ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श्रि॒ये कं वो॒ अधि॑ त॒नूषु॒ वाशी॑र्मे॒धा वना॒ न कृ॑णवन्त ऊ॒र्ध्वा। यु॒ष्मभ्यं॒ कं म॑रुतः सुजातास्तुविद्यु॒म्नासो॑ धनयन्ते॒ अद्रि॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रि॒ये । कम् । वः॒ । अधि॑ । त॒नूषु॑ । वाशीः॑ । मे॒धा । वना॑ । न । कृ॒ण॒व॒न्ते॒ । ऊ॒र्ध्वा । यु॒ष्मभ्य॑म् । कम् । म॒रु॒तः॒ । सु॒ऽजा॒ताः॒ । तु॒वि॒ऽद्यु॒म्नासः॑ । ध॒न॒य॒न्ते॒ । अद्रि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रिये कं वो अधि तनूषु वाशीर्मेधा वना न कृणवन्त ऊर्ध्वा। युष्मभ्यं कं मरुतः सुजातास्तुविद्युम्नासो धनयन्ते अद्रिम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रिये। कम्। वः। अधि। तनूषु। वाशीः। मेधा। वना। न। कृणवन्ते। ऊर्ध्वा। युष्मभ्यम्। कम्। मरुतः। सुऽजाताः। तुविऽद्युम्नासः। धनयन्ते। अद्रिम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभाध्यक्षाद्युपदेशमाह ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! ये वस्तनूषूर्ध्वा वाशीर्मेधा वना नोच्छ्रितवनवृक्षसमूहानि वाधिकृणवन्ते तदाचरणायाधिकारं ददति। हे सुजातास्तुविद्युम्नासो महान्तो ! युष्मभ्यं कं यथा स्यात् तथाद्रिं धनयन्ते पर्वतसदृशं महान्तं धनं कुर्वन्ति ते युष्माभिः सदा सेवनीयाः ॥ ३ ॥
पदार्थः
(श्रिये) विद्याराज्यशोभाप्राप्तये (कम्) सुखम् (वः) युष्माकम् (अधि) आधेयत्वे (तनूषु) शरीरेषु (वाशीः) वेदविद्यायुक्ता वाणीः (मेधा) पवित्रकारिका प्रज्ञा। केचिद् भ्रान्ताः ‘मेधा’ इत्यत्र ‘मेध्या’ इति पदमाश्रित्याद्युदात्तेन मेध्यपदार्थायै तत्पदमिच्छन्ति। तच्चासमञ्जसमेव। कुतः? ‘मेधा’ इत्यन्तोदात्तस्य दर्शनात्। भट्टमोक्षमूलरोऽपि ‘मेधा’ इति सविसर्गं पदं मत्वा बुद्धिपदार्थायैनत् पदं विवृणोति तच्चाप्यसमञ्जसमेव। कुतः? ‘मेधा’ इति निर्विसर्जनीयस्य पदस्य जागरूकत्वात्। (वना) वनानि (न) इव (कृणवन्ते) कुर्वन्ति। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम्। (ऊर्ध्वा) उत्कृष्टसुखप्रापिकाः (युष्मभ्यम्) (कम्) कल्याणम् (मरुतः) (सुजाताः) शोभनेषु विद्यादिगुणेषु प्रसिद्धाः (तुविद्युम्नासः) तुवीनि बहूनि द्युम्नानि विद्याप्रकाशनानि येषान्ते (धनयन्ते) धनं कुर्वन्ति (अद्रिम्) पर्वतमिव ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा मेघेन कूपोदकेन वा सिक्ताः वनान्युपवनानि वा निजफलैः प्राणिनः सुखयन्ति, तथैव विद्वांसो विद्यासुशिक्षा जनयित्वा निजपरिश्रमफलेन सर्वान् मनुष्यान् सुखयन्तीति ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सभाध्यक्षादिकों को उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) सभाध्यक्षादि सज्जनो ! जो (वः) तुम्हारे (तनूषु) शरीरों में (श्रिये) लक्ष्मी के लिये (कम्) सुख (ऊर्ध्वा) अच्छे सुख को प्राप्त करनेवाली (वाशीः) वेदवाणी (मेधा) शुद्ध बुद्धियों को (वना) ऊँचे-ऊँचे बनैले पेड़ों के (न) समान (अधि कृणवन्ते) अधिकृत करते हैं अर्थात् उनके आचरण के लिये अधिकार देते हैं। हे (सुजाताः) विद्यादि श्रेष्ठ गुणों में प्रसिद्ध उक्त सज्जनो ! जो (तुविद्युम्नासः) बहुत विद्या प्रकाशोंवाले महात्मा जन (युष्मभ्यम्) तुम लोगों के लिये (कम्) अत्यन्त सुख जैसे हो वैसे (अद्रिम्) पर्वत के समान (धनयन्ते) बहुत धन प्रकाशित कराते हैं, वे तुम लोगों को सदा सेवने योग्य हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मेघ वा कूप जल से सिंचे हुए वन और उपवन, बाग-बगीचे अपने फलों से प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे विद्वान् लोग विद्या और अच्छी शिक्षा करके अपने परिश्रम के फल से सब मनुष्यों को सुखसंयुक्त करते हैं ॥ ३ ॥
