ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 88/ मन्त्र 5
ए॒तत्त्यन्न योज॑नमचेति स॒स्वर्ह॒ यन्म॑रुतो॒ गोत॑मो वः। पश्य॒न्हिर॑ण्यचक्रा॒नयो॑दंष्ट्रान्वि॒धाव॑तो व॒राहू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । त्यत् । न । योज॑नम् । अ॒चे॒ति॒ । स॒स्वः । ह॒ । यत् । म॒रु॒तः॒ । गोत॑मः । वः॒ । पश्य॑न् । हिर॑ण्यऽचक्रान् । अयः॑ऽदंष्ट्रान् । वि॒ऽधाव॑तः । व॒राहू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतत्त्यन्न योजनमचेति सस्वर्ह यन्मरुतो गोतमो वः। पश्यन्हिरण्यचक्रानयोदंष्ट्रान्विधावतो वराहून् ॥
स्वर रहित पद पाठएतत्। त्यत्। न। योजनम्। अचेति। सस्वः। ह। यत्। मरुतः। गोतमः। वः। पश्यन्। हिरण्यऽचक्रान्। अयःऽदंष्ट्रान्। विऽधावतः। वराहून् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 88; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वान् मनुष्यान् प्रति किं किं शिक्षेतेत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! यूयं यद्यो गोतमो न वो योजनं हिरण्यचक्रानयोदंष्ट्रान् वराहून् विधावतो रथानेतत्पश्यन् ह सस्वस्त्यदचेति तं विज्ञाय सत्कुरुत ॥ ५ ॥
पदार्थः
(एतत्) प्रत्यक्षम् (त्यत्) उक्तम् (न) इव (योजनम्) योक्तुमर्हं विमानादियानम् (अचेति) संज्ञाप्यते। चिती संज्ञाने। लुङि कर्मणि चिण्। (सस्वः) उपदिशति। स्वृधातोर्लङि प्रथमपुरुषैकवचने बहुलं छन्दसीति शपःस्थाने श्लुः। हल्ङ्याब्भ्य इति तलोपः। (ह) खलु (यत्) (मरुतः) मनुष्याः (गोतमः) विद्वान् (वः) युष्मभ्यं जिज्ञासुभ्यः (पश्यन्) पर्य्यालोचमानः (हिरण्यचक्रान्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि तेजांसि चक्रेषु येषां विमानादीनां तान् (अयोदंष्ट्रान्) अयोदंष्ट्रायो दंसनानि येषु तान् (विधावतः) विविधान् मार्गान् धावतः (वराहून्) वरमाह्वयतः शब्दायमानान् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः हे मनुष्या ! यथा परावरज्ञो विद्वान् सुक्रियाः कृत्वाऽऽनन्दं भुङ्क्ते, तथैव भवन्तोऽपि विद्वत्सङ्गेन विद्यासिद्धाः क्रियाः कृत्वा सुखानि भुञ्जीरन् ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
विद्वान् मनुष्यों को क्या-क्या शिक्षा दे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) मनुष्यो ! तुम (गोतमः) विद्वान् के (न) तुल्य (वः) विद्या का ज्ञान चाहनेवाले तुम लोगों को (यत्) जो (योजनम्) जोड़ने योग्य विमान आदि यान (हिरण्यचक्रान्) जिनके पहियों में सोने का काम वा अति चमक दमक हो, उन (अयोदंष्ट्रान्) बड़ी लोहे की कीलोंवाले (वराहून्) अच्छे शब्दों को करने (विधावतः) न्यारे-न्यारे मार्गों को चलनेवाले विमान आदि रथों को (एतत्) प्रत्यक्ष (पश्यन्) देख के (ह) ही (सस्वः) उपदेश करता है, (त्यत्) वह उसका उपदेश किया हुआ तुम लोगों को (अचेति) चेत करता है, उसको तुम जान के मानो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अगली-पिछली बातों को जाननेवाला विद्वान् अच्छे-अच्छे काम कर आनन्द को भोगता है, वैसे आप लोग भी विद्या से सिद्ध हुए कामों को करके सुखों को भोगो ॥ ५ ॥
विषय
गोतम व मरुतों का भोजन
