ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
दे॒वी यदि॒ तवि॑षी॒ त्वावृ॑धो॒तय॒ इन्द्रं॒ सिष॑क्त्यु॒षसं॒ न सूर्यः॑। यो धृ॒ष्णुना॒ शव॑सा॒ बाध॑ते॒ तम॒ इय॑र्ति रे॒णुं बृ॒हद॑र्हरि॒ष्वणिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वी । यदि॑ । तवि॑षी । त्वाऽवृ॑धा । ऊ॒तये॑ । इन्द्र॑म् । सिष॑क्ति । उ॒षस॑म् । न । सूर्यः॑ । यः । धृ॒ष्णुना॑ । शव॑सा । बाध॑ते । तमः॑ । इय॑र्ति । रे॒णुम् । बृ॒हत् । अ॒र्ह॒रि॒ऽस्वनिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवी यदि तविषी त्वावृधोतय इन्द्रं सिषक्त्युषसं न सूर्यः। यो धृष्णुना शवसा बाधते तम इयर्ति रेणुं बृहदर्हरिष्वणिः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवी। यदि। तविषी। त्वाऽवृधा। ऊतये। इन्द्रम्। सिषक्ति। उषसम्। न। सूर्यः। यः। धृष्णुना। शवसा। बाधते। तमः। इयर्ति। रेणुम्। बृहत्। अर्हरिऽस्वनिः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशौ स्यातामित्याह ॥
अन्वयः
हे स्त्रि ! योऽर्हरिष्वणिर्धृष्णुना शवसोषसं प्राप्य सूर्यो बृहत्तमो न दुःखं बाधते। हे पुरुष ! यदि त्वावृधा तविषी देवी रेणुं त्वामियर्त्यूतये इन्द्रं त्वा सिषक्ति स सा च युवां परस्परस्यानन्दाय सततं वर्त्तेयाथाम् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(देवी) दिव्यगुणैर्वर्त्तमाना स्त्री (यदि) चेत् (तविषी) बलादिगुणयुक्ता (त्वावृधा) या त्वां वर्धयते सा (ऊतये) रक्षणाद्याय (इन्द्रम्) परमसुखप्रदं पतिम् (सिषक्ति) समवैति (उषसम्) प्रत्युषःकालम् (न) इव (सूर्य्यः) सविता (यः) (धृष्णुना) धृष्टेन दृढेन (शवसा) बलेन (बाधते) निवर्त्तयति (तमः) रात्रिम् (इयर्त्ति) प्राप्नोति (रेणुम्) विद्यादिशुभप्राप्तम् (बृहत्) महत् (अर्हरिष्वणिः) योऽर्हान् हिंसकाँश्च सम्भजति सः ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदा स्त्रीप्रियः पुरुषः पुरुषप्रिया भार्या च भवेत्तदैव मङ्गलं वर्द्धेत ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे स्त्रि ! (यः) जो (अर्हरिष्वणिः) अहिंसक, धार्मिक और पापी लोगों का विवेककर्त्ता पुरुष (धृष्णुना) दृढ़ (शवसा) बल से (न) जैसे (सूर्य्यः) रवि (उषसम्) प्रातःसमय को प्राप्त हो के (बृहत्) बड़े (तमः) अन्धकार को दूर कर देता है, वैसे तेरे दुःख को दूर कर देता है। हे पुरुष ! (यदि) जो (त्वावृधा) तुझे सुख से बढ़ाने हारी (तविषी) पूर्ण बलयुक्त (देवी) विदुषी अतीव प्रिया स्त्री (रेणुम्) रमणीयस्वरूप तुझ को (इयर्त्ति) प्राप्त होती है और (ऊतये) रक्षादि के वास्ते (इन्द्रम्) परम सुखप्रद तुझे (सिषक्ति) उत्तम सुख से युक्त करती है, सो तू और वह स्त्री तुम दोनों एक-दूसरे के आनन्द के लिये सदा वर्त्ता करो ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जब स्त्री से प्रसन्न पुरुष और पुरुष से प्रसन्न स्त्री होवे, तभी गृहाश्रम में निरन्तर आनन्द होवे ॥ ४ ॥
विषय
देवी तविषी
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (यदि) = यदि (देवी) = दिव्यगुणसम्पन्न अथवा दिव्यता का वर्धन करनेवाली, शत्रुओं को पराजित करने की कामनावाली (त्वावृधा) = आपका वर्धन करनेवाली, अर्थात् आपकी ओर झुकाव उत्पन्न करनेवाली (तविषी) = शक्ति ऊतये रक्षण के लिए (इन्द्रम्) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव को (सिषक्ति) = सेवन करती है, प्राप्त होती है [समवैति], उसी प्रकार (न) = जैसेकि (उषसम्) = उषाकाल को (सूर्यः) = सूर्य प्राप्त होता है । वह