विषय
प्रभुरूप ध
पदार्थ
१. हे जीवो ! (मरुतः) = प्राण (वः श्रिये) = तुम्हारी शोभा के लिए (कम्) = आनन्दमय प्रभु को (कृण्वन्त) = प्राप्त कराते हैं । प्राणसाधना से चित्तवृत्ति का निरोध होकर जब यह निरुद्ध चित्तवृत्ति प्रभु की ओर झुकती है = उस समय मनुष्य एक अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है । २. ये प्राण (वः तनूषु) = तुम्हारे शरीरों में (वाशीः) ज्ञान की वाणियों को (मेधा) = धारणवती बुद्धि को (न) = [च] और (वना) = [वन संभक्तौ] उपासनाओं को (ऊर्ध्वा) = उन्नत (कृण्वन्त) = करते हैं । प्राणसाधना के द्वारा बुद्धि सूक्ष्म होती है [मेधा], मनुष्य ज्ञान की वाणियों को ग्रहण करनेवाला होता है [वाशीः] और उसकी चितवृत्ति उपासनाप्रवण होती है [वना] । ३. हे मनुष्यो ! (सुजाताः) = उत्तम विकासवाले, (तुविद्युम्नासः) = [घुम्न splendour, energy] महान् ज्योति व शक्तिवाले (मरुतः) = प्राण (कम्) = आनन्दमय (अद्रिम्) = [आदरणीय, निरु०९/८] आदरणीय प्रभु को (धनयन्ते) = [धनं कुर्वन्ति] धन बनाते हैं । प्राणसाधना से सब शक्तियों का विकास होता है, ज्ञानज्योति व शक्ति बढ़ती हैं । चित्तवृत्ति की एकाग्रता के द्वारा आनन्दमय प्रभु का दर्शन होने से प्रभु ही महान् धन प्रतीत होने लगते हैं । उस प्रभुरूप धन की तुलना में ये भौतिक धन अत्यन्त तुच्छ हो जाते हैं । न
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से शोभा बढ़ती है, बुद्धि व उपासनावृत्ति का विकास होता है प्रभु ही इष्ट धन हो जाते हैं ।
विषय
शत्रु नाश । राज्यसमृद्धि के लिये शस्त्रास्त्रों का धारण ।
भावार्थ
( न ) जिस प्रकार लोग ( वाशीः ) काटने वाले कुल्हाड़े आदि शस्त्रों को ( तनूषु अधि ) कन्धों पर उठाते और ( ऊर्ध्वा वना ) ऊंचे २ वृक्षों को (कृणवन्ते) काट गिराते हैं उसी प्रकार हे (मरुतः) वीर सैनिक लोगो ! ( वः तनूषु अधि ) आप लोग अपने शरीरों, या कन्धों पर (मेधा) शत्रुओं का हिंसन या बध करने वाले ( वाशीः ) शस्त्रास्त्रों को ( श्रिये ) राज्यलक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये धारण करो। और (ऊर्ध्वा) ऊंचे उमड़ते हुए ( वना ) शत्रु सेना के दलों को (कृणवन्ते) काट गिराओ । (सुजाताः) उत्तम विद्या और ऐश्वर्य में प्रसिद्ध ( तुविद्युम्नाः ) अति धनाढ्य जन भी ( युष्मभ्यम् ) तुम लोगों के भरण पोषण और रक्षा के लिये ही ( अद्रिम् ) अक्षय शस्त्रास्त्र बल को (धनयन्ते) अपना धन बना लेते हैं। अथवा तुम्हारे रक्षणार्थ वे पर्वत के समान उच्च धन राशिका संग्रह करते हैं। विद्वानों के पक्ष में—( श्रिये ) उत्तम शोभा के लिये ही ( तनूषु ) विद्वान् जन शरीरों में ( मेधा वाशीः ) पावन बुद्धियों, पवित्र वाणियों को धारण करें । ( ऊर्ध्वा बना ) उच्च कोटि के ऐश्वर्यों को प्राप्त करें । हे विद्वानो ! तुम्हारे भरण पोषण आदि के लिये ( सुजाताः ) उत्तम कोटि के ( तुविद्युम्नासः ) बहुत ऐश्वर्यों के स्वामी सम्पन्न लोग भी (अद्रिम् धनयन्ते ) पर्वत के समान विशाल धन प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्द:—१ पंक्तिः । २ भुरिक्पंक्तिः । ५ निचृत्पंक्तिः । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ विराट्त्रिष्टुप् । ६ निचृद्बृहती ॥
