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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 56/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स तु॒र्वणि॑र्म॒हाँ अ॑रे॒णु पौंस्ये॑ गि॒रेर्भृ॒ष्टिर्न भ्रा॑जते तु॒जा शवः॑। येन॒ शुष्णं॑ मा॒यिन॑माय॒सो मदे॑ दु॒ध्र आ॒भूषु॑ रा॒मय॒न्नि दाम॑नि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । तु॒र्वणिः॑ । म॒हान् । अ॒रे॒णु । पौंस्ये॑ । गि॒रेः । भृ॒ष्टिः । न । भ्रा॒ज॒ते॒ । तु॒जा । शवः॑ । येन॑ । शुष्ण॑म् । मा॒यिन॑म् । आ॒य॒सः । मदे॑ । दु॒ध्रः । आ॒भूषु॑ । रा॒मय॑त् । नि । दाम॑नि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स तुर्वणिर्महाँ अरेणु पौंस्ये गिरेर्भृष्टिर्न भ्राजते तुजा शवः। येन शुष्णं मायिनमायसो मदे दुध्र आभूषु रामयन्नि दामनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। तुर्वणिः। महान्। अरेणु। पौंस्ये। गिरेः। भृष्टिः। न। भ्राजते। तुजा। शवः। येन। शुष्णम्। मायिनम्। आयसः। मदे। दुध्रः। आभूषु। रामयत्। नि। दामनि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 56; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे वरमिच्छुके कन्ये ! यथा त्वं यस्तुर्वणिर्दुध्र आयसो महान् पौंस्ये तुजाऽऽभूष्वरेणु मदे रामयच्छवः प्राप्य गिरेर्भृष्टिरुन्नतो नेव भ्राजते तं शुष्णं मायिनं जनं दामनि निबध्नासि तथा स वरोऽपि तेन त्वां निबध्नीयात् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (सः) उक्तार्थः (तुर्वणिः) शीघ्रानन्ददाता। तुर्वणिस्तूर्णवनिः। (निरु०६.१४) महान् गुणैर्महत्त्वयुक्तः (अरेणु) अहिंसनीयम् (पौंस्ये) पुंसो भवे यौवने (गिरेः) मेघस्य (भृष्टिः) भृज्जन्ति परिपचन्ति यस्यां वृष्टौ सा (न) इव (भ्राजते) प्रकाशते (तुजा) तोजति हिनस्ति दुःखानि येन तेन (शवः) बलम् (येन) बलेन (शुष्णम्) बलवन्तम् (मायिनम्) प्रशंसितप्रज्ञादियुक्तम् (आयसः) विज्ञानात् (मदे) हर्षयुक्ते (दुध्रः) बलेन पूर्णः। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य धः। (आभूषु) समन्ताद्भूषिता जना येन तत् (रामयत्) रामं रमणं कारयितृ (नि) नितराम् (दामनि) यः सुखानि ददाति तस्मिन् गृहाश्रमे ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। स विवाह उत्तमो यत्र समानरूपशीलौ कन्यावरौ स्यातां परन्तु कन्यायाः सकाशाद् वरस्य बलायुषी द्विगुणे सार्द्धैकगुणे वा भवेताम् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे दोनों कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे उत्तम वर की इच्छा करनेहारी कन्या ! जैसे तू जो (तुर्वणिः) शीघ्र सुखकारी (दुध्रः) बल से पूर्ण (आयसः) विज्ञान से युक्त (महान्) सर्वोत्कृष्ट (पौंस्ये) पुरुषार्थयुक्त व्यवहार में प्रवीण (तुजा) दुःखों का नाशक (आभूषु) सब प्रकार सबको सुभूषितकारक (अरेणु) क्षयरहित कर्म को (मदे) हर्षित होने में (रमयत्) क्रीड़ा का हेतु (शवः) उत्तम बल को प्राप्त हो के (न) जैसे (गिरेः) मेघ के (भृष्टिः) उत्तम शिखर (भ्राजते) प्रकाशित होते हैं, वैसे (तम्) उस (शुष्णम्) बलयुक्त (मायिनम्) अत्युत्तम बुद्धिमान् वर को (येन) जिस बल से (दामनि) सुखदायक गृहाश्रम में स्वीकार करती हो, वैसे (सः) वह वर भी तुझे उसी बल से प्रेमबद्ध करे ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। अति उत्तम विवाह वह है, जिसमें तुल्य रूप स्वभाव युक्त कन्या और वर का सम्बन्ध होवे, परन्तु कन्या से वर का बल और आयु दूना वा ड्योढ़ा होना चाहिये ॥ ३ ॥

