ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं दि॒वो ध॒रुणं॑ धिष॒ ओज॑सा पृथि॒व्या इ॑न्द्र॒ सद॑नेषु॒ माहि॑नः। त्वं सु॒तस्य॒ मदे॑ अरिणा अ॒पो वि वृ॒त्रस्य॑ स॒मया॑ पा॒ष्या॑रुजः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । दि॒वः । ध॒रुण॑म् । धि॒षे॒ । ओज॑सा । पृ॒थि॒व्याः । इ॒न्द्र॒ । सद॑नेषु । माहि॑नः । त्वम् । सु॒तस्य॑ । मदे॑ । अ॒रि॒णाः॒ । अ॒पः । वि । वृ॒त्रस्य॑ । स॒मया॑ । पा॒ष्या॑ । अ॒रु॒जः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं दिवो धरुणं धिष ओजसा पृथिव्या इन्द्र सदनेषु माहिनः। त्वं सुतस्य मदे अरिणा अपो वि वृत्रस्य समया पाष्यारुजः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। दिवः। धरुणम्। धिषे। ओजसा। पृथिव्याः। इन्द्र। सदनेषु। माहिनः। त्वम्। सुतस्य। मदे। अरिणाः। अपः। वि। वृत्रस्य। समया। पाष्या। अरुजः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 56; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! माहिनस्त्वमोजसा यथा सूर्यो दिवः पृथिव्या धरुणं सदनेषु धरति तथा प्रजा धिषे यथेन्द्रो विद्युद् वृत्रस्य हननं कृत्वाऽपो वर्षति तथा त्वं सुतस्य मदे समया पाष्या शत्रून् व्यरुजः सुखमरिणाः ॥ ६ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) दिव्यगुणसमूहान् (धरुणम्) सर्वमूर्त्तद्रव्याणामाधारम् (धिषे) दधासि। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे० इति द्विर्वचनाभावः। (ओजसा) बलेन (पृथिव्याः) भूमे राज्यम् (इन्द्र) परमैश्वर्यसम्पादक (सदनेषु) गृहादिषु (माहिनः) पूज्या महत्त्वगुणविशिष्टाः (त्वम्) शत्रुविनाशकः (सुतस्य) सम्पादितस्य (मदे) आह्लादकारके व्यवहारे (अरिणाः) प्राप्नोषि (अपः) जलानि (वि) विशेषेण (वृत्रस्य) मेघस्य (समया) यथासमयम् (पाष्या) पेषणयोग्यानि कर्माणि। अत्र पिष्लृधातोर्ण्यत् वर्णव्यत्ययेन पूर्वस्याऽऽकारः सुपां सुलुग् इत्याकारादेशश्च। (अरुजः) आमर्दय ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सूर्यवन्न्यायं प्रकाश्य शत्रून्निवार्य्य प्रजाः पालयन्ति तथैवाऽस्माभिरप्यनुष्ठेयम् ॥ ६ ॥ अत्र सूर्य्यविद्युद्गुणवर्णनादेतदुक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यसम्पादक सभाध्यक्ष ! (माहिनः) पूजनीय महत्त्व गुणवाले (त्वम्) आप (ओजसा) बल से जैसे सविता (दिवः) दिव्यगुणयुक्त प्रकाश से (पृथिव्याः) पृथिवी और पदार्थों का (धरुणम्) आधार है, वैसे (सदनेषु) गृहादिकों में (धिषे) धारण करते हो वा जैसे बिजुली (वृत्रस्य) मेघ को मार कर (अपः) जलों को वर्षाती है, वैसे (त्वम्) आप (सुतस्य) उत्पन्न हुए वस्तुओं के (मदे) आनन्दकारक व्यवहार में (समया) समय में (अपः) जलों की वर्षा से सुख देते हो, वैसे (पाष्या) अच्छे प्रकार चूर्ण करने रूप सिद्ध किये हुए रस के (मदे) आनन्दरूपी व्यवहार में (पाष्या) चूर्णकारक क्रिया से शत्रुओं को (व्यरुजः) मरणप्रायः करके (अरिणाः) सुख को प्राप्त कीजिये ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् सूर्य्य के समान राज्य को सुप्रकाशित कर शत्रुओं का निवारण करके प्रजा का पालन करते हैं, वैसा ही हम सब लोगों को भी अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ६ ॥ इस सूक्त में सूर्य्य वा विद्वान् के गुणवर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
वासना के जाल का विदारण
