अशा माणसांचा संग सर्व लोकांनी करावा. कोणताही माणूस विद्या किंवा पुरुषार्थयुक्त माणसांचा संग किंवा उपदेश याशिवाय पवित्र गुण, पवित्र वस्तू व शुद्ध सुख प्राप्त करू शकत नाही. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Noble genius of light and knowledge, Agni, generous creator of strength, courage and endurance, holy shelter for the seekers, here and now institute the yajna and seat the lovers of divinity and morning pilgrims of yajna on the sacred grass to join the yajna for a drink of soma.

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    Subject of the mantra

    In this mantra, what should a man who performs rituals do in order to drink som juice, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sahaskṛta)=the one who makes everyone strong, (santya)= benefactors among sages, [aura]=and, (vaso)=having excellent quality, (vidvan)=scholar, (tvam) =you, (iha)= in the practice of this vidya, (adya) =today itself, (somapeyāya)=for those who are able to drink the juice of Soma, (prātaryāvṇaḥ)=those who go every day and make effort, [aise]=such, (daivyam)=skilled among deities and scholars, (janam)=one engaged with efforts and righteous scholar Brahmin, (barhiḥ)=on the best seat, (ca) =also, (ā) =from all sides, (sādaya) =must sit.

    English Translation (K.K.V.)

    O the one who makes everyone strong, the one who does the work of bestowing among the sages and the scholar with the best qualities! For those who are able to drink the juice of Soma in the practice of this vidya, who go and make effort every day. Among such deities and scholars, skilful, hard-working righteous scholars, Brahmins sit on best seats from all sides.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those people who give the best things to people with good qualities, along with such people, no person is capable of attaining divine happiness without doing all the work and sacred qualities, along with people with knowledge and efforts and without preaching.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mighty, bounteous good learned person dwelling in noble qualities, here place on high seat (in this dealing or work of diffusing knowledge) persons who go to work in the morning and industrious, righteous, divine, experts among the educated for drinking Soma (the strengthening juice of the herbs and plants.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [वसो] यः श्रेष्ठेषु गुणेषु वसति तत्सम्बुद्धौ = Dwelling in noble qualities. [ देव्यम् ] देवेषु विद्वत्सु कुशलम् = An expert among the learned.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should associate themselves only with those who give good things in charity to virtuous persons. None can enjoy divine happiness without the association and instructions of the persons endowed with knowledge and exertion.

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