ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 96/ मन्त्र 6
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - द्रविणोदा अग्निः शुद्धोऽग्निर्वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
रा॒यो बु॒ध्नः सं॒गम॑नो॒ वसू॑नां य॒ज्ञस्य॑ के॒तुर्म॑न्म॒साध॑नो॒ वेः। अ॒मृ॒त॒त्वं रक्ष॑माणास एनं दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥
स्वर सहित पद पाठरा॒यः । बु॒ध्नः । स॒म्ऽगम॑नः । वसू॑नाम् । य॒ज्ञस्य॑ । के॒तुः । म॒न्म॒ऽसाध॑नः । वेः । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । रक्ष॑माणासः । ए॒न॒म् । दे॒वाः । अ॒ग्निम् । धा॒र॒य॒न् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
रायो बुध्नः संगमनो वसूनां यज्ञस्य केतुर्मन्मसाधनो वेः। अमृतत्वं रक्षमाणास एनं देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥
स्वर रहित पद पाठरायः। बुध्नः। सम्ऽगमनः। वसूनाम्। यज्ञस्य। केतुः। मन्मऽसाधनः। वेः। अमृतऽत्वम्। रक्षमाणासः। एनम्। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणःऽदाम् ॥ १.९६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 96; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यो वेर्यज्ञस्य बुध्नः केतुर्मन्मसाधनो रायो वसूनां सङ्गमनो वाऽमृतत्वं रक्षमाणासो देवा यं द्रविणोदामग्निं धारयंस्तमेवैनमिष्टदेवं यूयं मन्यध्वम् ॥ ६ ॥
पदार्थः
(रायः) विद्याचक्रवर्त्तिराज्यधनस्य (बुध्नः) यो बोधयति सर्वान्पदार्थान्वेदद्वारा सः (सङ्गमनः) यः सम्यग्गमयति सः (वसूनाम्) अग्निपृथिव्याद्यष्टानां त्रयस्त्रिंशद्देवान्तर्गतानाम् (यज्ञस्य) सङ्गमनीयस्य विद्याबोधस्य (केतुः) ज्ञापकः (मन्मसाधनः) यो मन्मानि विचारयुक्तानि कार्य्याणि साधयति सः (वेः) कमनीयस्य (अमृतत्वम्) प्राप्तमोक्षाणां भावम् (रक्षमाणासः) ये रक्षन्ति ते (एनम्) यथोक्तम् (देवाः, अग्निम्०) इति पूर्ववत् ॥ ६ ॥
भावार्थः
जीवनमुक्ता विदेहमुक्ता वा विद्वांसो यमाश्रित्यानन्दन्ति स एव सर्वैरुपासनीयः ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (वेः) मनोहर (यज्ञस्य) अच्छे प्रकार समझाने योग्य विद्याबोध को (बुध्नः) समझाने और (केतुः) सब व्यवहारों को अनेक प्रकारों से चितानेवाला (मन्मसाधनः) वा विचारयुक्त कामों को सिद्ध कराने तथा (रायः) विद्या, चक्रवर्त्तिराज्य, धन और (वसूनाम्) तेंतीस देवताओं में अग्नि, पृथिवी आदि देवताओं का (सङ्गमनः) अच्छे प्रकार प्राप्त करानेवाला है वा (अमृतत्वम्) मोक्षमार्ग को (रक्षमाणासः) राखे हुए (देवाः) आप्त विद्वान् जन जिस (द्रविणोदाम्) धन आदि पदार्थ देनेवाले के समान सब जगत् को देनेहारे (अग्निम्) परमेश्वर को (धारयन्) धारण करते वा कराते हैं (एनम्) उसी को तुम लोग इष्टदेव मानो ॥ ६ ॥
भावार्थ
जीवनमुक्त अर्थात् देहाभिमान आदि को छोड़े हुए वा शरीरत्यागी मुक्त विद्वान् जन जिसका आश्रय करके आनन्द को प्राप्त होते हैं, वही ईश्वर सबके उपासना करने योग्य है ॥ ६ ॥
विषय
अमृतत्व की रक्षा करते हुए
पदार्थ