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वम्) = तू (माहिनः) = प्रभु की पूजावाला बनकर (दिवः धरुणम्) = प्रकाश व ज्योति को धारण करनेवाले इस सोम को (पृथिव्याः) = शरीर के (ओजसा) = ओज [बल] के दृष्टिकोण से (सदनेषु) = इन कोशों में ही (धिषे) = धारण करता है । सोम की रक्षा का सर्वोत्तम साधन 'खाली समय में प्रभु का स्मरण' ही है । इससे वृत्ति वासनामयी नहीं होती ; वासनामयी वृत्ति ही (सोम) = नाश का कारण बनती है । यह सोम शरीर में प्रकाश का मूलाधार है, ज्ञानाग्नि का तो यह एकमात्र ईंधन है, इसीलिए इस सोम को अन्नमयादि कोशों में ही धारण करना आवश्यक है । २. हे सोम का रक्षण व पान करनेवाले इन्द्र ! (त्वम्) = तू (सुतस्य) = उत्पन्न हुए - हुए इस सोम के (मदे) = उल्लास में (आपः अरिणाः) = कर्मों को प्राप्त होता है अर्थात् तेरा जीवन शक्तिशाली बनकर उल्लास से परिपूर्ण होता है और तू आलसी नहीं होता । ३. इसलिए तू (वृत्रस्य पाष्या) = ज्ञान की आवरणभूत इस कामवासना के [पाश्या] जलसमूह को (समया) = प्रभु की समीपता के द्वारा (वि अरुजः) = विशेषरूप से छिन्न - भिन्न करता है । काम का जाल प्रभु - उपासन के बिना टूट नहीं सकता । सोमरक्षण के लिए इस जाल का तोड़ना आवश्यक है ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में सोम के रक्षण से जहाँ ज्ञानाग्नि दीप्त होती है, वहाँ शरीर का ओज बढ़ता है । इस सोम के रक्षण के लिए वासना के जाल को तोड़ना आवश्यक है ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से हुआ है हम इस शरीररूप रथ को विषय - व्यावृत्त करके प्रभु की ओर ले - चलें [१] । तेजस्विता को सिद्ध करते हुए हम प्रभु को प्राप्त करें [२] । काम - क्रोध को कैद में रक्खें [३] । शक्ति वस्तुतः दिव्य वस्तु है, यही हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराती है [४] । वृत्र का विनाश होने पर ज्ञान का समुद्र उमड़ पड़ता है [५] । सोम के रक्षण से शरीर ओजस्वी बनता है । इस सोम के रक्षण के लिए वासना के जाल का विदारण आवश्यक है [६] | वासना - जाल के विदारण के लिए प्रभु - स्मरण आवश्यक है -
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! सभाध्यक्ष ! जिस प्रकार सूर्य या मेघ (पृथिव्याः सदने) पृथिवी के नाना प्रदेशों में (ओजसा) अपने बल से ( दिवः धरुणम् ) आकाश से जल प्रदान करता है उसी प्रकार ( माहिनः ) तू महान् शक्तिशाली होकर (ओजसा) अपने पराक्रम से ( पृथिव्याः ) पृथिवी के ( सदनेषु ) प्रजाओं के रहने, बसने योग्य गृहों और नगरों में ( दिवः ) उत्तम प्रकाश और ज्ञानवाले विद्वज्जनों से (धरुणं धिषे) सब प्रजा को धारण करनेवाले ज्ञान तथा न्याय व्यवस्थापन को धारण करता है। और ( त्वं ) तू ( सुतस्य ) अभिषेक द्वारा प्राप्त राज्याधिकार के (मदे) हर्ष और उत्साह में ( अपः ) आप्त प्रजाजनों को (अरिणाः) प्राप्त कर । और ( समया ) समयानुसार, बीच बीच में यथावसर (पाष्या) शत्रुगणों के पीस डालने या चकनाचूर कर देने के उपाय से ( वृत्रस्य ) बढ़ते हुए शत्रु को विद्युत् या वायु जिस प्रकार मेघ को समय समय पर आघात करता है उसी प्रकार (वि आरुजः) विविध उपायों से आघात कर और शत्रु के बल को तोड़ । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४ निचृज्जगती । २ जगती । ५ त्रिष्टुप् ६ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र ! माहिनः त्वम् ओजसा यथा सूर्यः दिवः पृथिव्या धरुणं सदनेषु धरति तथा प्रजा धिषे यथा इन्द्रः विद्युद् वृत्रस्य हननं कृत्वा अपः वर्षति तथा त्वं सुतस्य मदे समया पाष्या शत्रून् वि अरुजः सुखम् अरिणाः॥६॥
पदार्थ
हे (इन्द्र)=परमेश्वर ! (माहिनः) पूज्या महत्त्वगुणविशिष्टाः=महत्त्वपूर्ण विशेष गुणवाले पूजनीय, (त्वम्) सभाध्यक्षः= सभाध्यक्ष, (ओजसा) बलेन=बल से, (यथा)=जैसे, (सूर्यः) =सूर्य, (दिवः) दिव्यगुणसमूहान्= दिव्य गुणों के समूहों से, (पृथिव्याः) भूमे राज्यम्= भूमि के राज्य में, (धरुणम्) सर्वमूर्त्तद्रव्याणामाधारम्=सब मूर्तिमान् द्रव्यों के आधार को, (सदनेषु) गृहादिषु=गृह आदि में, (धरति)=रखता है, (तथा)=वैसे ही, (प्रजा)=सन्तान को, (धिषे) दधासि=धारण कराते हो, (यथा)=जैसे, (इन्द्रः) परमैश्वर्यसम्पादक=परम ऐश्वर्य का सम्पादन करनेवाला, (विद्युत्)= विद्युत्, (वृत्रस्य) मेघस्य=बादल को, (हननम्)=छिन्न-भिन्न, (कृत्वा)=करके, (अपः) जलानि=जल, (वर्षति)=बरसाता है, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्) शत्रुविनाशकः= शत्रु