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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 96/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - द्रविणोदा अग्निः शुद्धोऽग्निर्वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स मा॑त॒रिश्वा॑ पुरु॒वार॑पुष्टिर्वि॒दद्गा॒तुं तन॑याय स्व॒र्वित्। वि॒शां गो॒पा ज॑नि॒ता रोद॑स्योर्दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । मा॒त॒रिश्वा॑ । पु॒रु॒वार॑ऽपुष्टिः । वि॒दत् । गा॒तुम् । तन॑याय । स्वः॒ऽवित् । वि॒शाम् । गो॒पाः । ज॒नि॒ता । रोद॑स्योः । दे॒वाः । अ॒ग्निम् । धा॒र॒य॒न् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मातरिश्वा पुरुवारपुष्टिर्विदद्गातुं तनयाय स्वर्वित्। विशां गोपा जनिता रोदस्योर्देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। मातरिश्वा। पुरुवारऽपुष्टिः। विदत्। गातुम्। तनयाय। स्वःऽवित्। विशाम्। गोपाः। जनिता। रोदस्योः। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणःऽदाम् ॥ १.९६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 96; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    मनुष्यैर्येनेश्वरेण तनयाय स्वर्विद्गातुं विदद् पुरुवारपुष्टिर्मातरिश्वा बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुर्निर्मितो यो विशां गोपा रोदस्योर्जनिताऽस्ति यं द्रविणोदामिवाग्निं देवा धारयन् स सर्वदेष्टदेवो मन्तव्यः ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (सः) (मातरिश्वा) मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति स वायुः (पुरुवारपुष्टिः) पुरु बहु वारा वरणीया पुष्टिर्यस्मात् सः (विदत्) लम्भयन् (गातुम्) वाचम् (तनयाय) पुत्राय (स्वर्वित्) सुखप्रापकः (विशाम्) प्रजानाम् (गोपाः) रक्षकः (जनिता) उत्पादकः (रोदस्योः) प्रकाशाप्रकाशलोकसमूहयोः (देवाः०) इयादि पूर्ववत् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि वायुनिमित्तेन विना कस्यापि वाक् प्रवर्त्तितुं शक्नोति न च कस्यापि पुष्टिर्भवितुं योग्यास्ति। नहीश्वरमन्तरेण जगत उत्पत्तिरक्षणे भवत इति वेद्यम् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जिस ईश्वर ने (तनयाय) अपने पुत्र के समान जीव के लिये (स्वर्वित्) सुख को पहुँचानेहारी (गातुम्) वाणी को (विदत्) प्राप्त कराया, (पुरुवारपुष्टिः) जिससे अत्यन्त समस्त व्यवहार के स्वीकार करने की पुष्टि होती है, वह (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोने और बाहर-भीतर रहनेवाला पवन बनाया है, जो (विशाम्) प्रजाजनों का (गोपाः) पालने और (रोदस्योः) उजेले-अन्धेरे को वर्त्तानेहारे लोकसमूहों का (जनिता) उत्पन्न करनेवाला है, जिस (द्रविणोदाम्) धन देनेवाले के तुल्य (अग्निम्) जगदीश्वर को (देवाः) उक्त विद्वान् जन (धारयन्) धारण करते वा कराते हैं (सः) वह सब दिन इष्टदेव मानने योग्य है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पवन के निमित्त के विना किसी की वाणी प्रवृत्त नहीं हो सकती, न किसी की पुष्टि होने के योग्य और न ईश्वर के विना इस जगत् की उत्पत्ति और रक्षा के होने की संभावना है ॥ ४ ॥

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    विषय

    मार्ग पर चलना व सुख - प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (मातरिश्वा) = इस सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में गतिवाले व बढ़े हुए हैं [श्वि गतिवृद्ध्योः] (पुरुवारपुष्टिः) = पालन व पूरण करनेवाली वरणीय पुष्टिवाले हैं । प्रभु से प्राप्त पोषण हमारा पालन व पूरण करनेवाला है , अतएव वरणीय है । प्रकृति का पोषण मनुष्य के पतन का भी कारण हो जाता है । 

    २. वे प्रभु (तनयाय) = अपने पुत्रभूत इस मानव के लिए (गातुम्) = मार्ग को (विदद्) = प्राप्त कराते हैं और इस मार्ग पर चलनेवाले उस पुत्र को (स्वर्वित्) = सुख प्राप्त करानेवाले होते हैं । मार्ग पर चलने से ही तो मनुष्य सुखी होता है । 