सूर्य (यः) = जो (धृष्णुना शवसा) = धर्षक बल से (तमः बाधते) = अन्धकार को बाधित कर देता है और (रेणुम्) = धूल को (इयर्ति) = गतिमय करता है, आँधियों का कारण बनता है, उसी प्रकार यह शक्ति भी (बृहत्) = खूब (अर्हरिष्वणिः) = [अर् - हर् - स्वन, गच्छन्तो हरन्ति, तेषां स्वनयिता] गति से हरण करनेवाले शत्रुओं को सन्तपन के द्वारा रुलानेवाली होती है । २. जिस समय जीव को प्रभु की शक्ति प्राप्त हो जाती है तब यह जीव सब शत्रुओं को सन्तप्त करनेवाला होता है । यह शत्रुओं को इसी प्रकार पीड़ित करता है जैसे सूर्य का प्रकाश अँधेरे को । सूर्य की गर्मी से आँधियों का प्रसङ्ग होता है और धूल उड़कर कहीं - की - कहीं पहुँच जाती है । इस प्रकार प्रभु की शक्ति प्राप्त होने पर जीव भी इन वासनाओं की रेणु को उड़ाकर दूर भगा देता है । प्रभु सूर्य हैं तो जीव उषः काल के समान है । प्रभु की शक्ति से जीव उसी प्रकार शक्ति - सम्पन्न बनता है जिस प्रकार सूर्य की एकाध किरण से उषः काल प्रकाशमय हो जाता है । ३. जीव को जब यह शक्ति प्राप्त हो जाती है तब कामादि शत्रुओं का संहार तो होता ही है, साथ ही यह शक्ति प्रभु को प्राप्त करानेवाली होती है, 'त्वावृधा' - जीव में यह प्रभु - प्रवणता को उत्पन्न करती है । निर्बल व्यक्ति प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता ।
भावार्थ
भावार्थ - शक्ति दिव्य होती है, यह हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराती है ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे राजन् ! सेनापते ! ( यदि ) यदि (तविषी) बलवती सेना (त्वावृधा) तुझे अपने बलवीर्य और पराक्रम से बढ़ानेवाली और (देवी) विजय की कामना करनेहारी होकर ( देवी तविषी ) कामनायुक्त, बलवती महिला के समान ( इन्द्रं सिषक्ति ) ऐश्वर्यवान् अपने पति को प्राप्त होती है,पति या स्वामी का आश्रय लेती है तब (यः) जो वीर पुरुष (धृष्णुना) शत्रुओं को पराजित करनेवाले, प्रबल (शवसा) बल से (तमः) सूर्य जिस प्रकार अन्धकार को नाश करता है उसी प्रकार शत्रुबल को ( बाधते ) नाश करता है और जो ( अर्हरिष्वणिः = अर्ह - रिष्-वनिः, अथवा अर्हरिस्वनिः) पूज्य और शत्रुओं का विवेक करनेहारा, अथवा वेगवान् धनापहारी पुरुषों को अपने प्रताप से रुलाने या गुंजा देनेवाला होकर ( बृहत् ) बड़े उद्योग से ( रेणुम् ) उत्तम रजो रेणु के समान गुणवती तुझको ( इयर्ति ) प्राप्त हो । ( सूर्य: उषसम् न ) सूर्य जिस प्रकार उषा के पीछे २ अनुगमन करता है उसी प्रकार सेनापति भी अपनी सेना के पीछे चलता है । और उसी प्रकार वह स्वामी भी अपनी स्त्री का अनुगमन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४ निचृज्जगती । २ जगती । ५ त्रिष्टुप् ६ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥
विषय
फिर वे स्त्री और पुरुष कैसे हों, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे स्त्रि ! यः अर्हरिष्वणिः धृष्णुना शवसा उषसं प्राप्य सूर्यः बृहत्तमः न दुःखं बाधते। हे पुरुष ! यदि त्वावृधा या त्वां वर्धयते सा तविषी देवी रेणुं त्वाम् इयर्ति ऊतये इन्द्रं त्वा सिषक्ति स सा च युवां परस्परस्य आनन्दाय सततं वर्त्तेयाथाम् ॥४॥
पदार्थ
