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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 87/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः देवता - मरुतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स हि स्व॒सृत्पृष॑दश्वो॒ युवा॑ ग॒णो॒३॒॑या ई॑शा॒नस्तवि॑षीभि॒रावृ॑तः। असि॑ स॒त्य ऋ॑ण॒यावाने॑द्यो॒ऽस्या धि॒यः प्रा॑वि॒ताथा॒ वृषा॑ ग॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । स्व॒ऽसृत् । पृष॑त्ऽअश्वः । युवा॑ । ग॒णः । अ॒या । ई॒शा॒नः । तवि॑षीऽभिः॑ । आऽव् ऋतः । असि॑ । स॒त्यः । ऋ॒ण॒ऽयावा॑ । अने॑द्यः । अ॒स्याः । धि॒यः । प्र॒ऽअ॒वि॒ता । अथ॑ । वृषा॑ । ग॒णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि स्वसृत्पृषदश्वो युवा गणो३या ईशानस्तविषीभिरावृतः। असि सत्य ऋणयावानेद्योऽस्या धियः प्राविताथा वृषा गणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। हि। स्वऽसृत्। पृषत्ऽअश्वः। युवा। गणः। अया। ईशानः। तविषीऽभिः। आऽव् ऋतः। असि। सत्यः। ऋणऽयावा। अनेद्यः। अस्याः। धियः। प्रऽअविता। अथ। वृषा। गणः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 87; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सेनायुक्तः सेनापतिर्वीरः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सेनापते ! त्वं ह्यया वृषा गणः स्वसृत्पृषदश्वो युवा गण ईशानः सत्य ऋणयावाऽनेद्योऽस्या धियः प्राविता समस्तविषीभिरावृतोऽस्याथेत्यनन्तरमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽप्यसि ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (सः) (हि) यतः (स्वसृत्) यः स्वान् सरति प्राप्नोति सः (पृषदश्वः) पृषदिव वेगवन्तस्तुरङ्गा यस्य सः (युवा) प्राप्तयुवास्थः (गणः) गणनीयः (अया) एति जानाति सर्वा विद्या यया प्रज्ञया तया। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (ईशानः) पूर्णसामर्थ्ययुक्तः (तविषीभिः) पूर्णबलयुक्ताभिः सेनाभिः (आवृतः) युक्तः (असि) (सत्यः) सत्सु साधुः (ऋणयावा) य ऋणं याति प्राप्नोति सः (अनेद्यः) प्रशस्यः। अनेद्य इति प्रशस्यनामसु पठितम्। (निघं०३.८) (अस्याः) (धियः) प्रज्ञायाः कर्मणो वा (प्राविता) रक्षणादिकर्त्ता (अथ) आनन्तर्ये (वृषा) सुखवर्षणसमर्थः (गणः) मरुतां समूह इव ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    ब्रह्मचर्येण विद्यया पूर्णशरीरात्मबलः स्वसेनया रक्षितः सेनापतिः स्वसेनां सततं रक्ष्य शत्रून् विजित्य प्रजां पालयेत् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सेनायुक्त सेना का अधीश वीर कैसा होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे सेनापते ! (सः) (हि) वही तू (अया) जिससे सब विद्या जानी जाती हैं, उस बुद्धि से युक्त (वृषाः) शीतल मन्द सुगन्धिपन से सुखरूपी वर्षा करने में समर्थ (गणः) पवनों के समान वेग बलयुक्त (स्वसृत्) अपने लोगों को प्राप्त होनेवाला (पृषदश्वः) वा मेघ के वेग के समान जिसके घोड़े हैं (युवा) तथा जवानी को पहुँचा हुआ (गणः) अच्छे सज्जनों में गिनती करने के योग्य (ईशानः) परिपूर्णसामर्थ्य युक्त (सत्यः) सज्जनों में सीधे स्वभाव वा (ऋणयावा) दूसरों का ऋण चुकानेवाला (अनेद्यः) प्रशंसनीय और (अस्याः) इस (धियः) बुद्धि वा कर्म की (प्राविता) रक्षा करनेहारा (तविषीभिः) परिपूर्णबलयुक्त सेनाओं से (आवृतः) युक्त (असि) है (अथ) इसके अनन्तर हम लोगों के सत्कार करने योग्य भी है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्य और विद्या से परिपूर्ण शारीरिक और आत्मिक बलयुक्त अपनी सेना से रक्षा को प्राप्त सेनापति सेना की निरन्तर रक्षा करके शत्रुओं को जीतके प्रजा का पालन करे ॥ ४ ॥

