ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
आपो॒ न दे॒वीरुप॑ यन्ति हो॒त्रिय॑म॒वः प॑श्यन्ति॒ वित॑तं॒ यथा॒ रजः॑। प्रा॒चैर्दे॒वासः॒ प्र ण॑यन्ति देव॒युं ब्र॑ह्म॒प्रियं॑ जोषयन्ते व॒राइ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठआपः॑ । न । दे॒वीः । उप॑ । य॒न्ति॒ । हो॒त्रिय॑म् । अ॒वः । प॒श्य॒न्ति॒ । विऽत॑तम् । यथा॑ । रजः॑ । प्रा॒चैः । दे॒वासः॑ । प्र । न॒य॒न्ति॒ । दे॒व॒ऽयुम् । ब्र॒ह्म॒ऽप्रिय॑म् । जो॒ष॒य॒न्ते॒ । व॒राःऽइ॑व ॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो न देवीरुप यन्ति होत्रियमवः पश्यन्ति विततं यथा रजः। प्राचैर्देवासः प्र णयन्ति देवयुं ब्रह्मप्रियं जोषयन्ते वराइव ॥
स्वर रहित पद पाठआपः। न। देवीः। उप। यन्ति। होत्रियम्। अवः। पश्यन्ति। विऽततम्। यथा। रजः। प्राचैः। देवासः। प्र। नयन्ति। देवऽयुम्। ब्रह्मऽप्रियम्। जोषयन्ते। वराःऽइव ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
ये देवासो मेघमापो न देवीरुपयन्ति तथा प्राचैः सह विततं रजो होत्रियमवः पश्यन्ति वराइव ब्रह्मप्रियं देवयुं प्रणयन्ति जोषयन्ते ते सततं सुखिनः कथं न स्युः ॥ २ ॥
पदार्थः
(आपः) व्याप्तिशीलानि (न) इव (देवीः) देदीप्यमानाः (उप) सामीप्ये (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (होत्रियम्) दातव्यादातव्यानामिदम् (अवः) रक्षणादिकम् (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते (विततम्) विस्तृतम् (यथा) येन प्रकारेण (रजः) सूक्ष्मं सर्वलोककारणं परमाण्वादिकम् (प्राचैः) प्राचीनैर्विद्वद्भिः (देवासः) प्रशस्ता विद्वांसः (प्र) (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (देवयुम्) आत्मानं देवमिच्छन्तम् (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वरो वेदो वा प्रियो यस्य तम् (जोषयन्ते) प्रीतयन्ति (वराइव) यथा प्रशस्तविद्याधर्मकर्मस्वभावाः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। केन हेतुनेमे विद्वांस इमेऽविद्वांस इति विवेचनीयमित्यात्राह जलवच्छान्ता, प्राणवत्प्रियाः, धर्म्यादिदिव्यक्रियाः कुर्युः, सर्वेषां शरीरात्मनोः यथार्थरक्षणं जानीयुः, भूगर्भादिविद्याभिः प्राचीनवेदविद्विद्वद् वर्त्तेरन्, वेदद्वारेश्वरप्रणीतं धर्मं प्रचारयेयुस्ते विद्वांसो विज्ञेयाः, एतद्विपरीताः स्युस्तेऽविद्वांसश्चेति निश्चिनुयुः ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जो (देवासः) विद्वान् लोग मेघ को (आपो न) जैसे जल प्राप्त होते हैं, वैसे (देवीः) विदुषी स्त्रियों को (उपयन्ति) प्राप्त होते हैं और (यथा) जैसे (प्राचैः) प्राचीन विद्वानों के साथ (विततम्) विशाल और जैसे (रजः) परमाणु आदि जगत् का कारण (होत्रियम्) देने-लेने के योग्य (अवः) रक्षण को (पश्यन्ति) देखते हैं (वराइव) उत्तम पतिव्रता विद्वान् स्त्रियों के समान (ब्रह्मप्रियम्) वेद और ईश्वर की आज्ञा में प्रसन्न (देवयुम्) अपने आत्मा को विद्वान् होने की चाहनायुक्त (प्रणयन्ति) नीतिपूर्वक करते और (जोषयन्ते) इसका सेवन करते औरों को ऐसा कराते हैं, वे निरन्तर सुखी क्यों न हो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। किस हेतु से विद्वान् और अविद्वान् भिन्न-भिन्न कहाते हैं, इसका उत्तर है कि जो धर्मयुक्त शुद्ध क्रियाओं को करें, सबके शरीर और आत्मा का यथावत् रक्षण करना जानें और भूगर्भादि विद्याओं से प्राचीन आप्त विद्वानों के तुल्य वेदद्वारा ईश्वरप्रणीत सत्यधर्म मार्ग का प्रचार करें, वे विद्वान् हैं और जो इनसे विपरीत हों वे अविद्वान् हैं, इस प्रकार निश्चय से जानें ॥ २ ॥
