ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
उ॒प॒ह्व॒रेषु॒ यदचि॑ध्वं य॒यिं वय॑इव मरुतः॒ केन॑ चित्प॒था। श्चोत॑न्ति॒ कोशा॒ उप॑ वो॒ रथे॒ष्वा घृ॒तमु॑क्षता॒ मधु॑वर्ण॒मर्च॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽह्व॒रेषु॒ । यत् । अचि॑ध्वम् । य॒यिम् । वयः॑ऽइव । म॒रु॒तः॒ । केन॑ । चि॒त् । प॒था । श्चोत॑न्ति । कोशाः॑ । उप॑ । वः॒ । रथे॑षु । आ । घृ॒तम् । उ॒क्ष॒त॒ । मधु॑ऽवर्ण॑म् । अर्च॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपह्वरेषु यदचिध्वं ययिं वयइव मरुतः केन चित्पथा। श्चोतन्ति कोशा उप वो रथेष्वा घृतमुक्षता मधुवर्णमर्चते ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽह्वरेषु। यत्। अचिध्वम्। ययिम्। वयःऽइव। मरुतः। केन। चित्। पथा। श्चोतन्ति। कोशाः। उप। वः। रथेषु। आ। घृतम्। उक्षत। मधुऽवर्णम्। अर्चते ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 87; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
सभाध्यक्षस्य भृत्यादयः किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मरुतः सभाध्यक्षादयो ! यूयमुपह्वरेषु रथेषु स्थित्वा वय इव केनचित्पथा यद्यं ययिमचिध्वं संचिनुत तमर्चते दत्त ये वो युष्माकं रथाः कोशा इवाकाशे श्चोतन्ति तेषु मधुवर्णं घृतमुपोक्षत। अग्निवायुकलागृहसमीपे सिञ्चत ॥ २ ॥
पदार्थः
(उपह्वरेषु) उपस्थितेषु कुटिलेषु मार्गेषु (यत्) यम् (अचिध्वम्) संचिनुत (ययिम्) प्राप्तव्यं विजयम् (वयइव) यथा पक्षिणस्तथा (मरुतः) सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्याः (केन) (चित्) अपि (पथा) मार्गेण (श्चोतन्ति) क्षरन्तु संचलन्तु (कोशाः) यथा मेघाः। कोश इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (उप) (वः) युष्माकम् (रथेषु) विमानादियानेषु (आ) समन्तात् (घृतम्) उदकम् (उक्षत) सिञ्चत। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (मधुवर्णम्) यन्मधुरं च वर्णोपेतं च तत् (अर्चते) सत्कर्त्रे सभाद्यध्यक्षप्रियाय ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विमानादियानानि रचयित्वा तत्राग्निवायुजलस्थानानि निर्माय तत्र तत्र तानि स्थापयित्वा कलाभिः संचाल्य वाष्पादीनि संनिरुद्ध्यैतान्युपरि नीत्वा पक्षिवन्मेघवच्चाकाशमार्गेण यथेष्टं स्थानं गत्वागत्य व्यवहारेण युद्धेन विजयं राज्यधनं वा प्राप्यैतैः परोपकारं कृत्वा निरभिमानिभिर्भूत्वा सर्व आनन्दाः प्राप्तव्याः, एते सर्वेभ्यः प्रापयितव्याश्च ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
सभाध्यक्ष के कामवाले मनुष्य क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) सभा आदि कामों में नियत किये हुए मनुष्यो ! तुम (उपह्वरेषु) प्राप्त हुए टेढ़े-सूधे भूमि आकाशादि मार्गों में (रथेषु) विमान आदि रथों पर बैठ (वयइव) पक्षियों के समान (केनचित्) किसी (पथा) मार्ग से (यत्) जिस (ययिम्) प्राप्त होने योग्य विजय को (अचिध्वम्) सम्पादन करो, जाओ-आओ उसको (अर्चते) जिसका सत्कार करते और सभा आदि कामों के अधीश जिसको प्यारे हैं, उसके लिये देओ, जो (वः) तुम्हारे रथ (कोशाः) मेघों के समान आकाश में (श्चोतन्ति) चलते हैं, उनमें (मधुवर्णम्) मधुर और निर्मल (घृतम्) जल को (उप+आ+उक्षत) अच्छे प्रकार उपसिक्त करो अर्थात् उन रथों की आग और पवन के कलघरों के समीप अच्छे प्रकार छिड़को ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि विमान आदि रथ रचकर उनमें आग, पवन और जल के घरों को बनाकर, उनमें आग, पवन, जल धर कर कलों से उनको चलाकर उनकी भाप रोक रथों को ऊपर ले जायें, जैसे कि पखेरू वा मेघ जाते हैं, वैसे आकाश मार्ग से अभीष्ट स्थान को जा-आकर व्यवहार से धन और युद्ध सर्वथा जीत वा राज्यधन को प्राप्त होकर उन धन आदि पदार्थों से परोपकार कर निरभिमानी होकर सब प्रकार के आनन्द पावें और उन आनन्दों को सबके लिये पहुँचावें ॥ २ ॥
विषय
अर्चना व वृष्टि
पदार्थ
