ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
तं गू॒र्तयो॑ नेम॒न्निषः॒ परी॑णसः समु॒द्रं न सं॒चर॑णे सनि॒ष्यवः॑। पतिं॒ दक्ष॑स्य वि॒दथ॑स्य॒ नू सहो॑ गि॒रिं न वे॒ना अधि॑ रोह॒ तेज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । गू॒र्तयः॑ । ने॒म॒न्ऽइषः॑ । परी॑णसः । स॒मु॒द्रम् । न । स॒म्ऽचर॑णे । स॒नि॒ष्यवः॑ । पति॑म् । दक्ष॑स्य । वि॒दथ॑स्य । नु । सहाः । गि॒रिम् । न । वे॒नाः । अधि॑ । रो॒ह॒ । तेज॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं गूर्तयो नेमन्निषः परीणसः समुद्रं न संचरणे सनिष्यवः। पतिं दक्षस्य विदथस्य नू सहो गिरिं न वेना अधि रोह तेजसा ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। गूर्तयः। नेमन्ऽइषः। परीणसः। समुद्रम्। न। सम्ऽचरणे। सनिष्यवः। पतिम्। दक्षस्य। विदथस्य। नु। सहः। गिरिम्। न। वेनाः। अधि। रोह। तेजसा ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे कन्ये ! त्वं संचरणे सनिष्यवः समुद्रं नद्यो न गिरिं न परीणसो नेमन्निषो गूर्त्तयो धीमत्यो ब्रह्मचारिण्यो वेना मेधाविनो ब्रह्मचारिणः समावर्त्तनात् पश्चात् परस्परं प्रीत्या विवाहं कुर्वन्तु, दक्षस्य विदथस्य विदुषः सकाशात् प्राप्तविद्यां पतिमधिरोह तं तेजसा प्राप्य सहो नु प्राप्नुहि ॥ २ ॥
पदार्थः
(तम्) पूर्वोक्तम् (गूर्त्तयः) उद्यमयुक्ताः कन्याः (नेमन्निषः) नीयन्त इष्यन्ते च यास्ताः (परीणसः) बह्व्यः। परीणस इति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (समुद्रम्) सागरम् (न) इव (संचरणे) सङ्गमने (सनिष्यवः) संविभागमिच्छवः (पतिम्) स्वामिनम् (दक्षस्य) चतुरस्य (विदथस्य) विज्ञानयुक्तस्य (नु) शीघ्रम् (सहः) बलम् (गिरिम्) मेघम् (न) इव (वेनाः) मेधाविनः। वेन इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (अधि) उपरिभावे (रोह) (तेजसा) प्रतापेन ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारौ। सर्वैर्बालकैः कन्याभिश्च यथाविधिसेवितेन ब्रह्मचर्य्येणाऽखिला विद्या अधीत्य पूर्णयुवावस्थायां तुल्यगुणकर्मस्वभावान् परीक्ष्यान्योन्यमतिप्रेमोद्भवानन्तरं विवाहं कृत्वा पुनर्यदि पूर्णविद्यास्तर्हि बालिका अध्यापयेयुः। क्षत्रियवैश्यशूद्रवर्णयोग्याश्चेत्तर्हि स्व-स्ववर्णोचितानि कर्माणि कुर्य्युः ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे कन्ये ! तू (संचरणे) अच्छे प्रकार समागम में (न) जैसे (सनिष्यवः) सम्यक् विविध सेवन करनेहारी नदियाँ (समुद्रम्) सागर को प्राप्त होती और (न) जैसे बादल (गिरिम्) मेघ को प्राप्त होते हैं, वैसे जो (परीणसः) बहुत (नेमन्निषः) प्राप्त होने योग्य इष्ट सुखदायक (गूर्त्तयः) उद्यमयुक्त बुद्धिमती ब्रह्मचारिणी और (वेनाः) बुद्धिमान् ब्रह्मचारी लोग समावर्त्तन के पश्चात् परस्पर प्रीति के साथ विवाह करें (दक्षस्य) हे कन्ये ! तू सब विद्याओं में अतिचतुर (विदथस्य) पूर्णविद्यायुक्त विद्वान् से विद्या को प्राप्त हुए (पतिम्) स्वामी को (अधिरोह) प्राप्त हो (तेजसा) अतीव तेज से (तम्) उसको प्राप्त हो के (सहः) बल को (नु) शीघ्र प्राप्त हो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब लड़के और लड़कियों को योग्य है कि यथोक्त ब्रह्मचर्य्य के सेवन से सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ के पूर्ण युवावस्था में अपने तुल्य, गुण कर्म और स्वभाववाले परस्पर परीक्षा करके अतीव प्रेम के साथ विवाह कर पुनः जो पूर्ण विद्यावाले हों तो लड़के लड़कियों को पढ़ाया करें, जो क्षत्रिय हों तो राजपालन और न्याय किया करें, जो वैश्य हों तो अपने वर्ण के कर्म और जो शूद्र हों तो अपने कर्म किया करें ॥ २ ॥
