ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
वि यत्ति॒रो ध॒रुण॒मच्यु॑तं॒ रजोऽति॑ष्ठिपो दि॒व आता॑सु ब॒र्हणा॑। स्व॑र्मीळ्हे॒ यन्मद॑ इन्द्र॒ हर्ष्याह॑न्वृ॒त्रं निर॒पामौ॑ब्जो अर्ण॒वम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि । यत् । ति॒रः । ध॒रुण॑म् । अच्यु॑तम् । रजः॑ । अति॑स्थिपः । दि॒वः । आता॑सु । ब॒र्हणा॑ । स्वः॑ऽमीळ्हे । यत् । मदे॑ । इ॒न्द्र॒ । हर्ष्या॑ । अह॑न् । वृ॒त्रम् । निः । अ॒पाम् । औ॒ब्जः॒ । अ॒र्ण॒वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि यत्तिरो धरुणमच्युतं रजोऽतिष्ठिपो दिव आतासु बर्हणा। स्वर्मीळ्हे यन्मद इन्द्र हर्ष्याहन्वृत्रं निरपामौब्जो अर्णवम् ॥
स्वर रहित पद पाठवि। यत्। तिरः। धरुणम्। अच्युतम्। रजः। अतिस्थिपः। दिवः। आतासु। बर्हणा। स्वःऽमीळ्हे। यत्। मदे। इन्द्र। हर्ष्या। अहन्। वृत्रम्। निः। अपाम्। औब्जः। अर्णवम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 56; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यथौब्जो सूर्य्यलोको दिव आतासु तिरो बर्हणाऽच्युतं धरुणं रजो व्यतिष्ठिपो व्यवस्थापयति मदे स्वर्मीढेऽन्तरिक्षे हर्ष्या हर्षकराणि कर्माणि कुर्वन् यद्यं वृत्रमहन्नपामर्वणं निर्वर्त्तयति यथा स्वराज्यन्यायौ धृत्वा शत्रून् हत्वा पत्न्या आनन्दं जनय ॥ ५ ॥
पदार्थः
(वि) विशेषार्थे (यत्) यम् (तिरः) तिरस्करणे (धरुणम्) आधारकम् (अच्युतम्) कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशि (रजः) पृथिव्यादिलोकजातम् (अतिष्ठिपः) संस्थापयेः (दिवः) प्रकाशादाकर्षणाद्वा (आतासु) सर्वासु दिक्षु। आता इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) (बर्हणा) बृह्यते येन तत् (स्वर्मीढे) स्वः किरणान् जलानि वा मेहयति यस्मादन्तरिक्षात् तस्मिन् (यत्) तम् (मदे) माद्यन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्य्यकारक (हर्ष्या) हर्षं जनितुं योग्यानि कर्माणि कुर्वन् (अहन्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (निः) नितराम् (अपाम्) जलानां सकाशात् (औब्जः) य उब्जत्यार्जवी करोति तेन निर्वृत्तः सः (अर्णवम्) समुद्रम् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यलोकः स्वप्रकाशाकर्षणादिगुणैः सर्वाल्ँलोकान् स्वस्वकक्षासु भ्रामयन् सर्वासु दिक्षु स्वतेजसा रसं हृत्वा वर्षां जनयन् प्रजापालनहेतुर्वर्त्तते तथा स्त्रीपुरुषाभ्यां वर्त्तितव्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे परमैश्वर्य्ययुक्त (इन्द्र) सभेश ! जैसे (औब्जः) कोमल करनेवाले से सिद्ध हुआ (यत्) जो सूर्य (दिवः) प्रकाश वा आकर्षण से (आतासु) दिशाओं में (तिरः) तिरछा किया हुआ (बर्हणा) वृद्धियुक्त (अच्युतम्) कारणरूप वा प्रवाहरूप से अविनाशि (धरुणम्) आधारकर्त्ता (रजः) पृथिवी आदि सब लोकों को (व्यतिष्ठिपः) विशेष करके स्थापन करता और (मदे) आनन्दयुक्त (स्वर्मीढे) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (हर्ष्या) हर्ष उत्पन्न कराने योग्य कर्मों को करता हुआ (यत्) जिस (वृत्रम्) मेघ को (अहन्) नष्ट कर (आतासु) दिशाओं में (अपाम्) जलों के सकाश से (अर्णवम्) समुद्र को सिद्ध करता है, वैसे अपने राज्य और न्याय को धारण कर शत्रुओं को मार अपनी स्त्री को आनन्द दिया कर ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यलोक अपने प्रकाश और आकर्षणादि गुणों से सब लोकों को अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कराता, सब दिशाओं में अपना तेज वा रस को विस्तार और वर्षा को उत्पन्न करता हुआ प्रजा के पालन का हेतु होता है, वैसे स्त्री-पुरुषों को भी वर्त्तना चाहिये ॥ ५ ॥
