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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    प्रैषा॒मज्मे॑षु विथु॒रेव॑ रेजते॒ भूमि॒र्यामे॑षु॒ यद्ध॑ यु॒ञ्जते॑ शु॒भे। ते क्री॒ळयो॒ धुन॑यो॒ भ्राज॑दृष्टयः स्व॒यं म॑हि॒त्वं प॑नयन्त॒ धूत॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ए॒षा॒म् । अज्मे॑षु । वि॒थु॒राऽइ॑व । रे॒ज॒ते॒ । भूमिः॑ । यामे॑षु । यत् । ह॒ । यु॒ञ्जते॑ । शु॒भे । ते । क्री॒ळयः॒ । धुन॑यः । भ्राज॑त्ऽऋष्टयः । स्व॒यम् । म॒हि॒ऽत्वम् । प॒न॒य॒न्त॒ । धूत॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रैषामज्मेषु विथुरेव रेजते भूमिर्यामेषु यद्ध युञ्जते शुभे। ते क्रीळयो धुनयो भ्राजदृष्टयः स्वयं महित्वं पनयन्त धूतयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। एषाम्। अज्मेषु। विथुराऽइव। रेजते। भूमिः। यामेषु। यत्। ह। युञ्जते। शुभे। ते। क्रीळयः। धुनयः। भ्राजत्ऽऋष्टयः। स्वयम्। महिऽत्वम्। पनयन्त। धूतयः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 87; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यद्ये क्रीडयो धुनयो भ्राजदृष्टयो धूतयो वीराः शुभेऽज्मेषु प्रयुञ्जते ते महित्वं यथा स्यात्तथा स्वयं ह पनयन्त। एषां यामेषु गच्छद्भिर्यानादिर्भिूमिर्विथुरेव रेजते ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (प्र) (एषाम्) सभाध्यक्षादीनां रथाऽश्वहस्तिभृत्यादिशब्दैः (अज्मेषु) सङ्ग्रामेषु। अज्म इति सङ्ग्रामनाम। (निघं०२.१७) (विथुरेव) शीतज्वरव्यथितोद्विग्ना कन्येव (रेजते) कम्पते (भूमिः) (यामेषु) यान्ति येषु मार्गेषु तेषु (यत्) ये (ह) खलु (युञ्जते) (शुभे) शुभ्यते यस्तस्मै शुभाय विजयाय। अत्र कर्मणि क्विप्। (ते) (क्रीळयः) क्रीडन्तः (धुनयः) शत्रून् कम्पयन्तः (भ्राजदृष्टयः) प्रदीप्तायुधाः (स्वयम्) (महित्वम्) महिमानम् यथा स्यात्तथा (पनयन्त) पनं व्यवहारं कुर्वन्ति। अत्र बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपीत्यडभावः। अत्र तत्करोति तदाचष्ट इति णिच्। (धूतयः) धूयन्ते युद्धक्रियासु ये ते ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा शीघ्रं गच्छन्तो वायवो वृक्षतृणौषधिभूमिकणान् कम्पयन्ति, तथैव वीराणां सेनारथचक्रप्रहारैः पृथिवी शस्त्रप्रहारैर्भीरवश्च कम्पन्ते। यथा च व्यापारवन्तो व्यवहारेण धनं प्राप्य महान्तो धनाढ्या भवन्ति, तथैव सभाद्यध्यक्षादयः शत्रुर्विजेयन स्वमहत्त्वं प्रख्यापयन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (यत्) जो (क्रीळयः) अपने सत्य चालचलन को वर्त्तते हुए (धुनयः) शत्रुओं को कंपावें (भ्राजदृष्टयः) ऐसे तीव्र शस्त्रोंवाले (धूतयः) जो कि युद्ध की क्रियाओं में विचरके वे वीर (शुभे) श्रेष्ठ विजय के लिये (अज्मेषु) संग्रामों में (प्र+युञ्जते) प्रयुक्त अर्थात् प्रेरणा को प्राप्त होते हैं (ते) वे (महित्वम्) बड़प्पन जैसे हो वैसे (स्वयम्) आप (ह) ही (पनयन्त) व्यवहारों को करते हैं (एषाम्) इनके (यामेषु) उन मार्गों में कि जिनमें मनुष्य आदि प्राणी जाते हैं, चलते हुए रथों से (भूमिः) धरती (विथुरा+इव+रेजते) ऐसे कम्पती है कि मानो शीतज्वर से पीड़ित लड़की कंपे ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शीघ्र चलनेवाले पवन वृक्ष, तृण, ओषधि और धूलि को कंपाते हैं, वैसे वीरों की सेना के रथों के पहियों के प्रहार से धरती और उनके शस्त्रों की चोटों से डरनेहारे मनुष्य कंपा करते हैं और जैसे व्यापारवाले मनुष्य व्यवहार से धन को पाकर बड़े धनाढ्य होते हैं, वैसे ही सभा आदि कामों के अधीश शत्रुओं को जीतने से अपना बड़प्पन और प्रतिष्ठा विख्यात करते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    क्रीडयः धुनयः