हे (स्त्रि)=स्त्री ! (यः)=जो, (अर्हरिष्वणिः) योऽर्हान् हिंसकाँश्च सम्भजति सः=पूजा के योग्य और हिंसकों को बाँटती है, (धृष्णुना) धृष्टेन दृढेन= दृढ, (शवसा) बलेन =बल से, (उषसम्) प्रत्युषःकालम्=उषा काल में, (प्राप्य)=प्राप्त होनेवाला, (सूर्य्यः) सविता=सूर्य, (बृहत्) महत्=महान्, (तमः) रात्रिम्=रात्रि के, (न) इव=समान, (दुःखम्)= दुःख को, (बाधते) निवर्त्तयति=दूर करता है, हे (पुरुष)= पुरुष ! (यदि) चेत्=यदि, (त्वावृधा) या त्वां वर्धयते सा=तुम को बढ़ानेवाली, (तविषी) बलादिगुणयुक्ता= बल आदि गुणों से युक्त, (देवी) दिव्यगुणैर्वर्त्तमाना स्त्री= दिव्य गुणों वाली वर्तमान स्त्री, (रेणुम्) विद्यादिशुभप्राप्तम्= विद्या आदि शुभ गुणों को प्राप्त, (त्वाम्)=तुमको, (इयर्त्ति) प्राप्नोति= प्राप्त करती है, (ऊतये) रक्षणाद्याय=रक्षा आदि के लिये, (इन्द्रम्) परमसुखप्रदं पतिम्= परम सुख प्रदान करनेवाले पति को, (त्वा) = तुम्हारी, (सिषक्ति) समवैति=सेवा करती है। (सः)= पुरुष, (च)=और, (सा)= स्त्री, (युवाम्)=तुम दोनों, (परस्परस्य)= परस्पर, (आनन्दाय)= आनन्द के लिये, (सततम्)=निरन्तर, (वर्त्तेयाथाम्)=निवास करो ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जब पत्नी पुरुष को प्रिय हो और पत्नी को पुरुष प्रिय हो, तभी मङ्गल की वृद्दि होती है ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (स्त्रि) स्त्री ! (यः) जो (अर्हरिष्वणिः) पूजा के योग्य और हिंसकों को बाँटती है, (धृष्णुना) दृढ (शवसा) बल से (उषसम्) उषा काल में (प्राप्य) प्राप्त होनेवाला (सूर्य्यः) सूर्य (बृहत्) महान् (तमः) रात्रि के (न) समान (दुःखम्) दुःख को (बाधते) दूर करता है। हे (पुरुष) पुरुष ! (यदि) यदि (त्वावृधा) तुम को गुणों से बढ़ानेवाली, (तविषी) बल आदि गुणों से युक्त, (देवी) दिव्य गुणों वाली वर्तमान स्त्री, (रेणुम्) विद्या आदि शुभ गुणों को प्राप्त, (त्वाम्) तुमको (इयर्त्ति) प्राप्त करती है। (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (इन्द्रम्) परम सुख प्रदान करनेवाले पति, (त्वा) तुम्हारी (सिषक्ति) सेवा करती है। (सः) पुरुष (च) और (सा) स्त्री, (युवाम्) तुम दोनों (परस्परस्य) परस्पर (आनन्दाय) आनन्द के लिये (सततम्) निरन्तर (वर्त्तेयाथाम्) रहो ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)-- (देवी) दिव्यगुणैर्वर्त्तमाना स्त्री (यदि) चेत् (तविषी) बलादिगुणयुक्ता (त्वावृधा) या त्वां वर्धयते सा (ऊतये) रक्षणाद्याय (इन्द्रम्) परमसुखप्रदं पतिम् (सिषक्ति) समवैति (उषसम्) प्रत्युषःकालम् (न) इव (सूर्य्यः) सविता (यः) (धृष्णुना) धृष्टेन दृढेन (शवसा) बलेन (बाधते) निवर्त्तयति (तमः) रात्रिम् (इयर्त्ति) प्राप्नोति (रेणुम्) विद्यादिशुभप्राप्तम् (बृहत्) महत् (अर्हरिष्वणिः) योऽर्हान् हिंसकाँश्च सम्भजति सः ॥४॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशौ स्यातामित्याह ॥ अन्वयः- हे स्त्रि ! योऽर्हरिष्वणिर्धृष्णुना शवसोषसं प्राप्य सूर्यो बृहत्तमो न दुःखं बाधते। हे पुरुष ! यदि त्वावृधा तविषी देवी रेणुं त्वामियर्त्यूतये इन्द्रं त्वा सिषक्ति स सा च युवां परस्परस्यानन्दाय सततं वर्त्तेयाथाम् ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदा स्त्रीप्रियः पुरुषः पुरुषप्रिया भार्या च भवेत्तदैव मङ्गलं वर्द्धेत ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जेव्हा स्त्री पुरुष परस्पर प्रसन्न असतील तेव्हा गृहस्थाश्रमात निरंतर आनंद निर्माण होतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
