ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 87/ मन्त्र 6
श्रि॒यसे॒ कं भा॒नुभिः॒ सं मि॑मिक्षिरे॒ ते र॒श्मिभि॒स्त ऋक्व॑भिः सुखा॒दयः॑। ते वाशी॑मन्त इ॒ष्मिणो॒ अभी॑रवो वि॒द्रे प्रि॒यस्य॒ मारु॑तस्य॒ धाम्नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश्रि॒यसे॑ । कम् । भा॒नुऽभिः॑ । सम् । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ । ते । र॒श्मिऽभिः॑ । ते । ऋक्व॑ऽभिः । सु॒ऽखा॒दयः॑ । ते । वाशी॑ऽमन्तः । इ॒ष्मिणः॑ । अभी॑रवः । वि॒द्रे । प्रि॒यस्य॑ । मारु॑तस्य । धाम्नः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः। ते वाशीमन्त इष्मिणो अभीरवो विद्रे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः ॥
स्वर रहित पद पाठश्रियसे। कम्। भानुऽभिः। सम्। मिमिक्षिरे। ते। रश्मिऽभिः। ते। ऋक्वऽभिः। सुऽखादयः। ते। वाशीऽमन्तः। इष्मिणः। अभीरवः। विद्रे। प्रियस्य। मारुतस्य। धाम्नः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 87; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
ये भानुभिः कं श्रियसे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नो विद्यां जलं वा संमिमिक्षिरे ते शिल्पविद्याविदो भवन्ति। ये रश्मिभिरग्निकिरणैः कं श्रियसे कलाभिर्यानानि चालयन्ति ते शीघ्रं स्थानान्तरप्राप्तिं विद्रे लभन्ते। ऋक्वभिर्ये कं श्रियसे सुखादयो भवन्ति, ते आरोग्यं लभन्ते। ये वाशीमन्त इष्मिणोऽभीरवः प्रियस्य मारुतस्य धाम्नो युद्धे प्रवर्त्तन्ते ते विद्रे विजयं लभन्ते ॥ ६ ॥
पदार्थः
(श्रियसे) श्रयितुम् (कम्) सुखम् (भानुभिः) दिवसैः (सम्) सम्यक् (मिमिक्षिरे) मेढुमिच्छन्ति (ते) (रश्मिभिः) अग्निकिरणैः (ते) (ऋक्वभिः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषु कर्मसु तैः (सुखादयः) सुष्ठु खादयो भोजनादीनि येषां ते (ते) (वाशीमन्तः) प्रशस्ता वाशी वाग् विद्यते येषां ते (इष्मिणः) प्रशस्तविज्ञानगतिमन्तः (अभीरवः) भयरहिताः (विद्रे) विन्दन्ति लभन्ते। छन्दसि वा द्वे भवतः। (अष्टा०वा०६.१.८) अनेन वार्त्तिकेन द्विर्वचनाभावः। (प्रियस्य) प्रसन्नकारकस्य (मारुतस्य) कलायन्त्रवायोः प्राणस्य वा (धाम्नः) गृहात् ॥ ६ ॥
भावार्थः
ये मनुष्याः प्रतिदिनं सृष्टिपदार्थविद्यां लब्ध्वाऽनेकोपकारान् गृहीत्वा तद्विद्याध्ययनाऽध्यापनैर्वाग्मिनो भूत्वा शत्रून् शुद्धाचारे वर्त्तन्ते त एव सर्वदा सुखिनो भवन्तीति ॥ ६ ॥ अत्र राजप्रजापुरुषाणां कर्त्तव्यानि कर्माण्युक्तान्यत एतत्सूक्तार्थेन सह पूर्वसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जो (भानुभिः) दिन-दिन से (कम्) सुख को (श्रियसे) सेवन करने के लिये (ते) वे (प्रियस्य) प्रेम उत्पन्न करानेवाले (मारुतस्य) कला के पवन वा प्राणवायु के (धाम्नः) घर से विद्या वा जल को (सम्+मिमिक्षिरे) अच्छे प्रकार छिड़कना चाहते हैं (ते) वे शिल्पविद्या के जाननेवाले होते हैं तथा जो (रश्मिभिः) अग्निकिरणों से सुख के सेवन के लिये कलाओं से यानों को चलाते हैं, वे शीघ्र एक स्थान से दूसरे स्थान का (विद्रे) लाभ पाते हैं (ऋक्वभिः) जिनमें प्रशंसनीय स्तुति विद्यमान है, उनसे जो सुख के सेवन करने के लिये (सुखादयः) अच्छे-अच्छे पदार्थों के भोजन करनेवाले होते हैं (ते) वे आरोग्यपन को पाते हैं (वाशीमन्तः) प्रशंसित जिनकी वाणी वा (इष्मिणः) विशेष