विषय
विषय (भाषा)- अब सभाध्यक्ष आदि को उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मरुतः ! ये वः तनूषु ऊर्ध्वा वाशीः मेधा वना न उच्छ्रित वनवृक्षसमूहानि वा अधि कृणवन्ते तत् आचरणाय अधिकारं ददति। हे सुजाताः तुविद्युम्नासः महान्तः ! युष्मभ्यं {श्रिये}{कम्} कं यथा स्यात् तथा अद्रिं धनयन्ते पर्वतसदृशं महान्तं धनं कुर्वन्ति ते युष्माभिः सदा सेवनीयाः ॥३॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मरुतः) सभाध्यक्षप्रजापुरुषा=सभा के अध्यक्ष लोगों ! (ये)=जो, (वः) युष्माकम्=तुम्हारे, (तनूषु) शरीरेषु=शरीरों में, (ऊर्ध्वा) उत्कृष्टसुखप्रापिकाः=उत्कृष्ट सुखों को प्राप्त करानेवाली, (वाशीः) वेदविद्यायुक्ता वाणीः= वेद विद्या से युक्त वाणी और, (मेधा) पवित्रकारिका प्रज्ञा= पवित्र करनेवाली प्रज्ञा है, (वना) वनानि=वनों के, (न) इव=समान, (उच्छ्रित)=बड़ी संख्या में बढ़े हुए, (वनवृक्षसमूहानि)= वन के वृक्षों के समूह हैं, (वा)=और, (अधि) आधेयत्वे=आधार के लिये, (कृणवन्ते) कुर्वन्ति=करते हैं, (तत्)=उस, (आचरणाय)= आचरण के लिये, (अधिकारम्)= अधिकार, (ददति)=देता है। हे (सुजाताः) शोभनेषु विद्यादिगुणेषु प्रसिद्धाः=उत्तम विद्या आदि गुणों में प्रसिद्ध, (तुविद्युम्नासः) तुवीनि बहूनि द्युम्नानि विद्याप्रकाशनानि येषान्ते=बहुत विद्या के प्रकाशवाले, (महान्तः)=महान् ! (युष्मभ्यम्)= तुमसे, {कम्} कल्याणम्=कल्याण और, {श्रिये} विद्याराज्यशोभाप्राप्तये= विद्या और राज्य की शोभा की प्राप्ति के लिये, (कम्) सुखम्=सुख, (यथा)=जिस प्रकार से, (स्यात्)=होवे, (तथा)=वैसे ही, (अद्रिम्) पर्वतमिव=पर्वत के समान, (धनयन्ते) धनं कुर्वन्ति=धन करते हैं, अर्थात् महान् धन एकत्रित करते हैं, (पर्वतसदृशम्)= पर्वत के समान, (महान्तम्)=महान्, (धनम्)=धन, (कुर्वन्ति)= करते हैं, अर्थात् महान् धन एकत्रित करते हैं, (ते)=वे, (युष्माभिः)=तुम्हारे द्वारा, (सदा)= सदा, (सेवनीयाः)=पूजा किये जाने योग्य हैं ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बादल से या कुएँ के जल से सींचे हुए होते हैं, वन और उपवन अपने फलों से प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग विद्या और उत्तम शिक्षा उत्पन्न करके अपने परिश्रम के फल से सब मनुष्यों को सुखी करते हैं ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मरुतः) सभा के अध्यक्ष लोगों ! (ये) जो (वः) तुम्हारे (तनूषु) शरीरों में (ऊर्ध्वा) उत्कृष्ट सुखों को प्राप्त करानेवाली, (वाशीः) वेद विद्या से युक्त वाणी और (मेधा) पवित्र करनेवाली प्रज्ञा है, (वना) वनों के (न) समान (उच्छ्रित) बड़ी संख्या में बढ़े हुए (वनवृक्षसमूहानि) वन के वृक्षों के समूह हैं, (वा) अथवा (अधि+कृणवन्ते) [जो] आधार बनते हैं, (तत्) इसलिये [वन जीवन के] (आचरणाय) व्यवहार के लिये (अधिकारम्) अधिकार (ददति) देता है। हे (सुजाताः) उत्तम विद्या आदि गुणों में प्रसिद्ध, (तुविद्युम्नासः) बहुत विद्या के प्रकाशवाले और (महान्तः) महान् ! (युष्मभ्यम्) तुमसे {कम्} कल्याण, {श्रिये} विद्या और राज्य की शोभा की प्राप्ति के लिये, (कम्) सुख (यथा) जिस प्रकार से (स्यात्) होवे, (तथा) वैसे ही (पर्वतसदृशम्) पर्वत के समान (महान्तम्) महान् (धनम्) धन (कुर्वन्ति) करते हैं, अर्थात् महान् धन एकत्रित करते हैं, (ते) वे (युष्माभिः) तुम्हारे द्वारा (सदा) सदा, (सेवनीयाः) पूजा किये जाने योग्य हैं ॥३॥
संस्कृत भाग
श्रि॒ये । कम् । वः॒ । अधि॑ । त॒नूषु॑ । वाशीः॑ । मे॒धा । वना॑ । न । कृ॒ण॒व॒न्ते॒ । ऊ॒र्ध्वा । यु॒ष्मभ्य॑म् । कम् । म॒रु॒तः॒ । सु॒ऽजा॒ताः॒ । तु॒वि॒ऽद्यु॒म्नासः॑ । ध॒न॒य॒न्ते॒ । अद्रि॑म् ॥ विषयः- अथ सभाध्यक्षाद्युपदेशमाह ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा मेघेन कूपोदकेन वा सिक्ताः वनान्युपवनानि वा निजफलैः प्राणिनः सुखयन्ति, तथैव विद्वांसो विद्यासुशिक्षा जनयित्वा निजपरिश्रमफलेन सर्वान् मनुष्यान् सुखयन्तीति ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे मेघ किंवा कूप जलाने सिंचित झालेली वने, उपवने, बागबगीचे आपल्या फळांनी प्राण्यांना सुखी करतात तसे विद्वान लोक विद्या व चांगले शिक्षण घेऊन परिश्रमपूर्वक सर्व माणसांना सुखी करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
For the grace of beauty, freedom and power, and to provide you comfort, they raise the level of intelligence and knowledge of the divine Word of the Veda in your personality just as they raise and develop the trees of the forest. The Maruts, high born, abundant and exuberant in the wealth and knowledge of nature and mind, enrich the cloud and the mountain to bear fruit and provide comfort and joy for you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the President of the Assembly and others are taught in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Maruts (President of the Assembly and other workers of the State) you should always serve those learned persons who establish noble Vedic speech in your tongue (a part of the body) endow you with purifying intellect for the attainment of knowledge, happiness, Government and beauty like tall trees of the forest. O Maruts, shining with the knowledge and great, famous for your learning and other virtues, men collect. for you huge wealth like the mountains. You should also bring about their welfare.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वाशी:) वेदविद्यायुक्ता वाणी: = Speech endowed with the Vedic knowledge. = (मेधा ) पवित्रकारिका प्रज्ञा = Purifying intellect. (सुजातास:) शोभनेषु विद्यादिगुणेषु प्रसिद्धाः = Famous on account of knowledge and other virtues. = (तुविद्युम्ना:) तृवीनि बहूनि द्युम्नानि विद्याप्रकाशनानि येषां ते = Shining with the light of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the trees in the forest or orchards when watered by the wells or clouds make people happy by their fruits, in the Same way, learned persons gladden all by their labour, vast knowledge and good education.