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में 'मरुत' शब्द वायुओं के लिए प्रयुक्त हुआ था । ये 'मरुत' आधिभौतिक जगत् में वीर सैनिक हैं । उनका चित्रण करते हुए कहते हैं कि (एषाम्) = इन युद्धभूमि में ही प्राण त्यागनेवाले [नियन्ते], कायरता से भाग खड़े न होनेवाले वीर सैनिकों के (अज्मेषु) = जिनमें गति के द्वारा सब विघ्नों को उखाड़कर फेंक दिया जाता है, उन (यामेषु) = मार्गों में (यत् ह) = जब निश्चय से (शुभे) = अपने देश की शोभा की वृद्धि के लिए (युञ्जते) = अपने रथों को जोतते हैं तब (भूमिः) = यह भूमि (विथुरा इव) = भर्तृवियुक्त पत्नी की भाँति (रेजते) = काँप उठती है । इन वीर सैनिकों के रथों की गतियों से ही शत्रुओं के मानस में भय का सञ्चार हो उठता है । इन वीर सैनिकों का यह रथ का योजन सदा अपने देश की शोभा की वृद्धि के लिए होता है । ये कभी भी दूसरों पर आक्रमण करने के लिए रथयोजन न करके अपने देश के रक्षण के लिए ही ऐसा करते हैं । २. (ते) = वे वीर सैनिक (क्रीळयः) = युद्ध को एक क्रीड़ा समझनेवाले, युद्ध में न घबराकर उसे उत्साह व आनन्दपूर्वक करनेवाले, (धुनयः) = शत्रुओं को धुन डालनेवाले, (भाजत् ऋष्टयः) = दीप्यमान आयुधोंवाले होते हैं । यहाँ 'क्रीळयः ' शब्द इस भाव को भी व्यक्त कर रहा है कि हाकी, फुटबाल, क्रिकेट आदि क्रीड़ाएँ इन सैनिकों के खाली समय के सदुपयोग के लिए ही उचित हैं । ये खेलें विद्यार्थियों व अन्य नागरिकों के लिए ठीक नहीं हैं । ३. ये (धूतयः) शत्रुओं को कम्पित करनेवाले वीर सैनिक (स्वयम्) = अपने - आप अपने कर्मों से ही (महित्वम्) = अपनी महिमा को (पनयन्त) = प्रकट करनेवाले होते हैं । इनके वीरतापूर्वक कर्मों के कारण इनकी प्रशंसा होती ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = देश के सैनिक वीर हों । इनके रथों की गति शत्रुओं को कम्पित करनेवाली हो । इनके वीरतापूर्ण कार्य इनकी प्रशंसा के कारण बनें ।