विषय
तेजस्विता व प्रभु - प्राप्ति
पदार्थ
१. (तम्) = उस परमात्मा को [अधिरोहन्ति] प्राप्त होते हैं वे व्यक्ति जो - [क] (गूर्तयः) = [गृणन्ति] स्तुति करनेवाले हैं अथवा [गुरी उद्यमने] उद्योगशील हैं, [ख] (नेमन् इषः) = [नमन्तः इष्यन्ति] नम्रता से उसके चरणों में आनेवाले अथवा [नीताः इषः यैः] हवि को प्राप्त करनेवाले [ग] (परिणसः) = [परितो नसन्ति] चारों ओर कर्मों में व्याप्त गतिवाले हैं । ये प्रभु को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं (न) = जैसे कि (सनिष्यवः) व्यापार आदि से धनों को प्राप्त करने की कामनावाले (संचरणे) = व्यापार [Transactions] के निमित्त (समुद्रम्) = समुद्र को प्राप्त होते हैं । यहाँ प्रसङ्गवश धन - वृद्धि के लिए देश - देशान्तर से व्यापार का सुन्दर संकेत है । २. हे जीव ! तू (दक्षस्य) = सम्पूर्ण वृद्धियों के, शक्तियों के तथा (विदथस्य) = ज्ञानों के (पतिम्) = स्वामी (सहः) = बल के पुञ्ज उस प्रभु को (तेजसा) = तेजस्विता के द्वारा, तेजस्विता को सिद्ध करके (अधिरोह) = आरूढ़ [प्राप्त] होनेवाला बन । (न) = जिस प्रकार (वेनाः) = पुष्पादि की कामनावाली स्त्रियाँ (गिरिम्) = पर्वत पर आरूढ़ होती हैं । फूलों के चयन के लिए जिस प्रकार वे पर्वत को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार तु बल [दक्ष] तथा ज्ञान [विदथ] की प्राप्ति के लिए उस प्रभु को प्राप्त कर । प्रभु - प्राप्ति के लिए तू तेजस्वी बन । प्रभु - प्राप्ति भी पर्वतारोहण की भाँति कठिन है, उसके लिए शक्ति का सम्पादन आवश्यक है । निर्बल व्यक्ति प्रभु को प्राप्त नहीं किया करता ।
भावार्थ
भावार्थ - स्तोता, हविष्मान् व व्यापक कर्मोंवाले बनकर तेजस्विता को सिद्ध करते हुए हम प्रभु को प्राप्त करें ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
( गूर्त्तयः ) उद्यमशील या उपदेशों से युक्त, (नेमन्निषः) लज्जा से विनीत और हृदय से पति को चाहनेवाली, (परि-नणसः) शुभनासिकावाली सुन्दर स्त्रियां जिस प्रकार (पतिम्) पति को प्राप्त होती हैं। और (न) जिस प्रकार (सनिष्यवः) उत्तम रीति से भोगने योग्य ऐश्वर्य को चाहनेवाले धनाभिमानी पुरुष (संचरणे) परदेश में जाने के लिए ( समुद्रं ) समुद्र का आश्रय लेते हैं, अथवा (संचरणे) अपने मार्गों पर चलते समय (सनिष्यवः ) पृथक् पृथक् बटे हुए मार्गों का स्वीकार करनेवाली नदियाँ (समुद्रं न ) पुनः समुद्र को प्राप्त होती हैं और (वेनाः) विद्वान् पुरुष जिस प्रकार ( गिरिं न ) पर्वत के समान अचल और ज्ञानोपदेश के करनेवाले मेघ के समान अचल ज्ञानवर्ती गुरु को ( तेजसा ) ब्रह्मचर्य के तेज से युक्त होकर प्राप्त होते हैं, और ( वेनाः ) कामनाशील स्त्रियां जिस प्रकार विवाह के अवसर पर ( तेजसा ) बड़े साहस से ( गिरिं न ) शिलाखण्ड पर पैर रख देती हैं उसी प्रकार (गूर्त्तयः) स्तुतिशील (नेमन्-इषः) आदर से झुकने और अपने स्वामी को चाहनेवाली तथा अपने नायक पति द्वारा प्राप्त होने चाहने योग्य (परीणसः) बहुतसी, एवं बहुत से देशों में बसनेवाली प्रजाएं अथवा आगे आगे बढ़नेवाली सेनाएं ( दक्षस्य ) ज्ञान और बल के और (विदथस्य) संग्राम और ऐश्वर्य के (पतिम् ) पालक (सहः) शत्रु विजयी बलवान् पुरुष को प्राप्त कर अपने ( तेजसा ) तेज से उसपर ( अधिरोह ) आरूढ़ हों, उस पर आश्रय करें । कामनायुक्त स्त्री के विवाहकाल में शिलाखण्ड पर पैर रखना भी पर्वत के समान अचल पति पर आश्रय लेकर स्वयं अचल होने की प्रतिज्ञा लेने के भाव को दर्शाता है। उसी प्रकार प्रजागण और सेनागण ( संचरणे ) युद्ध में एक साथ प्रयाण करने में भी ( सनिष्यवः ) अपने स्वामी राजा पर आश्रय ले, अपने बल से उसके आश्रय में स्थिर बनी रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४ निचृज्जगती । २ जगती । ५ त्रिष्टुप् ६ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥
विषय
फिर वे ब्रह्मचारी कैसे हों, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे कन्ये ! त्वं संचरणे सनिष्यवः समुद्रं नद्यः न गिरिं न परीणसः नेमन्निषः गूर्त्तयः धीमत्यः ब्रह्मचारिण्यः वेना मेधाविनः ब्रह्मचारिणः समावर्त्तनात् पश्चात् परस्परं प्रीत्या विवाहं कुर्वन्तु, दक्षस्य विदथस्य विदुषः सकाशात् प्राप्तविद्यां पतिम् अधिरोह तं तेजसा प्राप्य सहः नु प्राप्नुहि ॥२॥
पदार्थ
हे (कन्ये)= कन्या ! (त्वम्)=तुम, (संचरणे) सङ्गमने = साथ-साथ जाने में, (सनिष्यवः) संविभागमिच्छवः= बँटवारे की इच्छा से, (समुद्रम्) सागरम्=सागर की, (नद्यः)=नदियों के, (न) इव=समान, (गिरिम्) मेघम्=मेघ के, (न) इव =समान, (परीणसः) बह्व्यः=बहुत. (नेमन्निषः) नीयन्त इष्यन्ते च यास्ताः=जिसे ले जाते हैं, वह, (गूर्त्तयः) उद्यमयुक्ताः कन्या = परिश्रमी कन्या, (धीमत्यः)=बुद्धमती, (ब्रह्मचारिण्यः)= ब्रह्मचारिणी, (वेनाः) मेधाविनः= मेधाविनी, (ब्रह्मचारिणः)= ब्रह्मचारी लोग, (समावर्त्तनात्)= समावर्त्तन के, (पश्चात्)=बाद में, (परस्परम्)=आपस में, (प्रीत्या) = प्रीति करके, (विवाहम्)= विवाह, (कुर्वन्तु)=करें, (दक्षस्य) चतुरस्य=चतुर और, (विदथस्य) विज्ञानयुक्तस्य= विशेष ज्ञान से युक्त, (विदुषः) =विद्वान् से, (सकाशात्)=समीप, (प्राप्तविद्याम्) = प्राप्त विद्या को, (पतिम्) स्वामिनम्=स्वामी के, (अधि) उपरिभावे=ऊपर, (रोह)= आरोहण करें, (तम्) पूर्वोक्तम् =पहले कहे हुए, (तेजसा) प्रतापेन=प्रताप के द्वारा, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (सहः) बलम्=बल को, (नु) शीघ्रम् =शीघ्र, (प्राप्नुहि)= प्राप्त हो ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब लड़कों को विधि के अनुसार ब्रह्मचर्य्य के सेवन से सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ करके पूर्ण युवा अवस्था में अपने तुल्य, गुण कर्म और स्वभाववा की परस्पर परीक्षा करके अतीव प्रेम के साथ कन्याओं के साथ विवाह करके, पुनः जो पूर्ण विद्यावाले हों तो लड़के लड़कियों को पढ़ाया करें। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्णों के योग्य हों, वे अपने-अपने वर्णों को चुनकर कर्मों को करें ॥२॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- (१)-समावर्त्तन संस्कार- प्राचीन काल में गुरुकुल में शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात जब निद्यार्थी की गुरुकुल से विदाई की जाती है तो आगामी जीवन के लिये उसे गुरु द्वारा उपदेश देकर विदाई दी जाती है। इसी को समावर्तन संस्कार कहते हैं। इस संस्कार के समय आचार्य द्वारा शिष्य के गुण व कर्मों के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण आबंटित किये जाते थे। (२)-विवाह- समावर्त्तन संस्कार के बाद ही विद्यार्थी विवाह करके ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (कन्ये) कन्या ! (त्वम्) तुम (संचरणे) साथ-साथ जाने में, (सनिष्यवः) बँटवारे की इच्छा से (समुद्रम्) सागर की (नद्यः) नदियों के (न) समान और (गिरिम्) मेघ के (न) समान, (परीणसः) बहुत सी [नदियां] (नेमन्निषः) जिसे ले जाती हैं, वह (गूर्त्तयः) परिश्रमी कन्या (धीमत्यः) बुद्धिमती, (ब्रह्मचारिण्यः) ब्रह्मचारिणी और (वेनाः) मेधाविनी है। (ब्रह्मचारिणः) ब्रह्मचारी लोग (समावर्त्तनात्) समावर्त्तन संस्कार के (पश्चात्) बाद में, (परस्परम्) आपस में (प्रीत्या) प्रीति करके (विवाहम्) विवाह (कुर्वन्तु) करें। (दक्षस्य) चतुर और (विदथस्य) विशेष ज्ञान से युक्त (विदुषः) विद्वान् की (सकाशात्) समीपता से (प्राप्तविद्याम्) विद्या को प्राप्त किये हुए, (पतिम्) स्वामी (अधि+रोह) से अधिक हो, अर्थात् विद्या और प्रताप में वह पति से अधिक हों। (तम्) उस पहले कहे हुए (तेजसा) प्रताप के द्वारा (प्राप्य) प्राप्त किये जानेवाला (सहः) बल (नु) शीघ्र ही (प्राप्नुहि) प्राप्त होवे ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तम्) पूर्वोक्तम् (गूर्त्तयः) उद्यमयुक्ताः कन्याः (नेमन्निषः) नीयन्त इष्यन्ते च यास्ताः (परीणसः) बह्व्यः। परीणस इति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (समुद्रम्) सागरम् (न) इव (संचरणे) सङ्गमने (सनिष्यवः) संविभागमिच्छवः (पतिम्) स्वामिनम् (दक्षस्य) चतुरस्य (विदथस्य) विज्ञानयुक्तस्य (नु) शीघ्रम् (सहः) बलम् (गिरिम्) मेघम् (न) इव (वेनाः) मेधाविनः। वेन इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (अधि) उपरिभावे (रोह) (तेजसा) प्रतापेन ॥ २ ॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे कन्ये ! त्वं संचरणे सनिष्यवः समुद्रं नद्यो न गिरिं न परीणसो नेमन्निषो गूर्त्तयो धीमत्यो ब्रह्मचारिण्यो वेना मेधाविनो ब्रह्मचारिणः समावर्त्तनात् पश्चात् परस्परं प्रीत्या विवाहं कुर्वन्तु, दक्षस्य विदथस्य विदुषः सकाशात् प्राप्तविद्यां पतिमधिरोह तं तेजसा प्राप्य सहो नु प्राप्नुहि ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारौ। सर्वैर्बालकैः कन्याभिश्च यथाविधिसेवितेन ब्रह्मचर्य्येणाऽखिला विद्या अधीत्य पूर्णयुवावस्थायां तुल्यगुणकर्मस्वभावान् परीक्ष्यान्योन्यमतिप्रेमोद्भवानन्तरं विवाहं कृत्वा पुनर्यदि पूर्णविद्यास्तर्हि बालिका अध्यापयेयुः। क्षत्रियवैश्यशूद्रवर्णयोग्याश्चेत्तर्हि स्व-स्ववर्णोचितानि कर्माणि कुर्य्युः ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. सर्व मुला-मुलींनी ब्रह्मचर्याचे पालन करून सर्व विद्या ग्रहण करावी व पूर्ण युवावस्थेत परस्पर परीक्षा करून आपल्यासारख्या गुण कर्म स्वभाव असलेल्याशी अत्यंत प्रेमाने विवाह करावा. ज्यांनी पूर्ण विद्या प्राप्त केलेली असेल त्यांनी मुला-मुलींना शिकवावे. जे क्षत्रिय असतील त्यांनी राज्याचे पालन करावे व न्यायदान करावे. जे वैश्य असतील त्यांनी आपल्या वर्णाचे कर्म व जे शूद्र असतील तर त्यांनी आपले कर्म करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as the streams flow to join the sea in common and waters glide round the mountain, so hosts of admirers, loving and loved and eager to join Indra, lord and protector of the mighty and versatile order of humanity, rise and, with their strength and splendour, augment his power and majesty deep as the ocean and high as a mountain peak.