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो ! (गोतमः) = यह प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष (यत्) = जो (वः) = तुम (हिरण्यचक्रान्) = हितरमणीय क्रियावालों को [स्वर्ण के चक्रवालों को], (अयोदंष्ट्रान्) = लोहे के दाँतोंवालों को जिनके दाँत अत्यन्त दृढ़ हैं उनको, (विधावतः) = विविध दिशाओं में दौड़ते हुओं को अथवा जीवन को शुद्ध बनाते हुओं को [धावु गतिशुद्ध्योः] वस्तुतः गति के द्वारा जीवन का शोधन करते हुओं को तथा (वराहून्) = [वरस्य हविषो भक्षयितॄन् - सा०] उत्कृष्ट हव्य पदार्थों का सेवन करनेवालों को (पश्यन्) = देखता हुआ (ह) = निश्चय से (सस्वः) = स्तुति का उच्चारण करता है । (एतत्) = यह (त्यत्) = वह ही (योजनं न) = मेल = सा (अचेति) = जाना जाता है । गोतम का मरुतों से मेल यही है कि वह इन मरुतों का स्तवन करता है । २. स्तवन करते हुए वह कहता है कि हे प्राणो ! आप [क] "हिरण्यचक्र" हो - हितरमणीय क्रियाओंवाले हो । प्राणसाधक पुरुष की चित्तवृत्ति की पवित्रता के कारण क्रियाएँ भी पवित्र होती हैं, [ख] ये प्राण 'अयोदंष्ट्र' हैं—प्राणसाधक के दाँत भी लोहे के समान दृढ़ बने रहते हैं, [ग] ये प्राण "विधावन्" हैं, विविध गतियों के द्वारा जीवन को शुद्ध बनाये रखनेवाले हैं, [घ] गोतम इन्हें 'वराहु' रूप से स्मरण करता है, क्योंकि ये पवित्र हव्य पदार्थों का ही सेवन करनेवाले हैं । प्राणसाधक को राजस् व तामस् भोजन से ऊपर उठना चाहिए । भोजन के विषय में संयमी ही योग का लाभ प्राप्त कर सकता है । मन्त्र का ऋषि 'गोतम' प्राणों के महत्त्व का वर्णन करता है और प्राणसाधना करता हुआ इनके द्वारा प्रभु को मिलने के लिए यत्नशील होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधक पुरुष हितरमणीय कार्यों में ही प्रवृत्त होता है, दृढ़ दाँतोंवाला होता है, क्रियामय व शुद्ध जीवनवाला होता है और इसे सात्विक भोजन ही रुचिकर होता है ।
विषय
आक्रमण करने वाले वीरों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) हे वीर सैनिक गणो ! ( एतत् ) यह प्रत्यक्ष ( योजनम् ) तुम लोगों का योजन अर्थात् विशेष व्यवस्था या कार्य में नियुक्ति ( त्यत् न ) पूर्व योजन या नियुक्ति के समान ही ( अचेति ) जानना चाहिये ( यत् ) जिसको ( वः ) तुम लोगों के लिये ( गोतमः ) तुममें सबसे श्रेष्ठ वह प्रधान सेनापति, विद्वान् ( सस्वः ) उपदेश करता है जो तुमको ( हिरण्य चक्रान् ) सुवर्ण के चक्रों और ( अयोदृष्ट्रान् ) लोह की शस्त्रास्त्र रूप शत्रुनाशकारी दाढ़ों वाले ( वराहून् ) जंगली शूकरों के समान क्रोधान्ध होकर ( विधावतः ) विविध दिशाओं में (धावतः) दौड़ते हुओं को ( पश्यन् ) देखा करता है । शिक्षक सेनापति वीर सैनिकों को पूर्व शिक्षित व्यूहों की आज्ञा करे । युद्ध में सशस्र होकर वेग से दौड़ते हुए सैनिकों पर अपनी आंख रक्खे । वेतन बद्ध होने से सुवर्ण या धन प्राप्ति ही मानो उनके वेग से जाने का कारण है। शस्त्र ही उनके शत्रुओं को फाड़ खाने के साधन हैं। वे शूकर के समान क्रोधान्ध होकर दौड़ते हैं । अथवा अपने उत्कृष्ट बल वाले को ललकारने से वे वीर गण ‘वराहू’ हैं । (२) शिल्पपक्ष में—(मरुतः) अग्नि, वायु, जल आदि वेग युक्त, अति घोर शब्दकारी पदार्थों का यह (योजनं) विशेष प्रकार का संयोजन पूर्व के समान ही जानना चाहिये जिसका उपदेश ( गोतमः ) गति विद्या का उत्तम विद्वान् उपदेश करता है । जो ( वराहून् ) श्रेष्ठ पुरुषों को लेकर जाने वाले या खूब शब्द करके चलने वाले ( विधावतः ) नाना दिशाओं में वेग से जाते हुए ( हिरण्यचक्रान् ) लोह के चक्रों और ( अयोदंष्ट्रान् ) लोह के ही हाल से मढ़े रथों को ( पश्यन् ) देखता है, उनका आविष्कार करता है । (३) अध्यात्म में—हे प्राणगण मुख्य गोतम आत्मा पूर्व कल्प के समान ही तुम प्राणों का देह में संयोजन करता है । वह तुमको हिरण्य रूप आत्मा के कर्त्ता से चलने वाला और ( अयोदंष्ट्रान् ) वेग से चलने वाले मनो बल से ग्राह्य विषय के भोग करने वाले नाना दिशा में जाते हुए (वराहून्) उत्तम अन्नों को प्राप्त होने वाला तुमको देखता है, तुम पर वश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्द:—१ पंक्तिः । २ भुरिक्पंक्तिः । ५ निचृत्पंक्तिः । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ विराट्त्रिष्टुप् । ६ निचृद्बृहती ॥
