ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 70/ मन्त्र 6
ए॒ता चि॑कित्वो॒ भूमा॒ नि पा॑हि दे॒वानां॒ जन्म॒ मर्तां॑श्च वि॒द्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता । चि॒कि॒त्वः॒ । भूम॒ । नि । पा॒हि॒ । दे॒वाना॑म् । जन्म॑ । मर्ता॑न् । च॒ । वि॒द्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एता चिकित्वो भूमा नि पाहि देवानां जन्म मर्तांश्च विद्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठएता। चिकित्वः। भूम। नि। पाहि। देवानाम्। जन्म। मर्तान्। च। विद्वान् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 70; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे चिकित्वो विद्वान् ! यस्त्वं क्षपावानग्निरिवास्मै रयीणामरं प्रापणायैतान् परं सूक्तैर्भूम देवानां जन्म मर्त्तांश्चादन्यश्च दाशत् स त्वं हि खल्वेतानि निपाहि ॥ ३ ॥
पदार्थः
(सः) परमेश्वरो जीवो वा (हि) खलु (क्षपावान्) क्षपाः प्रशस्ता रात्रयो विद्यन्ते यस्मिन् यस्य वा सः (अग्निः) यथा सर्वसुखदात्री विद्युत् (रयीणाम्) विद्यारत्नराज्यादिपदार्थानाम् (दाशत्) दाश्यात् (यः) उक्तार्थः (अस्मै) प्रापणाय (अरम्) अलम् (सूक्तैः) शोभनान्युक्तानि वचनानि येषूपदेशनेषु तेषु (एता) एतानि (चिकित्वः) ज्ञानवन् (भूम) भूमानि बहूनि (नि) नितराम् (पाहि) रक्ष (देवानाम्) दिव्यानां गुणानां विदुषां वा (जन्म) प्रादुर्भावम् (मर्त्तान्) मनुष्यान् (च) समुच्चये (विद्वान्) यो वेत्ति सः ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः परमेश्वरो विद्वान् वा वेदान्तर्यामित्वद्वारोपदेशैर्वा सर्वा विद्या सर्वमनुष्येभ्यः प्रयच्छति, स एवोपास्यः सङ्गमनीयश्चेति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह मनुष्य कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (चिकित्वः) ज्ञानवान् जगदीश्वर वा (विद्वान्) जाननेवाले ! (यः) जो (क्षपावान्) जिसमें उत्तम बहुत रात्रि हैं (अग्निः) सब सुखों की देनेवाली बिजुली के समान (अस्मै) इन (रयीणाम्) विद्यारत्न राज्य आदि पदार्थों की (अरम्) पूर्णप्राप्ति के लिये (एता) इन (अरम्) पूर्ण (सूक्तैः) उत्तम वचनों से (भूम) बहुत (देवानाम्) दिव्यगुण वा विद्वानों के (जन्म) जन्म (मर्त्तान्) मनुष्य (च) मनुष्य से भिन्नों को (दाशत्) देते हो (सः) सो आप (हि) निश्चय करके इनकी (नि पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को जो परमेश्वर वा विद्वान् वेद वा अन्तर्यामि द्वारा तथा उपदेशों से सब मनुष्यों के लिये सब विद्याओं को देता है, उसकी उपासना तथा सत्सङ्ग करना चाहिये ॥ ३ ॥
विषय
क्षपावान् व रयि - प्रदाता
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (हि) = निश्चय से (क्षपावान्) = सब रस - वृत्तियों के संहार करनेवाले हैं [क्षपयति, Throws away], उपासक के हृदय से अब अशुभवृत्तियों को दूर करते हैं । इस प्रकार वे (अग्निः) = अग्रणी हैं । इन उपासकों को जीवन - पथ पर आगे और आगे ले - चलते हैं ।
२. (रयीणां दाशत्) = धनों के देनेवाले हैं, उस व्यक्ति के लिए (यः) = जोकि (अस्मै) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (सूक्तैः) = [सु+उक्त] उत्तम मधुर शब्दों के द्वारा (अरम्) = अपने जीवन को सुभूषित करते हैं [अरम् - भूषणम्], इसे शक्तिशाली बनाते हैं [अरम् - शक्ति] अथवा जो सूक्तों के द्वारा अपने जीवनों से द्वेष को दूर करते हैं [अरम् - वारण] सूक्तों को बोलने के लिए ही प्रभु ने हमें संसार में भेजा है - “सूक्ता ब्रूहि” । यदि हम प्रभु के आदेश का पालन करते हुए चलते हैं तो सब आवश्यक धनों के पात्र बनते हैं ।