Subject of the mantra
Then how they celibates should be, this subject is discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (kanye) =girl, (tvam) =you, (saṃcaraṇe) =in going together, (saniṣyavaḥ) =willing to share, (samudram) =of ocean, (nadyaḥ) =of rivers, (na) =likeand, (girim) =of cloud, (na) =like, (parīṇasaḥ) =many, [nadiyāṃ]=rivers, (nemanniṣaḥ)= the one whom she takes, (gūrttayaḥ) =hard working girl, (dhīmatyaḥ)=intelligent, (brahmacāriṇyaḥ) =celibate and, (venāḥ)=is brilliant, (brahmacāriṇaḥ) =celibates, (samāvarttanāt)=of Samāvarttana Saṃskāra, (paścāt) =afterwards, (parasparam) =mutually, (prītyā) =having love, (vivāham) =marriage, (kurvantu) =solemnize, (dakṣasya)= smart and, (vidathasya) =having special knowledge, (viduṣaḥ) =of scholar, (sakāśāt) =by proximity, (prāptavidyām) =having obtained knowledge, (patim) =husband, (adhi+roha)=she should be more than her husband, that is, she should be more than her husband in knowledge and glory, (tam) =that said earlier, (tejasā) =by the glory, (prāpya) =to be obtained, (sahaḥ) =power, (nu) =soon, (prāpnuhi) =be obtained.
English Translation (K.K.V.)
O girl! In going together with you, with the desire to share, like the rivers of the ocean and like the clouds, the many rivers carry her; she is a hard-working girl, intelligent and celibate. Celibates should marry each other after the Samāvarttana Saṃskāra. Having acquired knowledge from the closeness of a clever and knowledgeable scholar, she should be more than her husband, that is, she should be more than her husband in knowledge and glory. May the strength obtained through that previously mentioned glory be obtained soon.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. All the boys should have the complete knowledge after study by practicing celibacy as per the rules and after examining their resemblance, qualities, actions and nature with each other at the age of complete youth, marrying the girls with utmost love and then those the boys who have complete knowledge should teach and girls. kṣatriya, vaiśya, śūdra should be eligible for the class, they should choose their respective classes and perform the deeds.
TRANSLATOR’S NOTES-
(1)-Samāvarttana Saṃskāra- In ancient times, after completing education in the Gurukul, he used to bid farewell by the Guru after giving advice for his future life. This is called Samāvarttana Saṃskāra. At the time of this Saṃskāra, the brāhmaṇa, kṣatriya aura vaiśya varṇa, that is classes were allotted by the ācārya (Guru) according to the qualities and deeds of the disciple. (2)-Marriage- Only after the Samāvarttana Saṃskāra, the student got married and entered the gṛhastha āśrama from the brahmacarya āśrama.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are they (teachers and preachers) is taught in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O girl, as rivers go to the sea and as intelligent industrious Brahamcharies giving happiness and highly intelligent Brahamacharis after Samavanrtana (completion of education in the Gurukula) marry one another, you should marry a husband who has received education from a highly learned and expert experienced person and acquire also strength with splendor.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( परीणसः) बह् यः । परीणस इति बहुनाम ( निघ० ३.१ ) = Many. (विदधस्य) विज्ञानयुक्तस्य = Of a highly learned person. (वेनाः) मेधाविनः वेन इति मेधाविनम् = Highly intelligent persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All boys and girls should study all sciences with the observance of Brahmacharya (continence) and after the attainment of full youth, they should enter into wedlock, having known and tested one another's merits, actions and temperaments and after the development of mutual love. If they are highly learned, they should teach boys and girls, otherwise, they should discharge the duties of the Kshatriyas, Vaishayas or Shudras to which ever Varna (class-not caste by birth) they belong according to their merits, actions and temperament.
Translator's Notes
It is worth while to quote the following foot-note given by Griffith after translating the 2nd Mantra. as "To him the guidance-following songs of praise flow full, as those who seek gain go in company to the flood. To him the Lord of power, the holy synod's might, as to a hill, with speed ascend the loving ones." Griffith's Foot-Note "I find the stanza un-intelligible; and the version (based chiefly on Grassman's) which I offer is merely a temporary makeshift." (The hymns of the Rigveda Translated by Griffith Vol. I. P. 78 Chowkhamba Edition). While we admire the frankness of Mr. Griffith in admitting his inability to understand the real import of the Mantra and giving only a misleading conjectural meaning (as is very often the case of many European Scholars) there is nothing unintelligible in Rishi Dayananda's interpretation as translated above.
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