१. आधिदैविक जगत् में 'मरुतः' का अर्थ है वायुएँ । ये वायुएँ मेघों को उस - उस स्थान में प्राप्त कराके वर्षा करवाती हैं । इस बात को मन्त्र में इस प्रकार कहा है कि हे (मरुतः) = वायुओ ! आप (वयः इव) = पक्षियों की भांति (केनचित् पथा) = किसी आकाश - मार्ग से गति करती हई (उपह्वरेषु) = [उपह्वरन्ति येषु] जिनमें कुटिलता से - टेढ़े - मेढ़े मार्ग से गति की जाता है, उन आकाश के प्रदेशों में (ययिम्) = इस गतिशील मेघ को (यत्) = जब (अचिध्वम्) = वर्षण - सामर्थ्य से उपचित करते हो, परिपूर्ण जलवाला करते हो, उस समय (कोशाः) = मेघ [नि० १/१०] (वः रथेषु) = आपके रथों में (उप) = समीपता से युक्त हए - हए (श्चोतन्ति) = वृष्टिजल को शरित करते हैं । मेघ मानो वायु के रथ पर बैठकर इन आकाश - मार्गों से एक स्थान पर एकत्र होते हैं और वहाँ अपने जल को बरसाते हैं । मानसून हवाएँ इन बादलों को लाती हैं । ये ही यहाँ ’मरुतः' कही गई हैं । इस प्रकार मरुतः हे वायुओ ! आप (अर्चते) = अर्चन व पूजन करनेवाले के लिए (मधुवर्णम्) = मधु के वर्णवाले अर्थात् अत्यन्त स्वच्छ व दीप्त (घृतम्) = जल को (आ उक्षत) = समन्तात् सिक्त करो । यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ प्रभुपूजन व बड़ों का आदर होता है वहाँ अनावृष्टिरूप आधिदैविक आपत्ति नहीं आती ।
भावार्थ
भावार्थ = वायुएँ आकाश - प्रदेशों में मेघों को लाकर वृष्टि करती हैं । जहाँ बड़ों का मान व प्रभुभजन चलता है, वहाँ अनावृष्टि - भय नहीं होता 'न वर्ष मैत्रावरुणं ब्रह्मज्यमभि वर्षति' - जिस राष्ट्र में ब्राह्मणों पर अत्याचार होता है अथवा सत्य [ब्रह्म] को दबाया जाता है, वहाँ वृष्टि नहीं होती ।
विषय
पक्षान्तर में वृष्टि विद्या और वायुओं का वर्णन ।
भावार्थ
( मरुतः उपह्वरेषु यत् ययिं केन चित् पथा अचिध्वम् ) वायुगण कुटिलता से जाने योग्य आकाश भागों में जाते हुए मेघ को किसी भी मार्ग से लाकर संचित कर देते हैं तब ( कोशाः चोतन्ति ) मेघ जल बरसाते हैं वायुगण ( रथेषु ) अपने वेगपूर्वक झकोरों में ही ( अर्चते ) जलाभिलाषी प्राणिवर्ग के लिये ( मधुवर्णम् घृतम् उक्षत ) मधुर जल बरसाते हैं उसी प्रकार हे ( मरुतः ) वीरो और विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( उपह्वरेषु ) कुटिल मार्गों वाले, दुर्गम, सुरक्षित स्थानों में ( वयः इव ) पक्षियों के समान ( केन चित् पथा ) आकाश आदि किसी भी अज्ञात मार्ग से जाकर ( ययिम् ) संग्रामों में प्राप्त करने योग्य विजयैश्वर्य को ( अचिध्वम् ) संचय कर लिया करो । ( वः ) आप लोगों के ( रथेषु ) रथों पर ( कोशा ) मेघों के समान (कोशा) शत्रुओं के तुणीर तथा राजा के खजाने ( चोतन्ति ) बाण और ऐश्वर्य बरसावें । और आप लोग ( अर्चते ) आप को सत्कार पूर्वक रखने वाले स्वामी के लिये ( मधुवर्णम् ) मधुर जल के समान स्वच्छ (घृतम्) तेज, बल और जल का (आ उक्षतम्) सेचन करो । उस को प्रकट करो उसका अभिषेक करो । विद्वानों के पक्ष में—( रथेषु घृतम् आ उक्षतम् ) विमानादि रथों में तैल, जलादि का सेचन करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः—१, २, ५ विराड् जगती । ३ जगती । ६ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- सभाध्यक्ष के कामवाले मनुष्य क्या करें, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मरुतः सभाध्यक्षादयः ! यूयम् उपह्वरेषु रथेषु स्थित्वा वयइव केन चित् पथा यत् यं ययिम् अचिध्वं संचिनुत तम् अर्चते दत्त ये वः युष्माकं रथाः कोशाः इव आकाशे श्चोतन्ति तेषु मधुवर्णं {आ} घृतम् उप उक्षत । अग्निवायुकलागृहसमीपे सिञ्चत ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मरुतः) सभाद्यध्यक्षादयः मनुष्याः=सभा आदि के अध्यक्ष आदि मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (उपह्वरेषु) उपस्थितेषु कुटिलेषु मार्गेषु=उपस्थित कुटिल मार्गों में, (रथेषु) विमानादियानेषु=विमान आदि यानों में, (स्थित्वा)=बैठकर, (वयइव) यथा पक्षिणस्तथा=पक्षियों जैसे, (केन)=किसी, (चित्) अपि=भी, (पथा) मार्गेण=मार्ग से, (यत्) यम्=जिस, (ययिम्) प्राप्तव्यं विजयम्= प्राप्त की जानेवाली विजय को, (अचिध्वम्) संचिनुत=अच्छे प्रकार से चुनते हो, (तम्)=उस, (अर्चते) सत्कर्त्रे सभाद्यध्यक्षप्रियाय=उत्तम कर्म करनेवाले