ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 87/ मन्त्र 5
पि॒तुः प्र॒त्नस्य॒ जन्म॑ना वदामसि॒ सोम॑स्य जि॒ह्वा प्र जि॑गाति॒ चक्ष॑सा। यदी॒मिन्द्रं॒ शम्यृक्वा॑ण॒ आश॒तादिन्नामा॑नि य॒ज्ञिया॑नि दधिरे ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒तुः । प्र॒त्नस्य॑ । जन्म॑ना । व॒दा॒म॒सि॒ । सोम॑स्य । जि॒ह्वा । प्र । जि॒गा॒ति॒ । चक्ष॑सा । यत् । ई॒म् । इन्द्र॑म् । शमि॑ । ऋक्वा॑णः । आश॑त । आत् । इत् । नामा॑नि । य॒ज्ञिया॑नि । द॒धि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पितुः प्रत्नस्य जन्मना वदामसि सोमस्य जिह्वा प्र जिगाति चक्षसा। यदीमिन्द्रं शम्यृक्वाण आशतादिन्नामानि यज्ञियानि दधिरे ॥
स्वर रहित पद पाठपितुः। प्रत्नस्य। जन्मना। वदामसि। सोमस्य। जिह्वा। प्र। जिगाति। चक्षसा। यत्। ईम्। इन्द्रम्। शमि। ऋक्वाणः। आशत। आत्। इत्। नामानि। यज्ञियानि। दधिरे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 87; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
ऋक्वाणो वयं प्रत्नस्य पितुर्जगदीश्वरस्य व्यवस्थया कर्माऽनुसारतः प्राप्तेन मनुष्यदेहधारणाख्येन जन्मना सोमस्य चक्षसा यानि यज्ञियानि नामानि च प्रवदामसि भवतः प्रत्युपदिशामो वा यदीमिन्द्रं जिह्वा प्रजिगाति तानि यूयमाऽऽशत प्राप्नुतादिद् दधिर एवं धरन्तु ॥ ५ ॥
पदार्थः
(पितुः) पालकस्य जनकस्य (प्रत्नस्य) पुरातनस्याऽनादेः (जन्मना) शरीरेण संयुक्ताः (वदामसि) वदामः (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतः (जिह्वा) रसनेन्द्रियं वाग्वा (प्र) (जिगाति) प्रशंसति (चक्षसा) दर्शनेन वा (यत्) यानि (ईम्) प्राप्तव्यम् (इन्द्रम्) विद्युदाख्यमग्निम् (शमि) कर्मणि। शमीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (ऋक्वाणः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषां ते (आशत) प्राप्नुत (आत्) अनन्तरे (इत्) एव (नामानि) जलानि (यज्ञियानि) शिल्पादियज्ञार्हाणि (दधिरे) धरन्तु ॥ ५ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरिमं देहमाश्रित्य पितृभावेन परमेश्वरस्याज्ञापालनरूपप्रार्थनां कृत्वोपास्योपदिश्य जगत्पदार्थगुणविज्ञानोपकारान् सङ्गृह्य जन्मसाफल्यं कार्य्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
(ऋक्वाणः) प्रशंसित स्तुतियोंवाले हम लोग (प्रत्नस्य) पुरातन अनादि (पितुः) पालनेहारे जगदीश्वर की व्यवस्था से अपने कर्म्म के अनुसार पाये हुए मनुष्य देह के (जन्मना) जन्म से (सोमस्य) प्रकट संसार के (चक्षसा) दर्शन से जिन (यज्ञियानि) शिल्प आदि कर्मों के योग्य (नामानि) जलों को (वदामसि) तुम्हारे प्रति उपदेश करें वा (यत्) जो (ईम्) प्राप्त होने योग्य (इन्द्रम्) बिजुली अग्नि के तेज को (शमि) कर्म के निमित्त (जिह्वा) जीभ वा वाणी (प्रजिगाति) स्तुति करती है, उन सब को तुम लोग (आशत) प्राप्त होओ और (आत+इत्) उसी समय इनको (दधिरे) सब लोग धारण करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि इस मनुष्यदेह को पाकर पितृभाव से परमेश्वर की आज्ञापालन रूप प्रार्थना, उपासना और परमेश्वर का उपदेश, संसार के पदार्थ और उनके विशेष ज्ञान से उपकारों को लेकर अपने जन्म को सफल करें ॥ ५ ॥
विषय
सुरक्षित राष्ट्र में 'सुन्दर जीवन'