ज्ञान है वे (अभीरवः) निर्भय पुरुष प्रेम उत्पन्न करानेहारे प्राणवायु वा कलाओं के पवन के घर से युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, वे विजय को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य प्रतिदिन सृष्टिपदार्थविद्या को पा अनेक उपकारों को ग्रहण कर उस विद्या के पढ़ने और पढ़ाने से वाचाल अर्थात् बातचीत में कुशल हो और शत्रुओं को जीतकर अच्छे आचरण में वर्त्तमान होते हैं, वे ही सब कभी सुखी होते हैं ॥ ६ ॥ इस सूक्त में राजा प्रजाओं के कर्त्तव्य कहे हैं, इस कारण इस सूक्त के अर्थ से पिछले सूक्त के अर्थ की संगति है, यह जानना चाहिये ॥
विषय
अभीरुता - निर्भयता
पदार्थ
१. गतमन्त्र के सुन्दर जीवनवाले व्यक्ति (कम्) = उस आनन्दस्वरूप प्रजापति को (श्रियसे) = [अयितुम्] आश्रय करने के लिए (भानुभिः) = ज्ञान की दीप्तियों से (संमिमिक्षिरे) = अपने को सम्यक् सिक्त करते हैं । ज्ञानदीप्ति ही अन्ततः विवेकख्याति का कारण बनती है और हम प्रभु का दर्शन करनेवाले बनते हैं । (ते) = वे ब्रह्म की ओर चलनेवाले व्यक्ति (रश्मिभिः) = ज्ञान की किरणों से तो अपने को युक्त करते ही हैं, साथ ही (ते) = वे (क्वभिः) = [ऋच् स्तुतौ] स्तुति की मधुर वाणियों से भी अपने को युक्त करते हैं । ये ज्ञान और स्तवन उन्हें प्रभु के श्रयण के लिए समर्थ करते हैं । २. ये पुरुष (सुखादयः) = उत्तम सात्त्विक भोजन करनेवाले होते हैं । यह सात्त्विक भोजन ही उनकी वृत्ति को भी सात्विक बनाता है । ते वे सात्विक भोजनवाले पुरुष (वाशीमन्तः) = प्रभु की स्तुति की वाणीवाले तो होते ही हैं (इष्मिणः) = उन स्तुतिशब्दों से सूचित मार्ग पर गतिवाले भी होते हैं । प्रभु को दयालु रूप में स्मरण करते हुए ये स्वयं भी दया को अपनाने का प्रयत्न करते हैं । ३. प्रभुस्मरण के कारण ही (अभीरवः) = ये भीरु नहीं होते - मृत्यु के भय से भी भयभीत नहीं होते । प्राणसाधना करते हुए ये लोग (प्रियस्य) = प्रीति को उत्पन्न करनेवाली (मारुतस्य) = प्राण - सम्बन्धी (धाम्नः) = तेजस्विता को (विद्रे) = प्राप्त करनेवाले होते हैं, प्राणायाम के द्वारा अपने को तेजस्वी बनाते हैं । प्राणायाम ही इन्हें ऊर्ध्वरेतस् बनाता है और इनकी वृत्ति भोगप्रवण न होकर प्रभुप्रवण बनती है ।
भावार्थ
भावार्थ = ज्ञान व प्रभुस्तवन हमें प्रभु की ओर ले - चलते हैं । हम सात्विक भोजन करें, प्रभुस्तवन करें - उन बातों को अपने जीवन में धारण करें । प्राणसाधना के द्वारा तेजस्वी बनते हुए अभीरु बनकर जीवनमार्ग का आक्रमण करें ।
विशेष / सूचना
विशेष = सूक्त के प्रारम्भ में कहा है कि प्राणसाधक का जीवन सद्गुणालंकृत होता है [१] । समाप्ति पर भी यही बात कही है [६] । द्वितीय मन्त्र में यह संकेत हैं कि प्रभु - अर्चना होने पर अनावृष्टि आदि आधिदैविक आपत्तियाँ नहीं आती [२] । राष्ट्र के सैनिक भी वीर होते हैं [३] । ये अनिन्दित कर्मोंवाले होते हैं [४] । इनसे रक्षित राष्ट्र में सबका जीवन सुन्दर होता है [५] । 'प्राण हमें उत्तम शरीररूप रथ को प्राप्त कराएँ', इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
पक्षान्तर में वृष्टि विद्या और वायुओं का वर्णन ।
भावार्थ