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    विषय

    काम - क्रोध को कैद में करना

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (तुर्वणिः) = [शत्रूणां हिंसिता, क्षिप्रकारी वा - सा०, तुर्वी हिंसार्थः, तूर्णवनिर्वा] शत्रुओं की हिंसा करनेवाले हैं, या शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले हैं । (महान्) = सब गुणों के दृष्टिकोण से प्रवृद्ध हैं । २. (पौंस्ये) = वीर पुरुषों के करने योग्य संग्रामों में (शवः) = इस प्रभु का बल (अरेणु) = अनवद्य - प्रशस्त तथा (तुजा) = शत्रुओं का हिंसक होता हुआ इस प्रकार (भ्राजते) = चमकता है (न) = जैसे कि (गिरेः भृष्टिः) = पर्वत का शिखर । पर्वत - शिखर जैसे उन्नत होता हुआ चमकता है, उसी प्रकार प्रभु का शत्रु - हिंसक बल भी देदीप्यमान होता है । ३. (येन) = जिस बल से (आयसः) = अयोमय कवचवाला - लोहतुल्य दृढ़ शरीरवाला (दुध्रः) = दुष्ट शत्रुओं का [धर्ता] रोकनेवाला होता हुआ (इन्द्रः) = प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न जीव (मदे) = सोमपान [वीर्यरक्षण] से उत्पन्न हर्ष में (मायिनम्) = इस अत्यन्त मायावी (शुष्णम्) = शोषण के कारणभूत काम को (आभूषु) = कारागृहों में दामनि बन्धक निगड़ में [रस्सी में] (निरामयत्) = [न्यवासयत्] रखता है । जब जीव प्रभु की शक्ति से अपने को शक्तिसम्पन्न करता है तब उसका शरीर लोहतुल्य दृढ़ हो जाता है, कामादि शत्रुओं का वह रोकनेवाला बनता है । सोम के रक्षण से वह इस वासना को इस प्रकार वश में कर लेता है जैसेकि शत्रु को कैदखाने में निगड़ित करके रख लिया जाए । काम - क्रोध इसके वशीभूत हो जाते हैं, इसकी कैद में रहते हुए इसकी सेवा करनेवाले हो जाते हैं । व्यासजी के शब्दों में 'चरणौ संनवाहतुः' काम - क्रोध इसके चरणों को दबाते हैं । यह काम - क्रोध का कैदी न होकर उन्हें अपना कैदी बना लेता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुशक्ति पर्वत के शिखर के समान चमकती है । इस शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर ही हम काम - क्रोध को कैद कर पाते हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (सः) वह वीर पुरुष (तुर्वणिः) शीघ्र सुखजनक, एवं ऐश्वर्य को प्राप्त करने और संगी जन को शीघ्र सुखी करनेवाला, अथवा शत्रुओं को शीघ्र नाश करनेवाला (महान्) गुणों से महा आदर योग्य, (दुध्रः) समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला, स्वतः बलों से पूर्ण, दुष्टों को अपने अधीन रखने में समर्थ और उनके वश में न आनेवाला (आयसः ) विज्ञान से युक्त अथवा कवच और शस्त्रास्त्र से युक्त, प्रबल और सुरक्षित है, जो ( पौंस्ये ) पौरुष कर्म और पुरुषत्व के योग्य यौवनकाल में (तुजा) सब दुःखों और विरोधियों का नाशक ( अरेणु ) निर्दोष अवध्य, बल है, (येन) जिस बल से वह स्वयं ( गिरेः भृष्टिः न ) मेघ से गिरनेवाली अति तीव्र वृष्टि या विद्युत् के समान प्रतापशाली, या पर्वत के समान ऊंचे शिखर के समान (भ्राजते) चमकता है, उस (शुष्णं) बलवान् ( मायिनम्) नाना प्रज्ञाओं से युक्त पुरुष को हे पतिंवरे कन्ये ! तू (दामनि) दृढ़ता से बाँधने वाले गृहस्थ बन्धन में ( नि ) अच्छी प्रकार बाँध ले। और वह तुझे ( आभूषु ) सब प्रकार की विभूतियों, ऐश्वर्यों और भूमियों में या देशों में ( मदे नि रामयत् ) हर्ष में अति प्रसन्न रक्खे । अथवा—( तुजा शवः आभूषु रामयत् ) उसका दुःखनाशक, सबको सुभूषित करनेवाला आनन्दप्रद बल है जिससे तू (दामनि नि ) उसे गृहस्थ बन्धन में बाँध और वह तुझे बांधे । सेनापति के पक्ष में—वीर सेनापति ( येन ) जिस बल से ( शुष्णन् मायिनम् ) मायावी बलवान् शत्रु को ( दामनि नि रामयत् ) बन्धन में, कारागार में डाले ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४ निचृज्जगती । २ जगती । ५ त्रिष्टुप् ६ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥

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    विषय

    फिर वे दोनों वर और कन्या कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे वरम् इच्छुके कन्ये ! यथा त्वं यः तुर्वणिः दुध्र आयसः महान् पौंस्ये तुजा आभूषु अरेणु मदे रामयत् शवः प्राप्य गिरेः भृष्टिः उन्नतः न इव भ्राजते तं {येन} शुष्णं मायिनं जनं दामनि नि बध्नासि तथा स वरः अपि तेन त्वां नि बध्नीयात् ॥३॥

    पदार्थ

    हे (वरम्)=वर की, (इच्छुके)=इच्छुक, (कन्ये)=कन्या ! (यथा)=जैसे, (त्वम्)=तुम, (यः)=जो, (तुर्वणिः) शीघ्रानन्ददाता= शीघ्र आनन्ददाता, (दुध्रः) बलेन पूर्णः= बल से पूर्ण, (आयसः) विज्ञानात्=विशेष ज्ञान से, (महान्) = महान्, (पौंस्ये) पुंसो भवे यौवने= पौरुष को प्राप्त, (तुजा) तोजति हिनस्ति दुःखानि येन तेन=दुःखों को नीचा दिखानेवाले, (आभूषु) समन्ताद्भूषिता जना येन तत्=हर ओर से सजी-धजी, (अरेणु) अहिंसनीयम्=अहिंसनीय, (मदे) हर्षयुक्ते=प्रसन्न, (रामयत्) रामं रमणं कारयितृ=आनन्द में रमण करनेवाली, (शवः) बलम्=बल को, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (गिरेः) मेघस्य=बादल के, (भृष्टिः) भृज्जन्ति परिपचन्ति यस्यां वृष्टौ सा= परिपक्वता लानेवाली वर्षा, (उन्नतः)=बढ़ी हुई के, (न) इव=समान, (भ्राजते) प्रकाशते= प्रकाशित होती है, (तम्)=उस, {येन} बलेन=बल से, (शुष्णम्) बलवन्तम्=बलवान और, (मायिनम्) प्रशंसितप्रज्ञादियुक्तम्=प्रशंसित प्रज्ञा आदि युक्त, (जनम्)=व्यक्ति को, (दामनि) यः सुखानि ददाति तस्मिन् गृहाश्रमे=सुख देनेवाले घर में, (नि) नितराम्= विशेषकर के, (बध्नासि)= बाँधते हो, (तथा)=वैसे ही, (सः) उक्तार्थः=उपरोक्त, (वरः)= वर, (अपि)=भी, (तेन)=उसके द्वारा, (त्वाम्)=तुमको, (नि) नितराम्=अच्छी तरह से, (बध्नीयात्) =बाँध दे ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। अति उत्तम विवाह वह है, जिसमें समान रूप स्वभाव से युक्त कन्या और वर का सम्बन्ध होवे, परन्तु कन्या से वर का बल और आयु दुगना या डेड़ गुना होना चाहिये ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (वरम्) वर की (इच्छुके) इच्छुक (कन्ये) कन्या ! (यथा) जैसे (त्वम्) तुम, (यः) जो (तुर्वणिः) शीघ्र आनन्द देनेवाली, (दुध्रः) बल से पूर्ण, (आयसः) विशेष ज्ञान वाली और (महान्) महान् हो। (पौंस्ये) पौरुष को प्राप्त किये हुए, (तुजा) दुःखों को नीचा दिखानेवाले, (आभूषु) हर ओर से सजे-धजे, (अरेणु) अहिंसनीय, (मदे) प्रसन्न, (रामयत्) आनन्द में रमण करनेवाले, (शवः) बल को (प्राप्य) प्राप्त