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार वीर सैनिकों से सुरक्षित राष्ट्र में अपने जीवनों को सुन्दर बनाते हुए हम (जन्मना) = जन्म से ही, छोटी अवस्था से ही (प्रत्नस्य पितुः) = उस सनातन पिता प्रभु का (वदामसि) = नामोच्चारण करते हैं । माता - पिता बच्चों का पालन व शिक्षण इस प्रकार करते हैं कि उनके बच्चों में भी प्रभु = उपासना की वृत्ति पैदा हो जाती है । २. (सोमस्य जिह्वा) = सोम व शान्त स्वभाव के पुरुष की वाणी (चक्षसा) = ज्ञान के प्रकाश के हेतु से (प्रजिगाति) = गतिवाली होती है । घर में प्रमुख पुरुष अत्यन्त शान्त स्वभाववाला बनता है और वह उन्हीं शब्दों का उच्चारण करता है जो सन्तानों की ज्ञानवृद्धि का कारण बनते हैं । ३. (यत्) = जब यह (ईम्) = निश्चय से (शमि) = शान्तभाव से किये जानेवाले यज्ञादि कर्मों में (ऋक्वणः) = प्रभु का स्तवन करता हुआ (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (आशत) = व्याप्त करता है = प्राप्त करता है । (आत् इत्) = अब निश्चय से उस मुख्य पुरुष का अनुकरण करते हुए घर के सब व्यक्ति (यज्ञियानि) = प्रभु की पूजा से युक्त (नामानि) = पवित्र नामों को (दधिरे) = धारण करते हैं । जिस घर में प्रभु का स्मरण चलता है, वहाँ निश्चय से धर्म व कल्याण का वास होता ही है । सुन्दर घर वही है जिसमें [क] प्रभु का नाम = स्मरण होता है, [ख] यज्ञादि कर्म चलते हैं, [ग] ज्ञानवृद्धिकारक शब्दों का ही प्रयोग होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = हम सन्तानों में ऐसी वृत्ति पैदा करें कि वे प्रभु का स्मरण करनेवाले हों, ज्ञान की ओर झुकाव रखते हों, यज्ञादि कर्मों में उनकी रुचि हो ।
विषय
पक्षान्तर में वृष्टि विद्या और वायुओं का वर्णन ।
भावार्थ
( प्रत्नस्य पितुः ) प्राचीन, पूर्व के (पितुः) पालक पुरुष के वीर्य से प्राप्त हुए ( जन्मना ) जन्म, उत्पत्ति से ही हम लोग अपने ( नामानि ) नामों को (वदामसि) कहा करते हैं । (सोमस्य) उत्पादक के ( चक्षसा ) गुणों के देखने से ही ( जिह्वा ) वाणी भी ( नामानि ) तदनुरूप व्यवहार योग्य नामों को ( प्र जिगाति ) कहती है । ( शमि ) उत्तम यज्ञ आदि के कर्म में ( यत् ) जब ( ऋक्वाणः ) वेदमन्त्रों के धारण करने वाले विद्वान् जन भी ( ईम् इन्द्रम् ) उस परमेश्वर को (आशत ) स्तुति प्रार्थना द्वारा प्राप्त होते हैं ( आत् इत् ) तभी वे ( यज्ञियानि नामानि ) अपने उपास्य प्रभु परमेश्वर के गुणों और तदनुरूप नामों को भी (दधिरे) धारण करते हैं। उसी प्रकार पालक पुरुष के द्वारा ही वीर सैनिकों के भी नाम कहें जाय । ( सोमस्य चक्षसा ) उनके प्रेरक नाम के देखने से ही ( वाणी ) उनका वर्णन करे । राष्ट्र के कामों में ( ऋक्वाणः ) विद्वान पुरुष राजा को प्राप्त हों तभी वे (यज्ञियानि) राष्ट्रपति के दिये विशेष २ (नामानि) उपाधियों और पदों को धारण करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः—१, २, ५ विराड् जगती । ३ जगती । ६ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे प्रशस्त ऋचाओं से स्तुति करनेवाले क्या करते हैं, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः-{शमि} ऋक्वाणः वयं प्रत्नस्य पितुः जगदीश्वरस्य व्यवस्थया कर्मा अनुसारतः प्राप्तेन मनुष्यदेह धारण आख्येन जन्मना सोमस्य चक्षसा यानि यज्ञियानि नामानि च प्र वदामसि भवतः प्रति उपदिशामः वा यत् यम् ईम् इन्द्रं जिह्वा प्र जिगाति तानि यूयम् आशत प्राप्नुत आत् इत् दधिरे एवं धरन्तु ॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- {शमि} कर्मणि=कर्मों में, (ऋक्वाणः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषां= प्रशस्त ऋचाओं से स्तुति करनेवाले, (ते)=वे और, (वयम्)=हम, (प्रत्नस्य) पुरातनस्याऽनादेः=आदिकाल से, (पितुः) पालकस्य जनकस्य=पालन करनेवाले पिता, (जगदीश्वरस्य)=परमेश्वर की, (व्यवस्थया)= व्यवस्था से, (कर्मा)= कर्मों के, (अनुसारतः)= अनुसार, (प्राप्तेन)= प्राप्त किये गये, (मनुष्यदेह)= मनुष्य शरीर को, (धारण)=धारण करना, (आख्येन)= के नाम से, (जन्मना) शरीरेण संयुक्ताः= शरीर में संयुक्त हुए और, (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतः=उत्पन्न संसार से, (चक्षसा) दर्शनेन