Translator's Notes
वाशीति वाङ्नाम (निघ० १.११ ) Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation of वाशी:(Vasheeh) as वेद विद्यायुक्ता वाचः is clearly borne out by the Vedic Lexicon (Nighantu 1.10) saying वाशीतिवाङ नाम (निघ० १.११)
Subject of the mantra
Now the preaching to the President of the Assembly etc. has been given in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (marutaḥ)= Presidents of the Assemblies, (ye) =those, (vaḥ) =your, (tanūṣu) =in bodies, (ūrdhvā)= one which provides excellent pleasures, (vāśīḥ)= speech full of knowledge of Veda and, (medhā)= there is wisdom that purifies, (vanā) =of forests, (na) =like, (ucchrita)=increased in large numbers, (vanavṛkṣasamūhāni)= there are groups of trees in the forest, (vā) =or, (adhi+kṛṇavante)= become the basis, [jo] =those, (tat) =therefore, [vana jīvana ke]=forest for life, (ācaraṇāya) =for practice, (adhikāram) =right, (dadati) =gives. He=O! (sujātāḥ)=famous for his excellent knowledge etc. qualities, (tuvidyumnāsaḥ) =enlightened with much knowledge and, (mahāntaḥ) =great, (yuṣmabhyam) =from you, {kam}=welfare,{śriye}= for the attainment of knowledge and glory of the kingdom, (kam) =happiness, (yathā)= in the manner, (syāt) =be, (tathā) =similarly, (parvatasadṛśam) =like a mountain, (mahāntam) =great, (dhanam) =wealth, (kurvanti) =do, that is, they collect great wealth, (te) =they, (yuṣmābhiḥ) =by you, (sadā) always, (sevanīyāḥ)=are worthy of worship.
English Translation (K.K.V.)
O Presidents of the Assemblies! The one that bestows excellent pleasures in your bodies, there is speech full of knowledge of Veda and the purifying wisdom, there are groups of trees growing in large numbers like forests, or because they become the basis, the forest gives authority for the practice of life. O one famous for excellent knowledge and qualities, enlightened and great with knowledge! To get welfare, education and glory of the kingdom from you, whatever happiness they get, they do great wealth like a mountain, that is, they collect great wealth, they are always worthy of being worshiped by you.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as forests and groves are irrigated by clouds or well water, forests and gardens make living beings happy with their fruits, similarly learned people, by creating knowledge and excellent education, make all human beings happy with the rewards of their labour.
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