विषय
वृत्र - विनाश
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तूने (यत्) = जब (धरुणम्) = शरीर की शक्तियों को धारण करनेवाले (अच्चुतम्) = जिससे मनुष्य - शरीर में स्थिति से विगलित नहीं होता, अर्थात् मृत्यु से बचनेवाले (रजः) = [उदकम् - नि० ४/१९] वीर्य को [अपः रेतः] (दिवः आतासु) = मस्तिष्क की दिशाओं में (तिरः) = अन्तर्हित करके (वि अतिष्ठिपः) = विशेष रूप से स्थापित किया, अर्थात् जब इस वीर्य की ऊर्ध्वगति करके तूने इसे शरीर में ही इस प्रकार तिरोहित किया जैसेकि दधि में घृत तिरोहित होता है और इस वीर्य को तून ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाया तो तूने यह सब (बर्हणा) = [बृहि वृद्धौ] वृद्धि के दृष्टिकोण से ही किया । शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक - सब प्रकार की उन्नति इस वीर्य - रक्षण पर ही निर्भर करती है । २. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (यत्) = जब (मदे) = इस सोमरक्षण के कारण उत्पन्न उल्लास में (हर्ष्या) = बड़ी प्रसन्नता व उत्साह से (स्वर्मीळ्हे) = संग्राम में (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (अहन्) = तूने नष्ट किया तो उस समय (अपां अर्णवम्) = ज्ञान के जलों के समुद्र को (निर् औब्जः) = निश्चय से अपने अनुकूल कर लिया । वेद में अन्यत्र 'रायः समुद्राँश्चतुरः' इन शब्दों में वेदज्ञान को समुद्र ही कहा है । आवरण के नष्ट होने पर ज्ञान का सूर्य क्यों न चमकेगा ?
भावार्थ
भावार्थ - हम शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति करनेवाले हों । यही सब उन्नतियों का मार्ग है । जब हम संग्राम में काम - वृत्र का संहार कर पाते हैं तब हमारे ज्ञान का समुद्र उमड़ पड़ता है । वृत्र ही तो उसका प्रतिबन्धक था ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( यत् ) जो (औब्जः) सबको अपने अधीन रखने हारा सूर्य ( आतासु ) दिशाओं में ( दिवः ) अपने प्रकाश और आकर्षण द्वारा ( अच्युतम् ) अविनाशी, अपने स्थान से न डिगनेवाले ( धरुणम् ) समस्त चराचर के आश्रय रूप पृथिवी आदि (रजः) लोक को भी ( तिरः) अधर आकाश में ( अतिष्ठिपः ) स्थापित करता है । और ( यत् ) जो ( इन्द्रः ) सूर्य ( मदे ) सबके हर्षकारी (स्वर्मीह्ळे ) सुखों और जल वर्षानेवाले अन्तरिक्ष में (हर्ष्या ) हर्षों के जनक, वृष्टि, विद्युत् आदि कार्यों को उत्पन्न करता हुआ (अपां वृत्रम् ) जलों को रोकने वाले मेघ को ( अहन् ) आघात करता है और ( अर्णवम् निः ) जल को नीचे गिरा देता है। इसी प्रकार ( औब्जः ) सब शत्रुओं को अपने अधीन करने में समर्थ सेनापति ( धरुणम् ) राष्ट्र के धारण करनेवाले आश्रयरूप (बर्हणा रजः) बड़े भारी लोकसमूह या राजागण को (आतासु) समस्त दिशा में ( तिरः अतिष्ठिपः ) अपने अधीन स्थापित करता है । और यही (इन्द्रः ) शत्रुनाशक राजा ( स्वर्मीढे मदे ) सुखवर्षक आनन्द अवसर में (हर्ष्या) प्रजाजनों को हर्षित करनेवाले न्याय, शासन आदि कार्यों को करता हुआ (अपां अर्णवम्) जलके सागर रूप मेघ को सूर्य के समान ( अर्णवम् ) शत्रु के अपार सैन्यबल को भी ( निर्-अहन्) मार