विषय
ब्रह्म - प्रिय
पदार्थ
१. (आपः) = जल (न) = जैसे आचमन के समय (होत्रियम्) = होता के चम्मच में (उपयन्ति) = प्राप्त होते है, उसी प्रकार (देवीः) = सब दिव्यताएँ इस (होत्रियम्) = होता के समान वृत्तिवाले पुरुष को प्राप्त होती हैं । २. ये होता के समान वृत्तिवाले - दानपूर्वक अदन करनेवाले पुरुष सदा (अवः पश्यन्ति) = नमस्वभाव होने से नीचे की ओर देखनेवाले होते हैं, (यथा) = जितना कि (रजः विततम्) = इनका ज्ञान का प्रकाश फैला हुआ होता है, ('ब्रह्मणा अर्वाङ् विपश्यति') [अथर्व०] = ज्ञान से नीचे देखनेवाला, नम्न बनता है; "विद्या ददाति विनयम्" = विद्या विनय प्रदान करती है । ३. (देवयुम्) = देवों की कामनावाले, दिव्यवृत्तियों को अपनानेवाले पुरुष को (देवासः) = सब देव (प्राचैः) = [प्र अञ्च्] उन्नति के मार्गों से (प्रणयन्ति) = प्रकर्षेण ले = जाते हैं । जब हमारी दिव्यगुणों की प्राप्ति की प्रबल कामना होती है तब प्रभुकृपा से हमारा सम्पर्क देवों से होता है और वे हमें उन्नति = पथ पर ले = चलनेवाले होते हैं । ४. (ब्रह्मप्रियम्) = [ब्रह्म प्रियं यस्मै] इस ज्ञान व प्रभु से प्रीतिवाले पुरुष को सब देव (जोषयन्ते) = इस प्रकार प्रीतिपूर्वक सेवित करते हैं, (इव) = जैसे (वराः) = वर = कन्या के वरण की कामनावाले पुरुष कन्या का । एक वर वधू की सब आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला होता है । इसी प्रकार सब देव इस ब्रह्मप्रिय व्यक्ति को किसी प्रकार की कमी नहीं रहने देते । उसको उचित साधन प्राप्त कराके उन्नति = पथ पर ले = चलते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = होता की वृत्तिवाले को दिव्यताएँ प्राप्त होती हैं । ये दिव्यता प्राप्त व्यक्ति अपने ज्ञान के अनुपात में नम्रता को धारण करते हैं । सब देव इन्हें उन्नति = पथ पर ले = चलते हैं और इन ब्रह्म = व्यक्तियों को उन्नति के साधनभूत पदार्थों के प्रापण से सेवित करते हैं ।
विषय
स्त्रियों और विद्वानों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( आपः न ) जिस प्रकार जलधाराएं स्वयं नीचे स्थल को प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार ( देवीः ) विदुषी स्त्रियें ( होत्रियम् ) प्रेम पूर्वक स्वीकारने वाले विद्वान् पुरुष को ( उप यन्ति ) प्राप्त हों । ( यथा ) जिस प्रकार लोग ( रजः ) अन्तरिक्ष या सूर्य को ( विततम् ) विस्तृत रूप में देखते हैं उसी प्रकार वे स्त्रियें तथा प्राप्त विद्वान् जन ( अवः ) रक्षास्थान तथा ज्ञान को भी साक्षात् करें । ( देवासः ) विद्वान् तेजस्वी, ज्ञान की कामना करने हारे पुरुष ( प्राचैः ) अपने आगे २ या अपने उत्तम रीति से आगे २ चलने वाले उत्तम विद्वानों सहित ( देवयुम्) योग्य शिष्यों के स्वामी पुरुष को ( प्र नयन्ति ) प्रमुख स्थान पर स्थापित करते हैं। और वे सब मिल कर ( वराः इव ) वरण करने योग्य या श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार कन्या के स्वयंवर में आकर कन्या की अभिलाषा करते हैं उसी प्रकार वे भी मिल कर (ब्रह्मप्रियम्) वेद ज्ञान, परमेश्वर और अति ऐश्वर्य से पूर्ण उनके प्रिय विद्वान् पुरुष को ( जोषयन्ते ) प्रेमपूर्वक प्राप्त करते हैं, उसकी सेवा शुश्रूषा करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-६ गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४, ५ निचृज्जगती । २ जगती । ६ त्रिष्टुप् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- ये देवासः मेघम् आपः न देवीः उप यन्ति तथा प्राचैः सह विततं {यथा} रजः होत्रियम् अवः पश्यन्ति वराइव ब्रह्मप्रियं देवयुं प्र नयन्ति जोषयन्ते ते सततं सुखिनः कथं न स्युः ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- (ये)=जो, (देवासः) प्रशस्ता विद्वांसः= प्रशस्त विद्वान् लोग, (मेघम्)=बादल के, (आपः) व्याप्तिशीलानि= विस्तारित होकर व्याप्त होने के स्वभाव के, (न) इव=समान, (देवीः) देदीप्यमानाः=बार-बार अतिशय रूप से दीप्त होनेवाले, (उप) सामीप्ये=समीप से, (यन्ति) प्राप्नुवन्ति=प्राप्त होते हैं, (तथा)=वैसे ही, (प्राचैः) प्राचीनैर्विद्वद्भिः=प्राचीन समय के विद्वानों के, (सह)=साथ, (विततम्) विस्तृतम्=विस्तृत रूप से, {यथा} येन प्रकारेण=जिस प्रकार से, (रजः) सूक्ष्मं सर्वलोककारणं परमाण्वादिकम्=समस्त संसार के कारणरूप सूक्ष्म परमाणु आदि, (होत्रियम्) दातव्यादातव्यानामिदम्=इन देने और लेनेवाले होताओं के, (अवः) रक्षणादिकम्=रक्षा आदि के कार्य का, (पश्यन्ति) प्रेक्षन्ते=निरीक्षण करते हैं, (वराइव) यथा प्रशस्तविद्याधर्मकर्मस्वभावाः=जैसे प्रशस्त विद्या, धर्म, कर्म और स्वभाव हैं, (ब्रह्मप्रियम्) ईश्वरो वेदो वा प्रियो यस्य तम्=वैसे ही तुम ईश्वर और वेद के प्रिय [विद्वान्] हो। (देवयुम्) आत्मानं देवमिच्छन्तम्=आत्मा से ईश्वर को चाहते हुए, (प्र)= प्रकृष्ट रूप से, (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति=प्राप्त करते हैं, (जोषयन्ते) प्रीतयन्ति= प्रीति करते हैं, (ते)=वे, (सततम्)=निरन्तर, (सुखिनः)= सुखी, (कथम्)=क्यों, (न)=न, (स्युः)=होवें ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। किस हेतु से ये विद्वान् लोग ऐसी विवेचनीय बात को यहाँ कहते हैं। जल के समान शान्त और प्राण के समान प्रिय और धर्म आदि के दिव्य कार्यों को कीजिये। सबके शरीर और आत्मा का यथावत् रक्षण करना जानें और भूगर्भ आदि विद्याओं से प्राचीन वेद के जाननेवाले विद्वानों के समान व्यवहार करें। वेद के द्वारा ईश्वर से निर्मित धर्म का प्रचार करें, वे विद्वान् लोग हैं, ऐसा जानो। जो इसके विपरीत हों, वे अविद्वान् हैं, इस प्रकार निश्चय से जानें ॥२॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- होता- यज्ञ में आहुति के लिये द्रव्य सामग्री और घृत हवि कहलाती हैं और इनके देने और लेनेवाले होता कहलाते हैं।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (ये) जो (देवासः) प्रशस्त विद्वान् लोग (मेघम्) बादल के (आपः) विस्तारित होकर व्याप्त होने के स्वभाव के (न) समान (देवीः) बार-बार अतिशय रूप से दीप्त होनेवाले और (उप) समीप से (यन्ति) प्राप्त होते हैं। (तथा) वैसे ही (प्राचैः) प्राचीन समय के विद्वानों के (सह) साथ (विततम्) विस्तृत रूप से, {यथा} जिस प्रकार से (रजः) समस्त संसार के कारणरूप सूक्ष्म परमाणु आदि (होत्रियम्) इन देने और लेनेवाले होताओं के (अवः) रक्षा आदि के कार्य का (पश्यन्ति) निरीक्षण करते हैं और (वराइव) जैसे प्रशस्त विद्या, धर्म, कर्म और स्वभाव के हैं। (ब्रह्मप्रियम्) वैसे ही तुम ईश्वर और वेद के प्रिय विद्वान् हो। (देवयुम्) आत्मा से ईश्वर को चाहते हुए, [उसे] (प्र) प्रकृष्ट रूप से (नयन्ति) प्राप्त करते हैं [और उससे] (जोषयन्ते) प्रीति करते हैं। (ते) वे (कथम्) क्यों (न) न (सततम्) निरन्तर (सुखिनः) सुखी (स्युः)होवें ॥२॥