३. हे (चिकित्वः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (भूम) = इस पृथिवी पर (एता) = इन प्राणियों का - आपके सूक्तवचन बोलनेरूप आदेश का पालन करनेवालों का (निपाहि) = निश्चय से आप रक्षण कीजिए । (देवानां जन्म) = सूर्यादि देवों के जन्म को (च) = और (मर्तान्) = मनुष्यों को (विद्वान्) = आप जानते हैं । कोई भी वस्तु आपके ज्ञानक्षेत्र से परे नहीं हैं । सर्वज्ञ होने के कारण आपके रक्षण में कमी हो भी कैसे सकती है । आप धनों से भौतिक जीवनों की उन्नति में सहायक होते हैं और राक्षसवृत्तियों के संहार के द्वारा अध्यात्म - उन्नति में ।
भावार्थ
भावार्थ - जो भी अपने जीवन को सूक्तों से अलंकृत करता है, प्रभु उसे आवश्यक रयि = धन देते हैं और उसकी राक्षसवृत्तियों का संहार कर देते हैं ।
विषय
अग्नि के समान भोक्ता राजा, स्वामी, ईश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
यह परमेश्वर ( साधुः न ) साधना करने वाले भक्त के समान ही ( गृध्नुः ) उसकी उन्नति करने का अभिलाषी होता है । वह ( अस्ता इव ) शस्त्रास्त्र की वर्षा करने वाले शूरवीर के समान दुःखों को दूर फेंक देने वाला या पृथिवी आदि लोकों का संचालक और ( शूरः ) सर्वत्र व्यापक है । वह ( याता इव ) चढ़ाई करने वाले राजा के समान ( त्वेषः ) सदा अन्धकार पर विजय पाने वाला अति कान्तिमय होकर ( समत्सु ) आत्मा का परमात्मा के साथ मिलकर प्राप्त करने योग्य आनन्द लाभ के अवसरों पर अनुभव करने योग्य है । राजा या सेनापति पक्ष में—वह ( गृध्रुः ) राज्य वृद्धि की आकांक्षा करता है, धनुर्धर के समान सदा शूरवीर सेना बल से प्रयाण करने वाला होकर (भीमः) अति भयानक ( समत्सु त्वेषः ) संग्राम के अवसरों पर अति तेजस्वी हो । इवश्चार्थः ॥ इति चतुर्दशोवर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ४ विराट्पक्तिः । २ पङ्क्तिः ३, ५ निचृत् पंक्तिः । ६ याजुषी पंक्तिः ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! परमेश्वर व धर्मात्मा विद्वानाशिवाय शत्रूंना जिंकणारा, दंड देणारा, सुखाची वृद्धी करणारा दुसरा कुणी आपला राजा नाही. असा निश्चय करून सर्व लोकांनी परोपकारी बनावे व सुख वाढवावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Agni is the lord of night and day. It is the giver of wealth and power in ample measure for anyone who adores it with hymns of divinity. It is aware of all, knows the manifestations and operations of all the divinities of nature, and it knows all that are mortal. Lord of knowledge, wealth and power, protect and promote all these children of nature and the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni (God) is taught further in the third mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) God, who is at the Giver of knowledge to all through these hymns is the Destroyer of the night of ignorance as fire is of the dark night. His gives much wealth to His devotees .O God! protect all these many creatures on earth as Thou being Omniscient, Knowest the origin of the divine virtues and enlightened persons and ordinary men. (2) O wise learned man, you also give instructions to all through these Vedic hymns and destroy the night of nescience. Knowing the nature of all divine virtues and enlightened and ordinary mort.ls, you should protect all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(चिकित्व:) ज्ञानवन्-किती-संज्ञाने =Full of knowledge. (देवानाम्) दिव्यानां गुणानां विदुषां वा = Of the divine attributes and enlightened persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should adore only that God who being the universal Spirit pervading all and through the Vedas gives instructions to all and they should have communion with Him.
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