गिराता है। गृहस्थ पक्ष में—इसी प्रकार (अच्युतं बर्हणा धरुणं रजः) सन्तान के वृद्धिजनक, अखण्ड, आश्रयरूप वीर्य को (दिवः) ज्ञानप्रकाश रूप मस्तक के (आतासु ) या ज्ञानोपयोगी इन्द्रियों में (तिरः अतिष्ठिपः) पूर्ण वश करे । स्वामी (मदे ) हर्ष के सुखप्रद अवसर में ( हर्ष्या ) पत्नी के प्रसन्नकारक कर्मों को करता हुआ जलों को भूमि पर मेघ के समान ( वृत्रम् निर्-अहन्) गृहस्थोचित पुत्रोत्पादन आदि नाना सुखरूप जलों का वर्षण करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४ निचृज्जगती । २ जगती । ५ त्रिष्टुप् ६ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥
विषय
फिर वह सूर्यलोक कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र ! यथा औब्जः सूर्य्यलोकः दिव आतासु तिरः बर्हणा अच्युतं धरुणं रजः वि अतिष्ठिपः व्यवस्थापयति मदे स्वर्मीढे अन्तरिक्षे हर्ष्या हर्षकराणि कर्माणि कुर्वन् यद् यं वृत्रम् अहन् अपाम् अर्वणं निः वर्त्तयति यथा स्वराज्यनि आयौ धृत्वा शत्रून् हत्वा पत्न्या आनन्दं जनय ॥५॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्य्यकारक=सूर्य के समान परम ऐश्वर्य कारक ! (यथा)=जैसे, (औब्जः) य उब्जत्यार्जवी करोति तेन निर्वृत्तः सः= सूर्य्यलोकः= सूर्य्यलोक, (दिवः) प्रकाशादाकर्षणाद्वा =प्रकाश से या आकर्षण से, (आतासु) सर्वासु दिक्षु=समस्त दिशाओं में, (तिरः) तिरस्करणे=बाधा करने मे, (बर्हणा) बृह्यते येन तत्=दृढता से, (अच्युतम्) कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशि=कारण या प्रवाही रूप से अविनाशी, (धरुणम्) आधारकम्=आधार, (रजः) पृथिव्यादिलोकजातम्=उत्पन्न पृथिवी आदि लोक, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (अतिष्ठिपः) संस्थापयेः-व्यवस्थापयति =स्थापित करता है, (मदे) माद्यन्ति यस्मिंस्तस्मिन्=जिसमें हर्षित होते हैं, उसमें, (स्वर्मीढे) स्वः किरणान् जलानि वा मेहयति यस्मादन्तरिक्षात् तस्मिन् =सुखपूर्वक किरणों या जल से जिस अन्तरिक्ष से सींचता है, उस (अन्तरिक्षे)= अन्तरिक्ष में, (हर्ष्या) हर्षं जनितुं योग्यानि कर्माणि कुर्वन्=हर्ष उत्पन्न करने योग्य कर्मों को करते हुए, (यत्) यम्=जिस, (वृत्रम्) मेघम्=बादल को, (अहन्) हन्ति=छिन्न-भिन्न करते हैं, (अपाम्) जलानां सकाशात्=जलों की समीपता से, (अर्णवम्) समुद्रम्= समुद्रम को, (निः) नितराम्=अच्छी तरह से, (वर्त्तयति)= वर्ताव कराता है, (यथा)=जैसे, (स्वराज्यनि)=अपने राज्य में, (आयौ)=आयु को, (धृत्वा)=धारण करके, (शत्रून्)= शत्रु को, (हत्वा)=मार कर, (पत्न्या) =पत्नी के, (आनन्दम्)= आनन्द को, (जनय)=उत्पन्न करो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यलोक अपने प्रकाश और आकर्षण आदि गुणों से सब लोकों को अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कराता है, सब दिशाओं में अपने तेज से रस को लेकर वर्षा को उत्पन्न करता हुआ प्रजा के पालन का कारण होता है, वैसे स्त्री-पुरुषों को भी व्यवहार करना चाहिये ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) सूर्य के समान परम ऐश्वर्य कारक ! (यथा) जैसे (औब्जः) सूर्य्यलोक (दिवः) प्रकाश से या आकर्षण से (आतासु) समस्त दिशाओं में (तिरः) बाधा करने में, (बर्हणा) दृढता से (अच्युतम्) कारण या प्रवाही रूप से अविनाशी के (धरुणम्) आधार (रजः) उत्पन्न पृथिवी आदि लोकों को, (वि) विशेष