जो ( श्रियसे ) शोभा और राज्यलक्ष्मी की वृद्धि के लिये ( मातृभिः ) सूर्य की किरणों के समान राजा के तेज की वृद्धि करने वाले सहायकारी पुरुषों द्वारा ( कम् ) कर्त्ता, प्रजापति पुरुष को ( संमिमिक्षिरे ) अच्छी प्रकार उत्तम राज्यपद पर अभिषिक्त करते हैं और जो पुरुष ( रश्मिभिः ) रासों से अश्वों के समान नायक और राष्ट्र को वश में रखने में कुशल हैं और जो ( ऋक्वभिः ) ऋचाओं, वेदमन्त्रों, वाणियों, व्यवस्थाओं, आज्ञाओं और राष्ट्र के राज्यांगों द्वारा ( सुखादयः ) राष्ट्र को उत्तम रीति से, धर्मानुकूल उपायों से भोगने वाले और ( सुखादयः ) उत्तम अनिन्दनीय, स्वच्छ पदार्थों का भोग और भोजन करने वाले वाग्मी विद्वान् (इष्मिणः) प्रबल इच्छाशक्ति वाले, स्वयं गतिमान्, उत्साही और दूसरों को भी अपनी आज्ञा में चलाने हारे, सेना के स्वामी, ( अभीरवः ) शत्रु से कभी भय न खाने वाले हैं ( ते ते ते ) वे, वे, वे, क्रम से तीनों प्रकार के व्यक्ति ( प्रियस्य ) सबको प्रिय लगने वाले, सबको प्रसन्न और तृप्त करने वाले, मनोहर ( मारुतस्य ) मारुत ( धाम्नः ) पद, स्वरूप सामर्थ्य को (विद्रे) प्राप्त करते हैं । अर्थात् राष्ट्र की समृद्धि की वृद्धि ये तेजस्वी पुरुष राज्याभिषिक्त करने वाले जन मारुत तेज को धारण करते हैं अर्थात् वे शत्रुहन्ता सैनिक बल को वश करने में समर्थ होते हैं, दूसरे वे अपने बल से वृक्षों को वायु के समान शत्रुओं को उखाड़ने में समर्थ होते हैं । (२) जो अश्वों के समान रासों से राष्ट्र को वश करते हैं और सूर्य की किरणों के समान जलवत् सुखों की वर्षा करते हैं वे भी वायुओं के समान प्रजा के प्राणप्रद जीवनाधार होते हैं । ( २ ) जो ऋचा, अर्थात् वेदज्ञान से युक्त होकर ज्ञानजल का वर्षण करते और सात्विक भोजन करते और धर्माचारी विवेकी हैं वे मारुत अर्थात् प्राणबल को शरीर में आरोग्य रूप से भोगते हैं । जो वाणी वाले वाग्मी हैं, प्रबल, निर्भय हैं, वे वीर सैनिक नायकों का पद प्राप्त करते हैं । वायु पक्ष में—वायुगण ( मातृभिः ) सूर्य की किरणों से बल प्राप्त करके ( कं मिमिक्षिरे ) जल का सेचन करते हैं। प्राण शक्तियों से उत्तम अन्न देते हैं। ( वाशीमन्तः ) गर्जना मय विद्युत वाले तीव्र वेगवान् होते हैं । अथवा—( कं श्रियसे ) सुख प्राप्त करने के लिये जो पुरुष ( रश्मिभिः ) अग्नियों से जलों की वर्षा करते हैं वे शिल्पज्ञ होते हैं । इति त्रयोदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः—१, २, ५ विराड् जगती । ३ जगती । ६ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे सुख का आश्रय लेने के लिये क्या करें, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- ये भानुभिः कं श्रियसे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः विद्यां जलं वा सं मिमिक्षिरे ते शिल्पविद्याविदः भवन्ति। ये रश्मिभिः अग्निकिरणैः कं श्रियसे कलाभिः यानानि चालयन्ति ते शीघ्रं स्थानान्तरप्राप्तिं विद्रे लभन्ते। ऋक्वभिः ये कं श्रियसे सुखादयः भवन्ति, ते आरोग्यं लभन्ते। ये वाशीमन्तः इष्मिणः अभीरवः प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः युद्धे प्रवर्त्तन्ते ते विद्रे विजयं लभन्ते ॥६॥
पदार्थ