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    विषय

    स्वसृत् - अनेद्यः

    पदार्थ

    १. (सः) = वह (युवा) = देश को परतन्त्रता से पृथक् करनेवाला [अमिश्रण] तथा स्वतन्त्रता व शोभा से युक्त करनेवाला [मिश्रण] (गणः) = वीर सैनिकों का गण (हि) = निश्चय से (स्व - सृत्) = स्वयं देश के रक्षण के लिए अग्रसर होता है । उन वीर सैनिकों में देश - प्रेम की भावना भरने के लिए अन्य पुरुषों की आवश्यकता नहीं होती । ये वीर सैनिक (पृषदश्वः) = [पृषत् मृग] मृगों के समान शीघ्र गतियुक्त अश्वोंवाले होते हैं और इस प्रकार शत्रुओं के भय से देश को बचाकर ये (अया) = [स्य - याच्] इस राष्ट्र के (ईशानः) = ईशान होते हैं । ये सैनिकगण (तविषीभिः) = असाधारण बलों से (आवृतः) = युक्त होता हैं । २. इसी वीर सैनिकगण से पुरोहित कहता है कि = (सत्यः असि) = हे वीर सैनिकगण ! तू सत्य है । असत्य कर्मों में प्रवृत होनेवाला नहीं है । लूट - खसोट व स्त्रियों में आसक्त हो जाने की वृत्ति तुझमें नहीं हैं । (ऋणयावा) = देश के ऋण को अदा करनेवाला तू है [या = अपगमन], देश की रक्षा के द्वारा तू देश के ऋण को चुकाता है । प्रत्येक राष्ट्र सैनिकों पर जो व्यय करता है, उस ऋण से ये सैनिक देश की स्वतन्त्रता के लिए प्राण देकर अनृण होते हैं । (अनेद्यः) = तू अनिन्दनीय होता है । तेरे कार्य राष्ट्र को कलंकित करनेवाले नहीं होते । (अथ) = और (वृषा) = सुखों का वर्षण करनेवाला होकर तू (अस्याः धियः) = इन कर्मों का (प्र अविता) = प्रकर्षेण रक्षक होता है । सैनिकों से सुरक्षित राष्ट्र में ही सब कार्य सुचारुरूपेण चलते हैं । रक्षित राष्ट्र में ही ब्राह्मणों के अध्यापन व यज्ञादि के कार्य होते हैं, इसी राष्ट्र में व्यापारियों के व्यापार चलते हैं और कृषकों के कृषि आदि कार्य हुआ करते हैं । इस प्रकार (गणः) = ये वीर सैनिक प्रशंसनीय व गणनीय होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हमारे वीर सैनिक अपने कार्यों से देश के यश को उज्ज्वल करनेवाले हों ।