रूप से, (अतिष्ठिपः) स्थापित करता है, (मदे) जिसमें हर्षित होते हैं, उसमें (स्वर्मीढे) सुखपूर्वक किरणों या जल से जिस अन्तरिक्ष से सींचता है, उस (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में, (हर्ष्या) हर्ष उत्पन्न करने योग्य कर्मों को करते हुए, (यत्) जिस (वृत्रम्) बादल को (अहन्) छिन्न-भिन्न करते हैं, (अपाम्) जलों की समीपता से (अर्णवम्) समुद्र से, (निः) अच्छी तरह से (वर्त्तयति) वर्ताव कराता है। (यथा) जैसे (स्वराज्यनि) अपने राज्य में (आयौ) आयु को (धृत्वा) धारण करके (शत्रून्) शत्रु को (हत्वा) मार कर (पत्न्या) पत्नी के (आनन्दम्) आनन्द को (जनय) उत्पन्न करो ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विशेषार्थे (यत्) यम् (तिरः) तिरस्करणे (धरुणम्) आधारकम् (अच्युतम्) कारणरूपेण प्रवाहरूपेण वाऽविनाशि (रजः) पृथिव्यादिलोकजातम् (अतिष्ठिपः) संस्थापयेः (दिवः) प्रकाशादाकर्षणाद्वा (आतासु) सर्वासु दिक्षु। आता इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) (बर्हणा) बृह्यते येन तत् (स्वर्मीढे) स्वः किरणान् जलानि वा मेहयति यस्मादन्तरिक्षात् तस्मिन् (यत्) तम् (मदे) माद्यन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्य्यकारक (हर्ष्या) हर्षं जनितुं योग्यानि कर्माणि कुर्वन् (अहन्) हन्ति (वृत्रम्) मेघम् (निः) नितराम् (अपाम्) जलानां सकाशात् (औब्जः) य उब्जत्यार्जवी करोति तेन निर्वृत्तः सः (अर्णवम्) समुद्रम् ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! यथौब्जो सूर्य्यलोको दिव आतासु तिरो बर्हणाऽच्युतं धरुणं रजो व्यतिष्ठिपो व्यवस्थापयति मदे स्वर्मीढेऽन्तरिक्षे हर्ष्या हर्षकराणि कर्माणि कुर्वन् यद्यं वृत्रमहन्नपामर्वणं निर्वर्त्तयति यथा स्वराज्यन्यायौ धृत्वा शत्रून् हत्वा पत्न्या आनन्दं जनय ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यलोकः स्वप्रकाशाकर्षणादिगुणैः सर्वाल्ँलोकान् स्वस्वकक्षासु भ्रामयन् सर्वासु दिक्षु स्वतेजसा रसं हृत्वा वर्षां जनयन् प्रजापालनहेतुर्वर्त्तते तथा स्त्रीपुरुषाभ्यां वर्त्तितव्यम् ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्यलोक आपल्या प्रकाश व आकर्षण इत्यादी गुणांनी सर्व गोलांना आपापल्या कक्षेत भ्रमण करवितो. सर्व दिशांमध्ये आपले तेज व रसाचा विस्तार करतो व वृष्टी उत्पन्न करतो तो प्रजेच्या पालनाचा हेतू असतो. तसे स्त्री पुरुषांनी वागावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Mighty is Indra, blazing in splendour and rejoicing in the light of heaven. In the vast spaces of the universe, he wields and sustains indestructible life supports such as earths and skies. He catalyses the vapours of water held in the depths of space, breaks the clouds, and in the mood of power, glory and joy makes them shower the rains on the earth, thereby forming the ocean.
Subject of the mantra