सभा आदि के अध्यक्ष के प्रिय के लिये, (दत्त)=देकर के, (ये)=जो, (वः) युष्माकम्=तुम्हारे लिये, (रथाः)=यान आदि, (कोशाः) यथा मेघाः=बादलों के, (इव)=समान, (आकाशे)= आकाश में, (श्चोतन्ति) क्षरन्तु संचलन्तु=अच्छे प्रकार से चलाओ, (तेषु)=उनमें, (मधुवर्णम्) यन्मधुरं च वर्णोपेतं च तत्=जिससे मधुर रंग हट गया है, उसको, {आ} समन्तात्=हर ओर से, (घृतम्) उदकम्=जल का, (उप)=समीपता से, (उक्षत) सिञ्चत=सिञ्चन करो, (अग्निवायुकलागृहसमीपे)= अग्नि, वायु और कलागृह के समीप में, (सिञ्चत)= सिञ्चन करो ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों के द्वारा विमान आदि यानों का निर्माण करके उनमें अग्नि, वायु और जल के लिये स्थान बना करके वहाँ-वहाँ उन अग्नि, वायु और जल को रख करके यन्त्रों को चला करके वाष्प आदि से रोक करके उन यानों को ऊपर ले जाकर के, जैसे पक्षी मेघ के समान आकाश मार्ग से जाते हैं, वैसे ही इच्छित स्थानों में आवागमन करके, व्यवहार और युद्ध से राज्यधन को प्राप्त करके, परोपकार करके निरभिमानी हो करके सब प्रकार के आनन्दों को प्राप्त
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मरुतः) सभा आदि के अध्यक्ष आदि मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (उपह्वरेषु) उपस्थित कुटिल मार्गों में (रथेषु) विमान आदि यानों में (स्थित्वा) बैठकर (वयइव) पक्षियों जैसे (केन) किसी (चित्) भी (पथा) मार्ग से, (यत्) जिस (ययिम्) प्राप्त की जानेवाली विजय को (अचिध्वम्) अच्छे प्रकार से चुनते हो, (तम्) उस (अर्चते) उत्तम कर्म करनेवाले सभा आदि के अध्यक्ष के प्रिय के लिये (दत्त) देकर के (ये) जो (वः) तुम्हारे लिये (रथाः) यान आदि को (कोशाः) बादलों के (इव) समान (आकाशे) आकाश में (श्चोतन्ति) अच्छे प्रकार से चलाओ। (तेषु) उनमें, (मधुवर्णम्) जिससे मधुर रंग हट गया है, {आ} हर ओर से (घृतम्) जल का (उप) समीपता से (उक्षत) सिञ्चन करो। (अग्निवायुकलागृहसमीपे) अग्नि, वायु और कलागृह के समीप में (सिञ्चत) सिञ्चन करो ॥२॥
संस्कृत भाग
उ॒प॒ऽह्व॒रेषु॒ । यत् । अचि॑ध्वम् । य॒यिम् । वयः॑ऽइव । म॒रु॒तः॒ । केन॑ । चि॒त् । प॒था । श्चोत॑न्ति । कोशाः॑ । उप॑ । वः॒ । रथे॑षु । आ । घृ॒तम् । उ॒क्ष॒त॒ । मधु॑ऽवर्ण॑म् । अर्च॑ते ॥ विषयः- सभाध्यक्षस्य भृत्यादयः किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विमानादियानानि रचयित्वा तत्राग्निवायुजलस्थानानि निर्माय तत्र तत्र तानि स्थापयित्वा कलाभिः संचाल्य वाष्पादीनि संनिरुद्ध्यैतान्युपरि नीत्वा पक्षिवन्मेघवच्चाकाशमार्गेण यथेष्टं स्थानं गत्वागत्य व्यवहारेण युद्धेन विजयं राज्यधनं वा प्राप्यैतैः परोपकारं कृत्वा निरभिमानिभिर्भूत्वा सर्व आनन्दाः प्राप्तव्याः, एते सर्वेभ्यः प्रापयितव्याश्च ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी विमान इत्यादी रथ तयार करून त्यात अग्नी, पवन व जल यांची स्थाने निर्माण करून कलायुक्त यंत्राने त्यांची वाफ रोखावी व रथ वर घेऊन जावे जसे पक्षी किंवा मेघ वर जातात तसे आकाश मार्गाने अभीष्ट स्थानी जाणे येणे करून व्यवहाराद्वारे धन प्राप्त करावे व युद्ध संपूर्णपणे जिंकावे किंवा राज्यासाठी धन प्राप्त करावे व त्या धन इत्यादी पदार्थांनी परोपकार करावा. निरभिमानी बनून सर्व प्रकारे आनंद प्राप्त करावा व आनंद सर्वांना उपलब्ध करून द्यावा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Maruts, tempestuous heroes of the human nation, flying like birds by whatever path you choose, whatever the prize of success and victory you collect on your winding courses, the clouds consecrate you around your chariots, and shower golden honey-ghrta on the admiring faithfuls dedicated to you and your project.