के विनाशक, (सुतस्य) सम्पादितस्य=कार्य को सम्पन्न करानेवाले के, (मदे) आह्लादकारके व्यवहारे =प्रसन्न करनेवाले व्यवहार में, (समया) यथासमयम्=ठीक समय पर, (पाष्या) पेषणयोग्यानि कर्माणि= बार-बार किये जानेवाले कर्मों को, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (वि) विशेषेण= विशेष रूप से, (अरुजः) आमर्दय सुखम्=दबा करके सुख को, (अरिणाः) प्राप्नोषि=प्राप्त करो ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो विद्वान् सूर्य्य के समान राज्य को प्रकाशित करके शत्रुओं का निवारण करके, प्रजा का पालन करते हैं, वैसा ही हम सब लोगों को भी अनुष्ठान करना चाहिये ॥६॥
विशेष
सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- इस सूक्त में सूर्य्य और विद्युत् के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (माहिनः) महत्त्वपूर्ण विशेष गुणवाले पूजनीय (त्वम्) सभाध्यक्ष के (ओजसा) बल से, (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य (दिवः) दिव्य गुणों के समूहों से (पृथिव्याः) भूमि के राज्य में (धरुणम्) सब मूर्तिमान द्रव्यों के आधार को (सदनेषु) गृह आदि में (धरति) रखता है, (तथा) वैसे ही (प्रजा) सन्तान को (धिषे) तुम धारण कराते हो। (यथा) जैसे (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य का सम्पादन करनेवाला (विद्युत्) विद्युत् (वृत्रस्य) बादल को (हननम्) छिन्न-भिन्न (कृत्वा) करके (अपः) जल (वर्षति) बरसाता है, (तथा) वैसे ही (त्वम्) शत्रु के विनाशक (सुतस्य) कार्य को सम्पन्न करानेवाले के (मदे) प्रसन्न करनेवाले व्यवहार में, (समया) ठीक समय पर (पाष्या) बार-बार किये जानेवाले कर्मों से, (शत्रून्) शत्रुओं को (वि) विशेष रूप से (अरुजः) दबा करके सुख को (अरिणाः) प्राप्त करो ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) दिव्यगुणसमूहान् (धरुणम्) सर्वमूर्त्तद्रव्याणामाधारम् (धिषे) दधासि। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे० इति द्विर्वचनाभावः। (ओजसा) बलेन (पृथिव्याः) भूमे राज्यम् (इन्द्र) परमैश्वर्यसम्पादक (सदनेषु) गृहादिषु (माहिनः) पूज्या महत्त्वगुणविशिष्टाः (त्वम्) शत्रुविनाशकः (सुतस्य) सम्पादितस्य (मदे) आह्लादकारके व्यवहारे (अरिणाः) प्राप्नोषि (अपः) जलानि (वि) विशेषेण (वृत्रस्य) मेघस्य (समया) यथासमयम् (पाष्या) पेषणयोग्यानि कर्माणि। अत्र पिष्लृधातोर्ण्यत् वर्णव्यत्ययेन पूर्वस्याऽऽकारः सुपां सुलुग् इत्याकारादेशश्च। (अरुजः) आमर्दय ॥६॥ विषयः- पुनः स सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! माहिनस्त्वमोजसा यथा सूर्यो दिवः पृथिव्या धरुणं सदनेषु धरति तथा प्रजा धिषे यथेन्द्रो विद्युद् वृत्रस्य हननं कृत्वाऽपो वर्षति तथा त्वं सुतस्य मदे समया पाष्या शत्रून् व्यरुजः सुखमरिणाः॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सूर्यवन्न्यायं प्रकाश्य शत्रून्निवार्य्य प्रजाः पालयन्ति तथैवाऽस्माभिरप्यनुष्ठेयम् ॥६॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र सूर्य्यविद्युद्गुणवर्णनादेतदुक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान सूर्याप्रमाणे राज्याला सुप्रकाशित करून शत्रूंचे निवारण करून प्रजेचे पालन करतात तसेच आम्ही सर्व लोकांनी अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, with your splendour of omnipotence you wield the sustaining powers of heaven and earth. You are all great and glorious in the halls and homes of the earth. With your power of catalysis you break the clouds and release the waters by the season, and then in celebrations of soma yajna you bless the devotees with joy-
Subject of the mantra