    ३. वे प्रभु मार्ग का ज्ञान देते हुए (विशां गोपाः) = सब प्रजाओं का रक्षण करते हैं । वे प्रभु ही (रोदस्योः) = इन द्यावापृथिवी को (जनिता) = जन्म देनेवाले हैं । जन्म देने से वे पिता हैं । वे अपने पुत्रों को ज्ञान देकर ठीक मार्ग पर चलाते हैं और उन्हें सुख - प्राप्ति का पात्र बनाते हैं । 

    ४. (देवाः) = देववृत्ति के लोग इस (अग्निम्) = अग्रणी (द्रविणोदाम्) = सब आवश्यक धनों को देनेवाले प्रभु को (धारयन्) = धारण करते हैं । वस्तुतः प्रभु के धारण से ही वे देववृत्ति के बनते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु मार्गज्ञान देकर हमें सुख - प्राप्ति का अधिकारी बनाते हैं । प्रभु का पोषण हमारा पालन व पूरण करता है । वही वरणीय है । 
     

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    विषय

    वायु और अग्नि के समान विद्वानों के कर्तव्यों का दर्शन ।

    भावार्थ

    ( सः ) वह परमेश्वर ( मातरिश्वा ) आकाश में व्यापक वायु समान जगत् को निर्माण करने में उपादान रूप प्रकृति के परमाणु २ में व्यापक, एवं (मातरिश्वा) प्रमाता, ज्ञानकर्त्ता आत्मा के भी भीतर वर्तमान रह कर (पुरुवार-पुष्टिः) बहुत से अभिलाषा करने योग्य ऐश्वर्यों और काम्यसुखों की सम्पत्ति को देने हरा, ( स्वर्वित् ) सब सुखों, ज्ञान प्रकाशों को प्राप्त कराने हारा होकर (तनया) पुत्र के लिये माता पिता के समान और शिष्य को आचार्य के समान ( गातुम् ) ज्ञानमयी वाणी वेद का ( विदत् ) ज्ञान कराता है। वह ( विशां गोपाः ) समस्त प्रजाओं का रक्षक ( रोदस्योः ) सूर्य और पृथिवी और आकाश पृथिवी का ( जनिता ) उत्पादक है । ( देवाः ) विद्वान् गण उसी ( द्रविणोदाम् ) समस्त ऐश्वर्यों को देने वाले ( अग्निम् ) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर को ( धारयन् ) धारण करते और उसकी स्तुति करते हैं । (२) उसी प्रकार राजा, (मातरिश्वा) अपने माता पृथिवी के अधार पर जीने वाला, बहुत से ऐश्वर्यों का दाता, सुखप्रद होकर प्रजाओं को पुत्र के समान जान ( गातुम् ) भूमि आदि प्रदान करे। वह प्रजाओं का रक्षक और राजा प्रजा वर्गों का उत्पादक है। विजयेच्छु वीर जन उस ऐश्वर्य प्रद, वृतिदाता नायक की रक्षा करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ द्रविणोदा अग्निः शुद्धोग्निर्वा देवता ॥ त्रिष्टुप् छन्दः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायूशिवाय कोणाचीही वाणी प्रवृत्त होऊ शकत नाही. कोणाची पुष्टी होऊ शकत नाही व ईश्वराशिवाय या जगाची उत्पत्ती व रक्षण होण्याची शक्यता नाही. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He, Agni, is Matarishva, universal breath of life replete in the middle regions of space. He is the inexhaustible treasure-home of energy and nourishment. He revealed the Holy Word of the Veda for His child, the humanity. He is the giver of light and happiness. He is the protector of the people and creator of heaven and earth and the skies. Devas, divinities of nature and humanity, worship Him, universal and generous creator and giver of wealth, and bear on the fire of yajna from generation to generation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is He (Agni) is taught further in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Men should believe in God as Adorable Lord who has made the air (external as well as internal in the form of Prana) that is bestower of happiness for us and our children, that causes the speech to come out and that nourishes with abundant benefits. He (God) is the Protector of mankind and Generator of heaven and earth. Him alone enlightened truthful persons uphold in their noble lives as the Giver of all wealth (Material as well as spiritual in the form of wisdom, Peace and Bliss).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मातरिश्वा) मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति स वायुः = Air. (पुरुवारपुष्टि:) पुरु बहुवारा वरणीया पुष्टि: यस्मात् सः = Nourisher with abundant benefits. (गातुम्) बाचम् = Speech.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All should know that it is not possible to speak out without the help of air and none can get proper nourishment without it. None can create and sustain or uphold the world expect God.

    Translator's Notes

    गातुरितिपदनाम (निघ० ४.१ ) पद गतौ गतेऽस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थंमादाय ज्ञापयति सर्वं वस्तुजातमिति गातुः वाक् ॥

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