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the workers of the President of the Assembly do is taught in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O workers of the Presidents of the assemblies and Chiefs of the armies etc. who sitting in your vehicles like the aeroplanes flying like birds along a certain path, you get victory, you give the cerdit to those favourite attendants of the President etc. who honours you. Your aeroplanes travel in the sky like the clouds. Sprinkle in them sweet coloured water in the machines impelled by the proper combination of fire, air etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ययिम्) प्राप्तव्यंविजयम् = Victory that is to be achieved. (मरुतः) सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्या: = Presidents of the assemblies etc. (कोशा:) मेघाः कोश इति मेघनाम (निघ० १.१०) = Clouds. (घृतम् ) उदकम् = Water.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should manufacture aeroplanes and other Vehicles, should make there places for fire, air and water etc. and should impel or move them forward with machines, controlling the steam taking them upward, travelling freely in the sky like the birds and the clouds. They should utilise them in their business in achieving victory on their foes and for acquiring wealth for the State. They should engage themself in doing benevolent acts without any pride and thus enjoy all bliss and happiness. They should also cause bliss and happiness to others.
Translator's Notes
घृतम् इत्युदक नाम (निघ० १.१२) या-प्रापणे
Subject of the mantra
What should the people serving as the President of the Assembly do? This matter is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (marutaḥ)= President of the Assembly and other human beings, (yūyam) =all of you, (upahvareṣu) in the present crooked paths, (ratheṣu) =in aircraft etc,. (sthitvā) =sitting, (vayiva) =like birds, (kena) =any, (cit) =also, (pathā) =by path, (yat) =which, (yayim)=the victory to be achieved, (acidhvam) =choose well, (tam) =that, (arcate) =for the beloved of the President of the Assembly etc., who does good deeds, (datta) =giving, (ye) =who, (vaḥ) =for you, (rathāḥ) =to the aircraft etc., (kośāḥ) =of clouds, (iva) =like, (ākāśe)=in the sky, (ścotanti) =move well, (teṣu) =in them, (madhuvarṇam)=due to which the sweet color has been removed,{ā} =from all sides, (ghṛtam) =of water, (upa) =in proximity, (ukṣata) =irrigate, (agnivāyukalāgṛhasamīpe)= near fire, air and art house (siñcata) =irrigate.
English Translation (K.K.V.)
O President of the Assembly and other human beings! All of you present in the crooked paths, sitting in vehicles like aircraft, like birds, whatever victory you choose, give it to the beloved of the President of the Assembly etc. who performs good deeds, who is there for you. In those areas from which the sweet colour has been removed, sprinkle water closely from all sides. Irrigate near fire, air and art house.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There are simile and silent vocal simile as figurative in this mantra. By creating vehicles like aircraft etc. by humans, by making space for fire, air and water in them, by placing those fire, air and water in their respective places, by running the machines, by stopping the steam etc. and by taking those vehicles to the top, like birds travel through the sky like clouds, similarly one should attain all kinds of pleasures by traveling to the desired places, by acquiring kingdom's wealth through business and war, by doing charity and by being selfless. These should be made available to everyone as well.
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