पदार्थः- (ये)=जो, (भानुभिः) दिवसैः=दिनों से, (कम्) सुखम्=सुख का, (श्रियसे) श्रयितुम्=आश्रय लेने के लिये, (प्रियस्य)= प्रिय का, (मारुतस्य) कलायन्त्रवायोः प्राणस्य वा=कला यंत्र में प्रयुक्त होनेवाली वायु या प्राण वायु के, (धाम्नः) गृहात्= रहने के स्थान, (विद्याम्)= विद्या, (वा)=और, (जलम्)= जल को, (सम्) सम्यक्=उचित रूप से प्रयोग करते हुए, (मिमिक्षिरे) मेढुमिच्छन्ति=सींचने की इच्छा रखते हैं, (ते)=वे, (शिल्पविद्याविदः)= शिल्पविद्या के जानकार, (भवन्ति)=होते हैं, (ये)=जो, (रश्मिभिः) अग्निकिरणैः= अग्नि की किरणों से, (कम्) सुखम्=सुख का, (श्रियसे) श्रयितुम्=आश्रय लेने के लिये, (कलाभिः)= कला यंत्रो से, (यानानि)=यानों को, (चालयन्ति)=चलाते हैं, (ते)=वे, (शीघ्रम्)=शीघ्र, (स्थानान्तरप्राप्तिम्)=एक स्थान से दूसरे स्थान को, (विद्रे) विन्दन्ति लभन्ते=पहुँच जाते हैं, (ऋक्वभिः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषु कर्मसु तैः=जिन कर्मों में प्रशस्त ऋग्वेद के मन्त्र की स्तुति होती हैं, उनसे, (ये)=जो, (कम्) सुखम्=सुख का, (श्रियसे) श्रयितुम्= आश्रय लेने के लिये, (सुखादयः) सुष्ठु खादयो भोजनादीनि येषां ते=उत्तम भोजन करनेवाले, (भवन्ति)=होते हैं, (ते)=वे, (आरोग्यम्)= आरोग्य, (लभन्ते)=प्राप्त करते हैं, (ये)=जो, (वाशीमन्तः) प्रशस्ता वाशी वाग् विद्यते येषां ते= प्रशस्त वाणीवाले और, (इष्मिणः) प्रशस्तविज्ञानगतिमन्तः=प्रशस्त विशेष ज्ञान से गति करनेवाले, (अभीरवः) भयरहिताः=भय से रहित और, (प्रियस्य) प्रसन्नकारकस्य= प्रसन्न करनेवाले, (मारुतस्य) कलायन्त्रवायोः प्राणस्य वा=कला यंत्र में प्रयुक्त होनेवाली या प्राण वायु के, (धाम्नः) गृहात्= रहने के स्थान से, (युद्धे)= युद्ध में, (प्रवर्त्तन्ते)= प्रवृत्त होते हैं, (ते)=वे, (विजयम्)=विजय को, (लभन्ते)=प्राप्त कर लेते हैं ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जो मनुष्य प्रतिदिन सृष्टि पदार्थ विद्या को प्राप्त करके, अनेक उपकारों को ग्रहण करके, उस विद्या के पढ़ने और पढ़ाने के द्वारा वाणी के प्रयोग में कुशल हो करके, शत्रुओं के साथ शुद्ध आचरण करते हैं, वे ही सब सर्वदा सुखी होते हैं ॥६॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में राजा और प्रजा के पुरुषों के द्वारा किये जानेवाले कर्मों कहा है, इस कारण से इस सूक्त के अर्थ के साथ पिछले सूक्त के अर्थ की संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- ये) जो (भानुभिः) दिनों से, (कम्) सुख का (श्रियसे) आश्रय लेने के लिये (प्रियस्य) प्रिय (मारुतस्य) कला यंत्र में प्रयुक्त होनेवाली वायु या प्राण वायु के (धाम्नः) रहने के स्थान में, (विद्याम्) विद्या (वा) और (जलम्) जल का (सम्) ठीक-ठीक प्रयोग करते हुए, (मिमिक्षिरे) सींचने की इच्छा रखते हैं, (ते) वे (शिल्पविद्याविदः) शिल्पविद्या के जानकार (भवन्ति) होते हैं। (ये) जो (रश्मिभिः) अग्नि की किरणों से (कम्) सुख का (श्रियसे) आश्रय लेने के लिये (कलाभिः) कला यंत्रो से, (यानानि) यानों को (चालयन्ति) चलाते हैं, (ते) वे (शीघ्रम्) शीघ्र (स्थानान्तरप्राप्तिम्) एक स्थान से दूसरे स्थान को (विद्रे) पहुँच जाते हैं। (ऋक्वभिः) जिन कर्मों में प्रशस्त ऋग्वेद के मन्त्र से स्तुति होती हैं, उनसे (ये) जो (कम्) सुख का (श्रियसे) आश्रय लेने के लिये (सुखादयः) उत्तम भोजन आदिवाले (भवन्ति) होते हैं, (ते) वे (आरोग्यम्) आरोग्य (लभन्ते) प्राप्त करते हैं। (ये) जो (वाशीमन्तः) प्रशस्त वाणीवाले और (इष्मिणः) प्रशस्त विशेष ज्ञान से गति करनेवाले (अभीरवः) भय से रहित और (प्रियस्य) प्रसन्न करनेवाले और (मारुतस्य) कला यंत्र में प्रयुक्त होनेवाली या प्राण वायु के (धाम्नः) रहने के स्थान से (युद्धे) युद्ध में (प्रवर्त्तन्ते) प्रवृत्त होते हैं, (ते) वे (विजयम्) विजय को (लभन्ते) प्राप्त कर लेते हैं ॥६॥