Then what should that Sun world be like, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra) =cause of supreme opulence like the Sun, (yathā) =like, (aubjaḥ) =Sunworld, (divaḥ)=by light or attraction, (ātāsu) =in all dorections, (tiraḥ)=to hinder, (barhaṇā) =firmly, (acyutam) =indestructible causally or continuative, (dharuṇam) =base, (rajaḥ) =the created earth and other worlds, (vi) =specially, (atiṣṭhipaḥ)=establishes, (made)=in which one rejoices, (svarmīḍhe)=the space from which it happily waters with rays or water, in that, (antarikṣe) =in space, (harṣyā)=by doing deeds capable of generating happiness, (yat) =which, (vṛtram) =to cloud, (ahan)=disintegrate, (apām)=by closeness of waters, (arṇavam)=from ocean, (niḥ)=properly, (varttayati) =makes one behave, (yathā) =like, (svarājyani) =in own kingdom, (āyau) =to life, (dhṛtvā) =having held, (śatrūn) =to enemy, (hatvā) =killing, (patnyā) =of wife, (ānandam) =to pleasure, (janaya) =create.
English Translation (K.K.V.)
O cause of supreme opulence like the Sun! Just as the Sun creates obstacles in all directions with light or attraction, firmly establishes the worlds like earth, which are born on the basis of indestructible causally or continuative, in which people are happy, in which they are happily filled with rays or water. He waters from the space, in that space, while performing activities that create happiness, he disperses the clouds, makes the ocean behave well due to the proximity of the waters. Like attaining longevity in your kingdom and killing the enemy and creating happiness for your wife.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun makes all the worlds travel in its orbit with its qualities like light and attraction, and by producing rain in all directions with its radiance, it becomes the reason for people to obey, similarly men and women too must behave.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the solar world controls by its life-sustaining undelaying and upholding power, light or attraction in all directions the earth and other worlds, establishes them in the space and strikes down the cloud in the firmament and thus gives delight to all by raining down waters, in the same manner, O Indra (President of the Assembly or the commander of the Army) you should also uphold Swarajya (self-Government) and justice and staying your enemies, enjoy happiness and bliss with your wife.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(आतासु) सर्वासु दिक्षु आताइति दिङ्नाम ( निघ० १.६) = In all directions. (स्वर्मोढे) स्व: किरणान् जलानि वा मेहयति यस्मावन्तरिक्षात् र्तास्मन् = In the firmament. (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्यकारक = The cause of prosperity being like the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the solar world by its light, attraction and other attributes, makes all worlds rotate in their axis and drawing the sap by its splendor in all directions causes rain and thus sustains all people, in the same manner, husband and wife should behave. (They should be source of happiness to all by their good character and conduct).
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