Then, how should that Chairman of the Assembly should be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(indra) =God, (māhinaḥ) =with the power of a respected, (tvam) =of Chairman of the Assembly, (ojasā)=by power, (yathā) =like, (sūryaḥ) =Sun, (divaḥ)=by groups of divine qualities, (pṛthivyāḥ) =in the kingdom of earth, (dharuṇam)=the basis of all tangible substances, (sadaneṣu) =in the houses etc., (dharati) =keeps, (tathā) =similarly, (prajā) =to children, (dhiṣe) =you possess, (yathā) =like, (indraḥ)=giver of ultimate opulence, (vidyut) =electricity, (vṛtrasya) =to cloud, (hananam) =disintegrate, (kṛtvā) =having done, (apaḥ) =water, (varṣati) =makes it rain, (tathā) =similarly, (tvam) =destroyer of the enemy, (sutasya) =the one who gets the work done, (made)=in pleasing behaviour, (samayā) =in the nick of time, (pāṣyā)=by repeated actions, (śatrūn) =to enemies, (vi) =specially, (arujaḥ) =having suppressed, happiness (ariṇāḥ) =attain.
English Translation (K.K.V.)
O God! With the power of a respected Chairman of the Assembly, having important special qualities, just as the Sun, with the clusters of divine qualities, places the basis of all the tangible substances in the earth's kingdom in the houses etc., in the same way, you make the children possess them. Just as the one who administers supreme opulence disintegrates the clouds with lightning and causes water to rain, similarly in the behaviour of the one who accomplishes the task of destroying the enemy, by repeatedly suppressing the enemies through repeated actions at the right time, happiness is attained.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Like the scholars who illuminate the kingdom like the Sun, destroy the enemies and take care of the people, we all should engage doing things in the same way. Translation of hymn of the mantra by Maharshi Dayanand- From the description of the properties of Sun and electricity in this hymn, we should know the consistency of the interpretation of this hymn with the interpretation of the previous hymn.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should Indra (the President of the Assembly) be is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly-the Source of great prosperity of the State) as the sun sustains all earth and heaven by his power, you being venerable should also sustain all your subjects like that. As the lightning causes the cloud to rain down waters on earth by striking it, in the same way, growing in power and delight by the use of the Soma the juice of nourishing substances and herbs etc. should crush all your enemies at proper time and thus should cause happiness to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(माहिनः) पूज्यः, महत्वगुणविशिषटः = Venerable on account of greatness.(पाष्या) पोषणयोग्यानि कर्माणि = Sustaining acts.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As learned persons manifest justice like the sun and protect the people by casting aside or crushing all enemies, so we should also do. In this hymn, there is the mention of the attributes of the sun, lightning and President of the Assembly etc. so it has connection with the previous hymn.
Translator's Notes
Here ends the commentary on the fifty-sixth hymn of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.
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