वा=दर्शन के द्वारा या, (यानि)=जिन, (यज्ञियानि) शिल्पादियज्ञार्हाणि=शिल्प आदि यज्ञों के योग्य, (नामानि) जलानि=जलों को, (च)=भी, (प्र)=प्रकृष्ट रूप से, (वदामसि) वदामः=कहते हो, (भवतः)=आपके, (प्रति) =लिये, (उपदिशामः)=उपदेश करते हैं, (वा)=अथवा, (यत्) यानि=जो, (यम्)=जिसके द्वारा, (ईम्) प्राप्तव्यम्=प्राप्त किये जाने योग्य है, (इन्द्रम्) विद्युदाख्यमग्निम्=विद्युत् नाम की अग्नि को, (जिह्वा) रसनेन्द्रियं वाग्वा=स्वाद लेनेवाली अथवा बोलनेवाली जिह्वा, (प्र)=प्रकृष्ट रूप से, (जिगाति) प्रशंसति=प्रशंसा करती है, (तानि)=उनको, (यूयम्)=तुम सब, (आशत) प्राप्नुत=प्राप्त करो, (आत्) अनन्तरे=इसके बाद, (इत्) एव=ही, (दधिरे) धरन्तु=धारण करो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा इस मनुष्य देह का आश्रय ले करके, परमेश्वर के लिये पिता का भाव रखते हुए उसकी आज्ञा का पालन करने के रूप में प्रार्थना और उपासना करके, संसार के पदार्थ के गुण, विशेष ज्ञान और उपकारों को एकत्र करके अपने जन्म को सफल करना चाहिए ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- {शमि} कर्मों और (ऋक्वाणः) प्रशस्त ऋचाओं से स्तुति करनेवाले, (ते) वे और (वयम्) हम (प्रत्नस्य) आदिकाल से, (पितुः) पालन करनेवाले पिता, (जगदीश्वरस्य) परमेश्वर की (व्यवस्थया) व्यवस्था से (कर्मा) कर्मों के (अनुसारतः) अनुसार (प्राप्तेन) प्राप्त किये गये (मनुष्यदेह) मनुष्य शरीर को (धारण) धारण करने (आख्येन) के नाम से (जन्मना) शरीर में संयुक्त हुए हैं और (सोमस्य) उत्पन्न संसार से (चक्षसा) दर्शन के द्वारा या (यानि) जिन (यज्ञियानि) शिल्प यज्ञों आदि के योग्य (नामानि) जलों को (च) भी (प्र) प्रकृष्ट रूप से (वदामसि) कहते हो, (भवतः) आपके (प्रति) लिये (उपदिशामः) उपदेश करते हैं, (वा) अथवा (यत्) जो, (यम्) जिसके द्वारा (ईम्) प्राप्त किये जाने योग्य है, [उस] (इन्द्रम्) विद्युत् नाम की अग्नि की (जिह्वा) जिह्वा (प्र) प्रकृष्ट रूप से (जिगाति) प्रशंसा करती है। (तानि) उनको (यूयम्) तुम सब (आशत) प्राप्त करो। (आत्) इसके बाद (इत्) ही (दधिरे) धारण करो ॥५॥
संस्कृत भाग
पि॒तुः । प्र॒त्नस्य॑ । जन्म॑ना । व॒दा॒म॒सि॒ । सोम॑स्य । जि॒ह्वा । प्र । जि॒गा॒ति॒ । चक्ष॑सा । यत् । ई॒म् । इन्द्र॑म् । शमि॑ । ऋक्वा॑णः । आश॑त । आत् । इत् । नामा॑नि । य॒ज्ञिया॑नि । द॒धि॒रे॒ ॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरिमं देहमाश्रित्य पितृभावेन परमेश्वरस्याज्ञापालनरूपप्रार्थनां कृत्वोपास्योपदिश्य जगत्पदार्थगुणविज्ञानोपकारान् सङ्गृह्य जन्मसाफल्यं कार्य्यम् ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी मनुष्य देह प्राप्त करून पितृभावाने परमेश्वराच्या आज्ञापालनरूपी प्रार्थना, उपासना व परमेश्वराचा उपदेश, जगातील पदार्थ व त्यांचे विशेष ज्ञान हा उपकार समजून आपल्या जन्माचे सार्थक करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
We speak of the ancient and eternal Lord by virtue of birth from the same father of creation. By virtue of the joy of being and the sight and light of the sun, the tongue celebrates and advances the language of knowledge. Those researching and activating water and energy study the Rks and realise the knowledge and power, and then define the names, properties and yajnic uses of these in peace for progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the Maruts do is taught further in the fifth Mantra,