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    विषय

    पक्षान्तर में वृष्टि विद्या और वायुओं का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जब भी वे वीरगण ( शुभे ) उत्तम,शोभाजनक युद्ध के लिये ( यामेषु ) मार्गों में ( युञ्जते ) एक साथ गमन करते हैं तब ( एषाम् ) इन के ( अज्मेषु ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले युद्धादि पराक्रमों के अवसरों पर, ( विथुरा इव ) भय से कांपती हुई स्त्री के समान ( भूमिः ) भूमि भी ( प्र रेजते ) मानो भयभीत होकर कांप जाती है । वे ( क्रीडयः ) युद्धक्रीड़ा के व्यसनी ( धुनयः ) शत्रुओं को धुन डालने वाले, ( भ्राजद्-ऋष्टयः ) चमचमाते शस्त्र अस्त्रों से सुसज्जित ( धूतयः ) शत्रु हृदय में कंपकपी उत्पन्न कर देने में समर्थ होकर स्वयं अपने ( महित्वं ) महान् सामर्थ्य को (पनयन्त) अपने कार्य व्यवहार से प्रकट कर देते हैं । क्रिया द्वारा अपना बल बतला देते हैं। वायुपक्ष में—(शुभे) उत्तम वृष्टि लाने के लिये जब चलते हैं तब ( अज्मेषु ) मेघों को इधर उधर फेंकने वाले प्रबल वेगों में भूमि भयभीत स्त्री के समान कांपती है । वे वृक्षों को कंपाते हुए, विद्युतें चमकाते हुए, पर्वतों को कंपाने वाले वायु अपने कामों सामर्थ्य को प्रकट करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः—१, २, ५ विराड् जगती । ३ जगती । ६ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यत् ये क्रीडयः धुनयः भ्राजदृष्टयः धूतयः वीराः शुभे अज्मेषु प्र युञ्जते ते महित्वं यथा स्यात् तथा स्वयं ह पनयन्त। एषां यामेषु गच्छद्भिःयानादिभिः भूमिः विथुरेव रेजते ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यत्) ये=जो, (क्रीळयः) क्रीडन्तः=खेलते हुए, (धुनयः) शत्रून् कम्पयन्तः=शत्रुओं को कंपाते हुए, (भ्राजदृष्टयः) प्रदीप्तायुधाः=प्रकाशित युद्धों में, (धूतयः) धूयन्ते युद्धक्रियासु ये ते=युद्ध की क्रियाओं में कंपे हुए, (वीराः)= वीरों की, (शुभे) शुभ्यते यस्तस्मै शुभाय विजयाय= शुभ विजय में, (अज्मेषु) सङ्ग्रामेषु=सङ्ग्रामों में, (प्र)=प्रकृष्ट रूप से, (युञ्जते)=जुड़ते हैं, (ते)=वे, (महित्वम्) महिमानम् यथा स्यात्तथा=महानता, (यथा)=जैसे, (स्यात्)=होवे, (तथा)=वैसे ही, (स्वयम्)=अपना, (ह) खलु=निश्चित रूप से, (पनयन्त) पनं व्यवहारं कुर्वन्ति=व्यवहार करते हैं, (एषाम्) सभाध्यक्षादीनां रथाऽश्वहस्तिभृत्यादिशब्दैः=सभा के अध्यक्ष आदि के रथ, घोड़े, सेवक आदि शब्दों से, (यामेषु) यान्ति येषु मार्गेषु तेषु=जिन मार्गों से जाते हैं, उनसे, (गच्छद्भिः)=जाते हुए, (यानादिभिः)= यान आदि से, (भूमिः)= भूमि को, (विथुरेव) शीतज्वरव्यथितोद्विग्ना कन्येव=शीत ज्वर से पीड़ित दुखी कन्या के समान, (रेजते) कम्पते= कंपाता है ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शीघ्र चलनेवाले वायु- वृक्ष, तृण, ओषधि और धूल के कणों को कंपाते हैं, वैसे ही वीरों की सेना के रथों के पहियों के प्रहार से पृथिवी कंपती है और शस्त्रों के प्रहार से कंपते हैं। जैसे व्यापारी व्यवहार से धन को प्राप्त करके बड़े धनाढ्य बन जाते हैं, वैसे ही सभा के अध्यक्ष आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपने महत्त्व को प्रकृष्ट रूप से प्रसिद्ध करते हैं ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यत्) जो (क्रीळयः) खेलते हुए, (धुनयः) शत्रुओं को कंपाते हुए और (भ्राजदृष्टयः) प्रकाशित युद्धों में, (धूतयः) युद्ध की क्रियाओं में कंपे हुए, (अज्मेषु) सङ्ग्रामों में (वीराः) वीरों की (शुभे) शुभ विजय में, (प्र) प्रकृष्ट रूप से (युञ्जते) जुड़ते हैं, (ते) वे (महित्वम्) महानता (यथा) जैसे (स्यात्) होवे, (तथा) वैसे ही (ह) निश्चित रूप से (स्वयम्) अपना (पनयन्त) व्यवहार करते हैं। (एषाम्) सभा के अध्यक्ष आदि के रथ, घोड़े, सेवक आदि शब्द करते हुए, (यामेषु) जिन मार्गों से जाते हैं, उनसे (गच्छद्भिः) जाते हुए, (यानादिभिः) यान आदि से (भूमिः) भूमि को, (विथुरेव) शीत ज्वर से पीड़ित दुखी कन्या के समान (रेजते) कंपाते हैं ॥३॥

