ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
गर्भो॒ यो अ॒पां गर्भो॒ वना॑नां॒ गर्भ॑श्च स्था॒तां गर्भ॑श्च॒रथा॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठगर्भः॑ । यः । अ॒पाम् । गर्भः॑ । वना॑नाम् । गर्भः॑ । च॒ । स्था॒ताम् । गर्भः॑ । च॒रथा॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भो यो अपां गर्भो वनानां गर्भश्च स्थातां गर्भश्चरथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठगर्भः। यः। अपाम्। गर्भः। वनानाम्। गर्भः। च। स्थाताम्। गर्भः। चरथाम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यो जगदीश्वरो जीवो वा यथाऽपामन्तर्गर्भो वनानामन्तर्गर्भः स्थातामन्तर्गर्भश्चरथामन्तर्गर्भोऽद्रौ चिदन्तर्गर्भो दुरोणेऽन्तर्गर्भो विश्वोऽमृतः स्वाधीर्विशा प्रजानामन्तराकाशोऽग्निर्वायुर्नेव सर्वेषु च बाह्यदेशेष्वपि विश्वानि दैव्यानि व्रतान्यश्या व्याप्तोऽस्त्यस्मै सर्वे पदार्थाः सन्ति तं वयं वनेम ॥ २ ॥
पदार्थः
(गर्भः) स्तोतव्योऽन्तःस्थो वा (यः) परमात्मा जीवात्मा वा (अपाम्) प्राणानां जलानां (गर्भः) गर्भ इव वर्त्तमानः (वनानाम्) संभजनीयानां पदार्थानां रश्मीनां वा (गर्भः) गूढ इव स्थितः (च) समुच्चये (स्थाताम्) स्थावराणाम्। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति तुक्। (गर्भः) गर्भ इवावृतः (चरथाम्) जङ्गमानाम्। अत्र वाच्छन्दसीति नुडागमाभावः। (अद्रौ) शैलादो घने पदार्थे (चित्) अपि (अस्मै) जगदुपकाराय कर्मभोगाय वा (अन्तः) मध्ये (दुरोणे) गृहे (विशाम्) प्रजानाम् (न) इव (विश्वः) अखिलश्चेतनस्वरूपः (अमृतः) अनुत्पन्नत्वान्नाशरहितः (स्वाधीः) यः सुष्ठु समन्ताद् ध्यायति सर्वान् पदार्थान् सः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। (अश्याः) (वनेम) (विश्वानि) (दैव्यानि) (व्रता) इति पञ्चपदानां पूर्वस्मान्मन्त्रादनुवृत्तिश्च। मनुष्यैर्नहि चिन्मयेन परमेश्वरेण विना किंचिदपि वस्त्वव्याप्तमस्ति। नहि चिन्मयो जीवः स्वकर्मफलभोगविरह एकक्षणमपि वर्त्तते तस्मात्तं सर्वाभिव्याप्तमन्तर्यामिणं विज्ञाय सर्वदा पापकर्माणि त्यक्त्वा धर्म्यकार्य्येषु प्रवर्त्तितव्यम्। यथा पृथिव्यादिककार्य्यरूपाः प्रजा अनेकेषां तत्त्वानां संयोगेनोत्पन्ना वियोगेन विनष्टाश्च भवन्ति तथैष ईश जीवकारणाख्या अनादित्वात् संयोगविभागेभ्यः पृथक्त्वादनादयो सन्तीति वेदितव्यम् ॥ २ ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हम लोग जो जगदीश्वर वा जीव (अपाम्) प्राण वा जलों के (अन्तः) बीच (गर्भः) स्तुतियोग्य वा भीतर रहनेवाला (वनानाम्) सम्यक् सेवा करने योग्य पदार्थ वा किरणों में (गर्भः) गर्भ के समान आच्छादित (अद्रौ) पर्वत आदि बड़े-बड़े पदार्थों में (चित्) भी गर्भ के समान (दुरोणे) घर में गर्भ के समान (विश्वः) सब चेतन तत्त्वस्वरूप (अमृतः) नाशरहित (स्वाधीः) अच्छे प्रकार पदार्थों का चिन्तन करनेवाला (विशाम्) प्रजाओं के बीच आकाश वायु के (न) समान बाह्य देशों में भी सब दिव्य गुण कर्मयुक्त व्रतों को (अश्याः) प्राप्त होवे, (अस्मै) उसके लिये सब पदार्थ हैं, उसका (आ वनेम) सेवन करें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। पूर्व मन्त्र से (अश्याः) (वनेम) (विश्वानि) (दैव्यानि) (व्रता) इन पाँच पदों की अनुवृत्ति आती है। मनुष्यों को ज्ञानस्वरूप परमेश्वर के विना कोई भी वस्तु अव्याप्त नहीं है और चेतनस्वरूप जीव अपने कर्म के फल भोग से एक क्षण भी अलग नहीं रहता। इससे उस सबमें अभिव्याप्त अन्तर्य्यामी ईश्वर को जानकर सर्वदा पापों को छोड़ कर धर्मयुक्त कार्यों में प्रवृत्त होना चाहिये। जैसे पृथिवी आदि कार्यरूप प्रजा अनेक तत्त्वों के संयोग से उत्पन्न और वियोग से नष्ट होती है, वैसे यह ईश्वर जीव कारणरूप आदि वा संयोग-वियोग से अलग होने से अनादि है, ऐसा जानना चाहिये ॥ २ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी हे जाणावे की जो परमेश्वर (किंवा विद्वान) वेदाद्वारे अंर्तयामी रूपाने व उपदेशाद्वारे माणसांना सर्व विद्या देतो. त्या परमेश्वराची उपासना व (विद्वानांचा) सत्संग करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni abides at the heart of the waters and the pranic energies of the universe. It is at the heart of forests, sunbeams and all the lovely and beloved beauties of the world. It is at the heart of all that is still and all that moves. It abides in the cloud and in the mountain and it is the centre of the homes of people. Universal, immortal, free and absolute, it is the very life and ruler of everything in nature as it is the life and ruler of all the people for their sake only.
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