विषय
विषय (भाषा)- विद्वान् मनुष्यों को क्या-क्या शिक्षा दे, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मरुतः ! यूयं यत् यः गोतमः न वः योजनं हिरण्यचक्रान् अयोदंष्ट्रान् वराहून् विधावतः रथान् एतत् पश्यन् ह सस्वः त्यत् अचेति तं विज्ञाय सत्कुरुत ॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मरुतः) मनुष्याः= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यत्) यः=जो, (गोतमः) विद्वान्= विद्वान् के, (न) इव=समान, (वः) युष्मभ्यं जिज्ञासुभ्यः= जिज्ञासुओं के लिये, (योजनम्) योक्तुमर्हं विमानादियानम्=जोड़कर बनाये जानेवाले विमान आदि यानों को, (हिरण्यचक्रान्) हिरण्यानि सुवर्णादीनि तेजांसि चक्रेषु येषां विमानादीनां तान्=जिन के पहियों में स्वर्ण आदि की चमक है, उनको, (अयोदंष्ट्रान्) अयोदंष्ट्रायो दंसनानि येषु तान्= कवचों में, (वराहून्) वरमाह्वयतः शब्दायमानान्=तेजी से शब्द करते हुए रथों से, (विधावतः) विविधान् मार्गान् धावतः=विविध मार्गों से दौड़ते हुए, (रथान्)= रथों के, (एतत्) प्रत्यक्षम्=प्रत्यक्ष, (पश्यन्) पर्य्यालोचमानः=हर ओर से देखते हुए, (ह) खलु=निश्चित रूप से, (सस्वः) उपदिशति=उपदेश करता है, (त्यत्) उक्तम्=उस कहे हुए को, (अचेति) संज्ञाप्यते=सूचित करता है, (तम्)=उसको, (विज्ञाय)=जानकर के, उसका (सत्कुरुत)=आदर करो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे समस्त ज्ञान रखनेवाला विद्वान् उत्तम क्रिया करके आनन्द को भोगता है, वैसे ही आप लोग भी विद्वानों की संगति से विद्या से सिद्ध क्रियाओं को करके सुखों को भोगो ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मरुतः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यत्) जो (गोतमः) विद्वान् के (न) समान (वः) जिज्ञासुओं के लिये (योजनम्) भागों को जोड़कर बनाये जानेवाले विमान आदि यानों को, (हिरण्यचक्रान्) जिनके पहियों में स्वर्ण आदि की चमक है, उनको (अयोदंष्ट्रान्) कवचों में, (वराहून्) तेजी से शब्द करते हुए रथों से (विधावतः) विविध मार्गों से दौड़ते हुए, [उन] (रथान्) रथों को (एतत्) प्रत्यक्ष रूप से, (पश्यन्) हर ओर से देखते हुए, (ह) निश्चित रूप से (सस्वः) उपदेश करता है और (त्यत्) उस कहे हुए को (अचेति) सूचित करता है। (तम्) उसको (विज्ञाय) जानकर के, [उसका] (सत्कुरुत) आदर करो ॥५॥
संस्कृत भाग
ए॒तत् । त्यत् । न । योज॑नम् । अ॒चे॒ति॒ । स॒स्वः । ह॒ । यत् । म॒रु॒तः॒ । गोत॑मः । वः॒ । पश्य॑न् । हिर॑ण्यऽचक्रान् । अयः॑ऽदंष्ट्रान् । वि॒ऽधाव॑तः । व॒राहू॑न् ॥ विषयः- विद्वान् मनुष्यान् प्रति किं किं शिक्षेतेत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः हे मनुष्या !