    संस्कृत भाग

    प्र । ए॒षा॒म् । अज्मे॑षु । वि॒थु॒राऽइ॑व । रे॒ज॒ते॒ । भूमिः॑ । यामे॑षु । यत् । ह॒ । यु॒ञ्जते॑ । शु॒भे । ते । क्री॒ळयः॒ । धुन॑यः । भ्राज॑त्ऽऋष्टयः । स्व॒यम् । म॒हि॒ऽत्वम् । प॒न॒य॒न्त॒ । धूत॑यः ॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा शीघ्रं गच्छन्तो वायवो वृक्षतृणौषधिभूमिकणान् कम्पयन्ति, तथैव वीराणां सेनारथचक्रप्रहारैः पृथिवी शस्त्रप्रहारैर्भीरवश्च कम्पन्ते। यथा च व्यापारवन्तो व्यवहारेण धनं प्राप्य महान्तो धनाढ्या भवन्ति, तथैव सभाद्यध्यक्षादयः शत्रुर्विजेयन स्वमहत्त्वं प्रख्यापयन्ति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वेगवान वायू, वृक्ष, तृण, औषधी व धूळ यांना कंपित करतात. तसे वीरांच्या सेनेतील रथचक्राच्या प्रहाराने धरती कंपित होते व त्यांच्या शस्त्रांच्या प्रहाराने भयभीत माणसे कंपित होतात. जशी व्यापारी माणसे व्यवहाराद्वारे धन प्राप्त करून खूप श्रीमंत होतात तसेच सभाध्यक्ष शत्रूंना जिंकून स्वतःचे महत्त्व सिद्ध करतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    During their mighty operations the earth vibrates like a maiden stricken with awe when the Maruts launch upon their noble courses. And they, sporting, shaking, burnishing their weapons and storming, mount up their own grandeur by themselves.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should they (Maruts) do is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    When these sportive roaring shakers of their foes armed with bright weapons brave Maruts (soldiers) march on the paths for victory, they glorify their greatness. At their racing the earth shakes with their chariots like a girl suffering from cold fever.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अज्मेषु) संग्रामेषु अज्म इति संग्रामनाम (निघ० २.१७) = In the battles. विथुरा इव | शीतज्वरव्यथिता उद्विग्ना कन्या इव = Like a girl suffering from cold fever

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the swift winds shake the trees, grass, herbs and the particles of the earth, in the same manner, the cowards begin to tremble by the striking sound of their chariots wheels and the weapons they use in their army. As traders become rich through their business having acquired much wealth, in the same way, the Maruts (President) of the State and Commander of the army and their brave soldiers manifest their greatness and glory by achieving victory over their adversaries

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    Subject of the mantra

    What should they do then? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yat)=Those, (krīḻayaḥ) while playing, (dhunayaḥ)=making the enemies tremble and, (bhrājadṛṣṭayaḥ) =in professed battles, (dhūtayaḥ) Trembling in the actions of war, (ajmeṣu)= in battles, (vīrāḥ) =of heroes, (śubhe)= In auspicious victory, (pra)=eminentl,y (yuñjate)=join, (te) =they, (mahitvam)=greatness, (yathā) =like, (syāt) =be, (tathā) =in the same way, (ha) =definitely, (svayam) =own, (panayanta) =behave, (eṣām)=while talking about the chariots, horses, servants etc. of the President of the Assembly, (yāmeṣu)=the routes through which go, through them, (gacchadbhiḥ) =going, (yānādibhiḥ)=by vehicle etc., (bhūmiḥ) =to earth, (vithureva)= like a sad girl suffering from cold fever, (rejate) =make tremble.

    English Translation (K.K.V.)

    Those playing, making the enemies tremble in professed battles and being associated with the auspicious victory of the warriors in the battlefields, they conduct themselves as surely as greatness befits. The chariots, horses, servants etc. of the President of the Assembly, making noises, the routes through which they go, the vehicles etc., make the earth tremble like a sad girl suffering from cold fever.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There simile as a figurative in this mantra. Just as fast-moving air makes trees, grass, herbs and dust tremble, similarly the earth trembles with the sound of the chariot wheels of a brave army and trembles with the blows of weapons. Just as businessmen become very rich by acquiring wealth through business, similarly, the President of the Assembly makes his importance famous by conquering his enemies et cetera.

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