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We devotees declare the holy names of God who is our Eternal Father and by whose love, we take birth as human beings in this world; we also tell you about electricity, water and other elements, which are useful in arts and industries in various ways. Our tongue speaks out the glory of God and electricity and water etc. for work, you should also attain their knowledge and uphold them. Realise God within and utilise these elements in your works
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये = In the world. (इन्द्रम्) विद्युदाख्यमग्निम् = Electricity. (नामानि) = Names and waters. (शमि) कर्मणि शमीतिकर्मनाम (निघ० २.१ ) = In the action.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should adore God as Father having taken this human body and should obey his Commands with prayer to and Communion with Him. They should also acquire the knowledge of the objects of the world and take benefits from them, thus making their life successful.
Translator's Notes
नाम इति उदक नाम (निघ० १.१२ ) सोम is derived from षू-प्रसवैश्वर्ययोः अथवा षूङ् प्राणिगर्भ विमोचने । = So the meaning of the world as created by God is clear.
Subject of the mantra
Then, what do those who praise with elaborate mantras of Rigveda do? This topic is said in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
{śami}= by deeds and, (ṛkvāṇaḥ)= are praised by eminent mantras of Rigveda, (te) =they and, (vayam) =we, (pratnasya) =from the primordial time, (pituḥ)=nurturing father, (jagadīśvarasya) =of God, (vyavasthayā) =by the dispensation, (karmā) =of deeds, (anusārataḥ) =according to, (prāptena=obtained, (manuṣyadeha) =to human body, (dhāraṇa) =of possessing, (ākhyena) =by the name, (janmanā)=are united in the body and, (somasya) =in the created world, (cakṣasā)= by sight or, (yāni) =which, (yajñiyāni)=worthy of craft-yajnas etc., (nāmāni) =to waters, (ca) =also, (pra) =eminently, (vadāmasi) =call, (bhavataḥ) =your, (prati) =for, (upadiśāmaḥ) =preach for you, (vā) =or, (yat) =those, (yam) =by whom, (īm)=is achievable, [usa]=that, (indram)=that fire named as electricity (thunder), (jihvā) =tongue, (pra)= eminently, (jigāti) =praises, (tāni) =to them, (yūyam) =all of you, (āśata) =obtain, (āt) =afterwards, (it) =only, (dadhire)=possess.
English Translation (K.K.V.)
He and we, who are praised by deeds and eminent mantras of Rigveda, from the primordial time, have been united in the body in the name of assuming a human body obtained according to deeds by the dispensation of God, the sustaining Father and by the appearance of the created world or by those who, you also call the waters eminently for craft-yajnas etc., preach for you, or the tongue praises that fire named as electricity (thunder) eminently which is capable of being achieved by whom. Get them all. Possess only after this.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
By taking shelter of this human body through human beings, having a fatherly feeling towards God, by praying and worshiping Him in the form of following His orders, by collecting properties of matter in the world, virtues, special knowledge and charity, to make one's birth successful.
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