संस्कृत भाग
आपः॑ । न । दे॒वीः । उप॑ । य॒न्ति॒ । हो॒त्रिय॑म् । अ॒वः । प॒श्य॒न्ति॒ । विऽत॑तम् । यथा॑ । रजः॑ । प्रा॒चैः । दे॒वासः॑ । प्र । न॒य॒न्ति॒ । दे॒व॒ऽयुम् । ब्र॒ह्म॒ऽप्रिय॑म् । जो॒ष॒य॒न्ते॒ । व॒राःऽइ॑व ॥ विषयः- पुनर्विद्वांसः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)-अत्रोपमालङ्कारः। केन हेतुनेमे विद्वांस इमेऽविद्वांस इति विवेचनीयमित्यात्राह जलवच्छान्ता, प्राणवत्प्रियाः, धर्म्यादिदिव्यक्रियाः कुर्युः, सर्वेषां शरीरात्मनोः यथार्थरक्षणं जानीयुः, भूगर्भादिविद्याभिः प्राचीनवेदविद्विद्वद् वर्त्तेरन्, वेदद्वारेश्वरप्रणीतं धर्मं प्रचारयेयुस्ते विद्वांसो विज्ञेयाः, एतद्विपरीताः स्युस्तेऽविद्वांसश्चेति निश्चिनुयुः ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. कोणत्या कारणामुळे विद्वान व अविद्वान भिन्न भिन्न मानले जातात. त्याचे उत्तर असे की, जे धर्मयुक्त शुद्ध क्रिया करतात, सर्वांच्या शरीर व आत्म्याचे रक्षण करणे जाणतात व भूगर्भ इत्यादी विद्यांनी प्राचीन आप्त विद्वानांप्रमाणे वेदाद्वारे ईश्वरप्रणीत सत्यधर्माच्या मार्गाचा प्रचार करतात ते विद्वान व जे या विपरीत असतील ते अविद्वान आहेत, हे निश्चयाने जाणावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as holy waters go to the sea and the vapours concentrate in the cloud, so do holy people go to yajna and to Indra, lord of yajna, and as they see the yajna spread around from the vedi as shelter of life’s protection, so they conduct themselves in the tradition of ancient scholars and go forward to the holiest of the holies of existence and, like the best people of knowledge, action and devotion, love the divine lord and the divine lore as the highest boon of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do learned persons do is taught in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As waters reach the cloud, noble learned persons approach educated wives shining with good virtues. They see the subtle cause of the vast universe in the form of atoms etc. along with other educated persons and realise the protection which is to be accepted and given. As noble educated and virtuous ladies accept as their partners in life lovers of God, Vedas and divine life, they also serve and love such noble persons. Why should not such persons enjoy happiness?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रजः) सूक्ष्मं सर्वलोककारणं परमाण्वादिकम् । = Subtle cause of the vast Universe in the form of the atoms etc. (वरा:) यथा प्रशस्तविद्या धर्म कर्मस्वाभावाः । = Whose knowledge, righteousness and actions are admirable.