संस्कृत भाग
श्रि॒यसे॑ । कम् । भा॒नुऽभिः॑ । सम् । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ । ते । र॒श्मिऽभिः॑ । ते । ऋक्व॑ऽभिः । सु॒ऽखा॒दयः॑ । ते । वाशी॑ऽमन्तः । इ॒ष्मिणः॑ । अभी॑रवः । वि॒द्रे । प्रि॒यस्य॑ । मारु॑तस्य । धाम्नः॑ ॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्याः प्रतिदिनं सृष्टिपदार्थविद्यां लब्ध्वाऽनेकोपकारान् गृहीत्वा तद्विद्याध्ययनाऽध्यापनैर्वाग्मिनो भूत्वा शत्रून् शुद्धाचारे वर्त्तन्ते त एव सर्वदा सुखिनो भवन्तीति ॥६॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र राजप्रजापुरुषाणां कर्त्तव्यानि कर्माण्युक्तान्यत एतत्सूक्तार्थेन सह पूर्वसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे दररोज सृष्टीतील पदार्थविद्या प्राप्त करून उपकार ग्रहण करतात ती विद्येचे अध्ययन-अध्यापन करून वाक्चतुर होतात व शत्रूंना जिंकतात. चांगले वर्तन ठेवतात. ती सदैव सुखी होतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
For the sake of the beauty, comfort and culture of life, they mix water with the flames of fire and clouds with the rays of the sun with the advice of the scholars of Rks, and they bring showers of rain. And, blest with sophisticated instruments and weapons, impetuous of speed and power, free of fear, they know the secrets and sources of the wondrous and dear energies of the Maruts.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Maruts do is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Those persons become knowers of the science of art and industry who in order to attain happiness mingle the gases of the workshop with water in proper proportion in day time. They who move vehicles with the rays of the fire and machines can travel to distant places quite easily and comfortably. They attain good health who taking good and nourishing food are engaged in doing admirable deeds in order to get happiness. Those who possessing noble speech and praise-worthy knowledge of sciences and being fearless wage righteous war, get victory over their adversaries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कम् सुखम् = Happiness. (वाशीमन्तः) प्रशस्ता वाशी वाग विद्यते येषां ते = Possessing noble speech. (इष्मिण:) प्रशस्तविज्ञानगतिमन्तः । = Possessing admirable knowledge. (मारुतस्य) कलायन्त्रवायो: प्राणस्य वा = The wind or gases produced in the workshops or the Prana-Vital energy.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons always enjoy happiness, who get the knowledge of the objects of the world, take benefit out of them, study and teach various sciences, become good orators, conquer enemies and are engaged in doing good deeds.