If a generous and brilliant beauty were to come and join Indra, a brilliant young man of culture, education and universal values of Dharma, join him as life partner and inspire him to advance for the safety, security and progress of society, then, just as the sun having joined the wonderful dawn, dispels the world enveloping darkness with his blazing splendour so would Indra dispel the darkness and suffering of humanity with his power and splendour.
Subject of the mantra
Then how should they men and women be, this subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (stri) =woman, (yaḥ) =that, (arhariṣvaṇiḥ) =revered and divedes the violent, (dhṛṣṇunā)=firm, (śavasā) =by power, (uṣasam) =in that period, (prāpya) =to be obtained, (sūryyaḥ) =Sun, (bṛhat) =great,(tamaḥ) =of night, (na) =like, (duḥkham) =to the sorrow, (bādhate) =removes. He=O! (puruṣa) =human, (yadi) =of, (tvāvṛdhā)=the one who enhances you with qualities, (taviṣī) =possessing qualities like strength, (devī) =the present woman with divine qualities, (reṇum)=having attained auspicious qualities like knowledge etc., (tvām) =to you, (iyartti) =attains, (ūtaye) =for the protection etc., (indram)= the husband who gives ultimate happiness, (tvā) =your, (siṣakti) =serves you, (saḥ) =man, (ca) =and, (sā) =woman, (yuvām) =both of you, (parasparasya) =mutually, (ānandāya) =for the pleasure, (satatam) ontinuously, (vartteyāthām) =live.
English Translation (K.K.V.)
O woman! The sun that divides the revered and the violent, with its strong power, the Sun that comes in the morning, removes sorrow like a great night. O human! If the present woman, who enhances you with virtues, has qualities like strength etc., has divine qualities, has auspicious qualities like knowledge etc., attains you. She serves you, the husband who provides ultimate happiness, for protection etc. Man and woman, both of you should continue to enjoy each other.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. When the wife is dear to the husband and the husband is dear to wife, then only prosperity increases.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should they (husband wife)be is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O women, when a person who can distinguish between the noble and ignoble with resolute vigor dispels all misery like the sun attending the Dawn dispelling all gloom with his power and when O man, a lady endowed with divine virtues and strength and who augments your faculties approaches you who possesses knowledge and other attributes and are giver of great delight, for protection, you should always deal with each other for mutual happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( रेणुम् ) विद्याविशुभ प्राप्तम् = Endowed with knowledge and other virtues. री-गति रेषणयी: (अर्हरिष्वणिः) यः अर्हान हिंसकान् च संभजति सः = He who distinguishes the noble from the ignoble.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When a husband loves his wife and the wife loves the husband, it is only then that domestic happiness follows
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