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    विषय

    पक्षान्तर में वृष्टि विद्या और वायुओं का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( सः हि ) वह पूर्वोक्त (गणः) वीर नायक और विद्वान् का दल ( स्वसृत् ) स्वयं अपने बल से आगे बढ़ने वाला ( पृषदश्वः ) मृग के समान अति वेग से जाने वाले अश्वों वाला, ( युवा ) जवान, हृष्ट पुष्ट ( अया ) इस राष्ट्र का ( ईशानः ) पूर्ण सामर्थ्यवान्, राष्ट्र का पूर्ण स्वामी ( तविषीभिः ) बलवती सेनाओं से ( आवृतः ) युक्त हो । और वह ( सत्यः ) सज्जनों के प्रति उत्तम व्यवहार वाला, उनका हितकारी, सत्य धर्माचरण करने वाला, ईमानदार, ( ऋणयावा ) अपने और परायों के ऋणों को चुकाने वाला, ( अनेद्यः ) उत्तम, निन्दा के सर्वथा अयोग्य, शुद्धाचारी, ( गणः ) सब में उत्तम गिना जाने योग्य, ( वृषा ) सुखों का बर्षक, उत्तम बलवान् होकर ( अस्याः ) इस ( धियः ) उत्तम ज्ञान और धारण करने योग्य कर्मों शक्तियों का ( प्र अविता ) अच्छी प्रकार रक्षा करने और उनको बतलाने वाला ( असि ) हो । वायुओं के पक्ष में—अपने बलों से चलने हारा ( पृषदश्वः ) वर्षणशील मेघ रूप अश्वों वाला, शक्तियों से युक्त होकर सब प्राणिसमूह का प्राणप्रद होने से स्वामी है । (सत्यः) विद्यमान जंतुओं का हितकारी ( ऋणयावा ) जल लाने वाला, अनिन्द्य है, वह ( धियः प्राविता ) उत्तम कर्मों और धारण योग्य प्रजाओं का रक्षक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः—१, २, ५ विराड् जगती । ३ जगती । ६ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर सेनायुक्त सेना का अधीश वीर कैसा होता है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे सेनापते ! त्वं हि अया वृषा गणः स्वसृत् पृषदश्वः युवा गणः ईशानः सत्यः ऋणयावा अनेद्यः अस्या धियः प्राविता समः तविषीभिः आवृतः असि अथ इति अनन्तरम् अस्माभिः सत्कर्त्तव्यः अपि असि ॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (सेनापते)= सेनापति ! (त्वम्)=तुम, (हि) यतः=क्योंकि, (अया) एति जानाति सर्वा विद्या यया प्रज्ञया तया=जिस प्रज्ञा से समस्त विद्या को जानता हो, उससे, (वृषा) सुखवर्षणसमर्थः= सुख की वर्षा करने में समर्थ और, (गणः) गणनीयः=गिनती किये जाने योग्य, (स्वसृत्) यः स्वान् सरति प्राप्नोति सः=अपनी गति से चलकर पहुँचनेवाला, (पृषदश्वः) पृषदिव वेगवन्तस्तुरङ्गा यस्य सः=वेगवान् अश्ववाला, (युवा) प्राप्तयुवास्थः= युवा, (गणः) मरुतां समूह इव=पवनों के समूह के समान, (ईशानः) पूर्णसामर्थ्ययुक्तः= पूर्ण सामर्थ्य से युक्त, (सत्यः) सत्सु साधुः=गुणियों में उत्तम, (ऋणयावा) य ऋणं याति प्राप्नोति सः= ऋण प्राप्त करनेवाला, (अनेद्यः) प्रशस्यः=प्रशंसनीय, (अस्याः)=इसके, (धियः) प्रज्ञायाः कर्मणो वा= प्रज्ञा और कर्मों के द्वारा, (प्राविता) रक्षणादिकर्त्ता=रक्षण आदि करनेवाले के, (समः)=समान, (तविषीभिः) पूर्णबलयुक्ताभिः सेनाभिः=पूर्ण बलवाली सेना के द्वारा, (आवृतः) युक्तः=घेरे हुए, (असि)=हो, (अथ) आनन्तर्ये= इसके बाद, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (सत्कर्त्तव्यः)=उत्तम रूप से करने के योग्य, (अपि)=भी, (असि)=हो॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- ब्रह्मचर्य, विद्या से शरीर के पूर्ण बल से और आत्म बल से, अपनी सेना से रक्षा किया हुआ सेनापति, अपनी सेना की निरन्तर रक्षा करके शत्रुओं को जीत करके प्रजा का पालन करे ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (सेनापते) सेनापति ! (त्वम्) तुम (हि) क्योंकि (अया) जिस प्रज्ञा से समस्त विद्या को जानते हो, उससे (वृषा) सुख की वर्षा करने में समर्थ, (गणः) गिनती किये जाने योग्य, (स्वसृत्) अपनी गति से चलकर पहुँचनेवाले, (पृषदश्वः) वेगवान् अश्ववाले (युवा) युवा, (गणः) पवनों के समूह के समान (ईशानः) पूर्ण सामर्थ्य से युक्त, (सत्यः) गुणी लोगों में उत्तम, (ऋणयावा) ऋण प्राप्त करनेवाले और (अनेद्यः) प्रशंसनीय हो। (अस्याः) इसकी (धियः) प्रज्ञा और कर्मों के द्वारा (प्राविता) रक्षण आदि करनेवाले के (समः) समान (तविषीभिः) पूर्ण बलवाली सेना के द्वारा (आवृतः) घेरे हुए (असि) हो। (अथ) इसके बाद (अस्माभिः) हमारे द्वारा (सत्कर्त्तव्यः) आदर किये जाने के योग्य (अपि) भी (असि) हो॥४॥