करके, (गिरेः) बादल में (भृष्टिः) परिपक्वता लानेवाली वर्षा (उन्नतः) बढ़ी हुई के (न) समान, (भ्राजते) प्रकाशित होती है। (तम्) उस {येन} बल से (शुष्णम्) बलवान और (मायिनम्) प्रशंसित प्रज्ञा आदि युक्त (जनम्) व्यक्ति को (दामनि) सुख देनेवाले घर में, (नि) विशेष करके (बध्नासि) बाँधते हो, अर्थात् प्रेम के बन्धन में डालते हो, (तथा) वैसे ही (सः) उपरोक्त (वरः) वर (अपि) भी, (तेन) उस [बन्धन] के द्वारा (त्वाम्) तुमको, अर्थात् कन्या को (नि) अच्छी तरह से (बध्नीयात्) बाँध दे, अर्थात् प्रेम के बन्धन में डाल दे ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) उक्तार्थः (तुर्वणिः) शीघ्रानन्ददाता। तुर्वणिस्तूर्णवनिः। (निरु०६.१४) महान् गुणैर्महत्त्वयुक्तः (अरेणु) अहिंसनीयम् (पौंस्ये) पुंसो भवे यौवने (गिरेः) मेघस्य (भृष्टिः) भृज्जन्ति परिपचन्ति यस्यां वृष्टौ सा (न) इव (भ्राजते) प्रकाशते (तुजा) तोजति हिनस्ति दुःखानि येन तेन (शवः) बलम् (येन) बलेन (शुष्णम्) बलवन्तम् (मायिनम्) प्रशंसितप्रज्ञादियुक्तम् (आयसः) विज्ञानात् (मदे) हर्षयुक्ते (दुध्रः) बलेन पूर्णः। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य धः। (आभूषु) समन्ताद्भूषिता जना येन तत् (रामयत्) रामं रमणं कारयितृ (नि) नितराम् (दामनि) यः सुखानि ददाति तस्मिन् गृहाश्रमे ॥३॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे वरमिच्छुके कन्ये ! यथा त्वं यस्तुर्वणिर्दुध्र आयसो महान् पौंस्ये तुजाऽऽभूष्वरेणु मदे रामयच्छवः प्राप्य गिरेर्भृष्टिरुन्नतो नेव भ्राजते तं शुष्णं मायिनं जनं दामनि निबध्नासि तथा स वरोऽपि तेन त्वां निबध्नीयात् ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। स विवाह उत्तमो यत्र समानरूपशीलौ कन्यावरौ स्यातां परन्तु कन्यायाः सकाशाद् वरस्य बलायुषी द्विगुणे सार्द्धैकगुणे वा भवेताम् ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. अति उत्तम विवाह तोच आहे. ज्यात समान रूप स्वभावयुक्त कन्या व वराचा संबंध व्हावा; परंतु मुलीपेक्षा मुलाचे बल व वय दुप्पट किंवा दीडपट असावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    He, Indra, blessed and blissful, great, inviolable, shines in his bloom of youth like the peak of a mountain with the force and brilliance of his knowledge and power, by which he, formidable hero of the armour of steel, delights and rules a strong and enlightened nation in a state of joy and self-restraint in all situations of existence.