हे मनुष्या ! यथा परावरज्ञो विद्वान् सुक्रियाः कृत्वाऽऽनन्दं भुङ्क्ते, तथैव भवन्तोऽपि विद्वत्सङ्गेन विद्यासिद्धाः क्रियाः कृत्वा सुखानि भुञ्जीरन् ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! भूतकाळ व भविष्यकाळातील गोष्टी जाणणारा विद्वान चांगले कर्म करून आनंद भोगतो तसे तुम्हीही विद्येने सिद्ध झालेले कर्म करून सुख भोगा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, heroes of knowledge and action moving at the speed of winds, this order of knowledge, action, science and progress which the scholars of science and Divinity, seeing the chariots of golden wheels and jaws of steel flying around and roaring, describes and teaches like an ideal teacher, awakens you to higher consciousness of knowledge and responsibility.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a learned person teach men is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, As a learned person tells you about an aeroplane seeing many chariots with golden wheels, with some tusks or parts of iron which are teeth-like, making good sound and rushing about, so it is known well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(योजनम्) योक्तुमर्हविमानादिकम् = Aeroplane and other vehicles which should be constructed. (सस्व:) उपदिशति = Tells or teaches. स्वृ-शब्दोपतापयो: इति धातोर्लङि बहुलं छन्दसीति शप: स्थानेश्लु: हलङ्याभ्य इतितलोपः (वराहून् ) वरम् आह्वयतः शब्दायमानान् (गोतम:) विद्वान्।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a great scholar enjoys, having done noble deeds, in the same manner, you should also enjoy happiness and delight by acquiring the knowledge of various sciences and accomplishing thereby application with the association of the learned.
Subject of the mantra
What kind of education should a learned man give to humans? This topic has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (marutaḥ) =humans, (yūyam) =all of you (yat) =those, (gotamaḥ) =of scholar, (na) =like, (vaḥ)= for the curious ones, (yojanam) =vehicles like aircraft etc. made by joining parts, (hiraṇyacakrān) =those whose wheels have the shine of gold etc., to them, (ayodaṃṣṭrān) =in armours, (varāhūn)= with chariots shouting words, (vidhāvataḥ)= running through various routes, [una]=those, (rathān) =to chariots, (etat)=well obviously, (paśyan)= looking from all sides, (ha)=definitely, (sasvaḥ)=preaches and, (tyat)=to that =to that, (vijñāya)=after knowing, [usakā]=him, (satkuruta)= respect.
English Translation (K.K.V.)
O humans! All of you who, like scholars, have seen the vehicles etc. which are made by joining parts together for the curious ones, whose wheels have the shine of gold etc., those chariots in their armours, running through different routes with the chariots making loud noises, those chariots etc., looking from all sides, definitely preaches and communicates what was said earlier. After knowing him, respect him.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. O humans! Just as a scholar having all the knowledge enjoys happiness by doing good activities, in the same way, you too enjoy happiness by doing activities accomplished through knowledge in the company of scholars.
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