    संस्कृत भाग

    सः । हि । स्व॒ऽसृत् । पृष॑त्ऽअश्वः । युवा॑ । ग॒णः । अ॒या । ई॒शा॒नः । तवि॑षीऽभिः॑ । आऽव् ऋतः । असि॑ । स॒त्यः । ऋ॒ण॒ऽयावा॑ । अने॑द्यः । अ॒स्याः । धि॒यः । प्र॒ऽअ॒वि॒ता । अथ॑ । वृषा॑ । ग॒णः ॥ विषयः- पुनः सेनायुक्तः सेनापतिर्वीरः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ब्रह्मचर्येण विद्यया पूर्णशरीरात्मबलः स्वसेनया रक्षितः सेनापतिः स्वसेनां सततं रक्ष्य शत्रून् विजित्य प्रजां पालयेत् ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्य व विद्येने परिपूर्ण, शारीरिक व आत्मिक बलयुक्त, आपल्या सेनेचा रक्षणकर्ता असलेल्या सेनापतीने सेनेचे निरंतर रक्षण करून शत्रूंना जिंकून प्रजेचे पालन करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The same force of Maruts, troop of heroes, young, self-inspired and inspiring their people, equipped with variety of tempestuous horse-power, all ruling with comprehensive intelligence, clothed in the light of essential merit and grandeur, you are realistic and dedicated to truth, acquitting yourselves of your obligations, worthy of praise, protectors of this intelligence of the nation with promotion and progress, and generous as blessed winds that bring showers of rain.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is the commander of an army is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army, thou art the showerer of happiness with thy intelligence endowed with all knowledge, thou approchest thy soldiers whose horses are very swift like the clouds, youthful. respectable, true, invested with vigour, sincere liberator from debt, lord of the army, irreproachable or without blemish, the protector of this intellect or good action and surrounded by thy troops. Therefore, thou art to be respected by us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (स्वसृत्) यः स्वान् सरति प्राप्नोति यः = Who approaches his people to listen to their grievances etc. if any. (अनेद्य:) प्रशस्य: अनेद्य इति प्रशस्यनाम (निघ० ३.८ ) = irreproachable or without blemish. (गण:) गणनीय: = Respectable.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The Commander of the army should preserve the subjects well by conquering his enemies, protecting his own army and being guarded by it, being endowed with full physical and spiritual power by the observance of Brahmacharya and acquisition of knowledge.

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    Subject of the mantra

    Then, how is the brave Commander of an army with his army? This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (senāpate) =commander, (tvam) =you, (hi) =because, (ayā) =with the wisdom with which you possess all knowledge, (vṛṣā)= capable of showering happiness, (gaṇaḥ)= countable, (svasṛt)=those who reach at their own pace, (pṛṣadaśvaḥ) =fast horsemen, (yuvā) =young, (gaṇaḥ)= like a group of winds, (īśānaḥ)=full of strength, (satyaḥ) =the best among virtuous people, (ṛṇayāvā) =loan recipients and, (anedyaḥ) =are appreciable,. (asyāḥ)=its, (dhiyaḥ)=through wisdom and deeds, (prāvitā)= of the one who protects etc., (samaḥ) =like, (taviṣībhiḥ) =by army having full force, (āvṛtaḥ)= surrounded, (asi) =are, (atha) =afterwards, (asmābhiḥ) =by us, (satkarttavyaḥ)=worthy of respect, (api) =also, (asi) =are.

    English Translation (K.K.V.)

    O commander! Because you are capable of showering happiness with the wisdom by which you possess all the knowledge; are capable of being counted; who reaches at his own pace, are young with swift horses; full of strength like a group of winds, the best among virtuous people; be excellent loan recipient and appreciative. Through his wisdom and actions, you are surrounded by an army with full strength like someone who protects you. After this you will also be worthy of being respected by us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    A commander who is protected by his army through celibacy, knowledge, full strength of body and soul, should continuously protect his army and conquer the enemies and nurture his subjects.

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