Translator's Notes
वाशीति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) कम् इति सुखनाम (निघ० ३.६ ) इष्मिण: is derived from इष गतौ गतेस्त्रयोर्था:-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च पत्र ज्ञानगमनार्थग्रहणं कृत्वा प्रशस्त विज्ञानगतिमन्तः इति व्याख्यानम् | In this hymn, the duties of the President and workers of the State are mentioned as in the previous hymn, so it has connection with that. Here ends the commentary on the eighty-seventh hymn of the Rigveda.
Subject of the mantra
Then what should they do to take shelter of happiness? This matter has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye) =Those who, (bhānubhiḥ) =by days, (kam) =of happiness, (śriyase) =for taking shelter, (priyasya) =favourite, (mārutasya) =air or vital-air used in instruments, (dhāmnaḥ) =in place of stay, (vidyām) =knowledge, (vā) =and, (jalam) =of water, (sam) =using properly, (mimikṣire) =desiring to irrigate, (te) =they, (śilpavidyāvidaḥ)= knowledgeable in craft work, (bhavanti) =are, (ye)=who, (raśmibhiḥ)=by rays of fire, (kam) =of happiness, (śriyase) =for taking shelter, (kalābhiḥ) =by instrument, (yānāni) =to vehicle, (cālayanti) =drive, (te) =they, (śīghram)= quickly, (sthānāntaraprāptim) =from one place to another, (vidre) =reach, (ṛkvabhiḥ)= the deeds in which through mantras of the Rigveda are praised, (ye) =who, (kam) =of happiness, (śriyase) =for taking shelter, (sukhādayaḥ)= good food people, (bhavanti) hote haiṃ, (te) ve (ārogyam) ārogya (labhante) =obtain, (ye) =who, (vāśīmantaḥ)=eloquent in speech, (iṣmiṇaḥ)= those who move with extensive special knowledge, (abhīravaḥ)= free from fear and, (priyasya)=pleasing and, (mārutasya)= used in instrument or of vital air, (dhāmnaḥ) =from place of stay, (yuddhe) =in battle, (pravarttante) =are engaged, (te) =they, (vijayam) =victory, (labhante)=achieve.
English Translation (K.K.V.)
Who, in order to take shelter of happiness for days, in the place where the air or vital-air used in the favourite art instrument stays, by making proper use of knowledge and water, they are knowledgeable in craft work. Those who use art instruments and vehicles to take shelter of happiness from the rays of fire, they quickly reach from one place to another. Those who eat good food to seek happiness, attain health by doing activities in which through the mantras of the Rigveda are praised. Those who are eloquent in speech and have extensive special knowledge, who move without fear, who are pleasing and who are used in mechanical instruments or who engage in the battle from the place where life air stays, they achieve victory.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those people who daily acquire the knowledge of the materials of the world, accept many favours, become skilled in the use of speech by reading and teaching that knowledge, and have pure conduct with their enemies, they are always happy.
TRANSLATOR’S NOTES-
Translation of hymn of the mantra by Maharshi Dayanand- In this hymn, the deeds performed by the king and the men of the people are mentioned, hence the interpretation of this hymn is consistent with the interpretation of the previous hymn, it should be known.
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