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    Subject of the mantra

    Then, how should both the groom and the bride be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (varam) =of groom, (icchuke) =desirous, (kanye) =girl, (yathā) =like, (tvam) =you, (yaḥ) =that, (turvaṇiḥ)=giving quick pleasure, (dudhraḥ) =full of power, (āyasaḥ) =with special knowledge and, (mahān) =you are great, (pauṃsye)=having attained manhood, (tujā) =one who despises suffering, (ābhūṣu)=dressed up from every side, (areṇu)=non-violent, (made)=happy, (rāmayat)=one who rejoices in joy, (śavaḥ) =to power, (prāpya) =having attained, (gireḥ) =in the cloud, (bhṛṣṭiḥ)= maturing rain, (unnataḥ) =of increased, (na) =like, (bhrājate) =illuminates, (tam) =that, {yena} =by power, (śuṣṇam)=strong and, (māyinam)=possessing admirable wisdom etc., (janam) =to the person, (dāmani)=In a house that gives happiness, (ni) =specially, (badhnāsi) =you bind, that is, you put in the bond of love, (tathā) =similarly, (saḥ) =as said above, (varaḥ)=groom, (api)=also, (tena) =that, [bandhana] =by bond, (tvām)=to you, i.e. to the girl, (ni) =properly, (badhnīyāt)= bind, that is, put in the bond of love.

    English Translation (K.K.V.)

    O girl desirous of a groom! Like you, who gives quick pleasure, is full of strength, has special knowledge and is great. One who has attained manliness, who has despised sorrows, who is adorned from all sides, who is non-violent, who is happy, who rejoices in joy, who has attained strength and who brings maturity in the clouds, shines like one who has grown like the rain. With that power, you specially bind a strong and admirable person with wisdom etc. in a house that gives happiness, that is, you put him in the bond of love, in the same way, may the above mentioned groom also bind you, that is, the girl, well with that bond. That means put him in the bondage of love.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. The best marriage is one in which the bride and groom have similar nature, but the strength and age of the groom should be double or one and a half times that of the bride.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O girl desiring a suitable husband you should marry for pleasant household life in youth a person who is quick in action and mighty, whose faultless and destructive power shines in manly conflicts like the peak of a mountain, who is endowed with strength along with knowledge and who possessing power that casts aside all misery, gladdens and adorns all. Let such a virtuous person bind you in marriage tie.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अरेणु) अहिंसनीयम् = Inviolable. (शुष्णम्) बलवन्तम् = Powerful or strong. (आयसः) विज्ञानात् =From knowledge. ( दुध्न:) बलेन पूर्ण:= Endowed with strength. (दामनि) यः सुखानि ददाति तस्मिन् गृहाश्रमे = in the household life that gives delight.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That marriage is the best where the bride and the bridegroom are of suitable beauty and temperament, but the power and the age of the bridegroom should be equal to one and half of the bride.

    Translator's Notes

    रेयु is derived from री-गतिरेषययो: Here the second meaning of violence has been taken. शुष्णम् इति बलनाम ( निघ० २.९) अय-गतां गतेस्त्रयोऽर्थाः-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च Here the first meaning of knowledge has been taken by the Rishi.

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