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in this Mantra. How is it to be known who are truly learned and who are not is taught in the Mantra. Truly learned persons are those who are cam and quiet like waters, beloved like the Pranas (Vital breaths) engaged always in doing divine deeds, knowers of the means of truly protecting the body and soul of all, behaving like the ancient or experienced Vedic scholars and preachers of the Divine Dharma taught by God through the Vedas. Those whose conduct is contrary to the above attributes are to be considered as not truly learned.
Subject of the mantra
Then, what should learned people do? This topic has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye) =Those, (devāsaḥ) =people who are highly learned, (megham) =of cloud, (āpaḥ) =the nature of a cloud which expands and spreads, (na) =like, (devīḥ)=repeatedly shining extremely bright and, (upa) =by proximity, (yanti) =getting attained, (tathā) =similarly, (prācaiḥ)=scholars of ancient times, (saha) =with, (vitatam)= in detail, {yathā} =in which way, (rajaḥ)=the primordial cause of the entire world, the subtle atoms etc., (hotriyam)= of these givers and takers hotās, (avaḥ)=work of protection etc., (paśyanti)=observe and, (varāiva)=as they are of eminent knowledge, righteousness, action and nature, (brahmapriyam)= similarly, you are a beloved scholar of God and Vedas, (devayum)=desiring God by the soul, [use]=to him, (pra)=eminently, (nayanti) =attain, [aura usase]=and with him. (joṣayante) =have love, (te) =they, (katham) =why, (na) =not, (satatam)=forever, (sukhinaḥ) =happy, (syuḥ)=be.
English Translation (K.K.V.)
The people who are highly learned and who are very bright and close to the each other, are found again and again, just like the nature of a cloud which expands and spreads. Similarly, the scholars of ancient times observed in detail the primordial cause of the entire world, the subtle atoms etc. and work of protection etc. of these givers and takers hotās and just as they are of eminent knowledge, righteousness, action and nature. Similarly, you are a beloved scholar of God and Vedas. Desiring God by the soul, we attain Him eminently and love Him. Why shouldn't they be happy forever?
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. For what reason do these learned people say such discussed things here? Be as calm as water and as dear as life-breath and do the divine works of righteousness etc. Know how to properly protect everyone's body and soul and behave like the scholars who know the ancient Vedas, geology et cetera. Propagate the righteousness created by God through Vedas, they are learned people, who know this. Those who are contrary to this are nescient, thus know with certainty.
TRANSLATOR’S NOTES-
Hotā- The substances and ghee offered in yajna are called as havi and their givers and takers are called Hotā.
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