१. वे प्रभु (रायः बुध्नः) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के मूलभूत हैं । सब ऐश्वर्य प्रभु में ही निवास करते हैं । प्रभु के ये ऐश्वर्य (रायः) = [रा दाने] जीव को देने के लिए हैं । जीव की उन्नति के लिए ही ये उद्दिष्ट हैं , इसलिए वे प्रभु (वसूनां संगमनः) = निवास के लिए आवश्यक धनों के प्राप्त करानेवाले हैं । जितना धन जीवन के लिए आवश्यक होता है , वह प्रभु कृपा से मिलता ही है । प्रभु धन तो देते ही हैं , साथ ही वे (यज्ञस्य केतुः) = यज्ञों के प्रकाशक हैं और यही संकेत करते हैं कि इन धनों का तुम्हें यज्ञों में ही विनियोग करना है । वे प्रभु (वेः) = [वी गति] अपने समीप आनेवाले के (मन्मसाधनः) = ज्ञान को सिद्ध करनेवाले हैं । प्रभु की उपासना से ज्ञान प्राप्त होता है । यह ज्ञानी पुरुष धनों का यज्ञों में ही व्यय करता है । वह समझता है कि यज्ञों के अभाव में धन भोग - विलास की वृद्धि का कारण बनकर मनुष्यों के पतन का हेतु बनता है । यज्ञों में विनियुक्त होने पर यह यज्ञशेष का सेवन करनेवाले को अमृतत्व प्राप्त कराता है । यज्ञशेष ही तो अमृत है ।
२. इस प्रकार (अमृतत्वं रक्षमाणासः) = अमृतत्व की रक्षा करते हुए (देवाः) = देव पुरुष एनं (अग्निम्) = इस अग्रणी (द्रविणोदाम्) = सब द्रव्यों को देनेवाले प्रभु को (धारयन्) = धारण करते हैं । यज्ञशील पुरुष भोगासक्त न होने से रोगों से आक्रान्त नहीं होता , अमर बनता है , रोगरूप मृत्युओं से बचा रहता है । यही प्रभु का सच्चा उपासक व धारक है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु धन देते हैं तो साथ ही यज्ञों का भी प्रकाश कर देते हैं । वे निर्देश करते हैं कि तुम्हें यज्ञों के लिए ही धन दिये गये हैं । इस प्रकार चलने पर ही तुम अमृतत्व की रक्षा कर पाओगे ।
विषय
विद्वानों का नायक के प्रति और उसका प्रजाजनों के प्रति कर्तव्य ।
भावार्थ
जो (रायः ) समस्त ऐश्वर्यो का ( बुध्नः ) आश्रय, मूल कारण और ( वसूनां ) समस्त वास करने हारे जीवों और राष्ट्रवासियों को ( संगमनः ) एक साथ मिलाने हारा, सब को जोड़ने हारा ( यज्ञस्य ) एक दूसरे से लेन देन के, और आदर सत्कार और परस्पर संग के व्यवहार को बतलाने हारा ( वेः ) अभिलाषा करने योग्य पदार्थ का ( मन्मसाधनः ) इच्छानुरूप रीति से प्राप्त कराने वाला है ( एनं अग्निम् ) उस अग्रणी नायक, ( द्रविणोदाम् ) ऐश्वर्यप्रद पुरुष को ( अमृतत्वं रक्षमाणासः ) अविनाशी स्थिर पद की या दीर्घजीवन की रक्षा करते हुए (देवाः) विद्वान् और वीर जन ( धारयन् ) धारण करते हैं । (२) परमेश्वर ( रायः बुध्नः ) सब ऐश्वर्यो का आश्रय तथा ( बुध्नः ) बोध कराने वाला ( वसूनां ) पृथिवी आदि लोकों का ज्ञान कराने वाला है। वही ( यज्ञस्य केतुः ) विद्यादि तथा श्रेष्ठ कर्मों का ज्ञान कराता है। वही (वेः मन्म ) काम्य कर्मों का ज्ञान कराने वाला है तथा आश्रय । ( अमृतत्वं रक्षमाणास: देवाः) मोक्षभाव अर्थात् सांसारिक बन्धनों से मुक्त दशा को प्राप्त हुए विद्वान् जन उसी को ( द्रविणोदाम् अग्निम् ) ऐश्वर्यप्रद, ज्ञानस्वरूप करके ( धारयन् ) मानते और जानते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ द्रविणोदा अग्निः शुद्धोग्निर्वा देवता ॥ त्रिष्टुप् छन्दः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनमुक्त अर्थात देहाभिमान इत्यादी सोडलेले किंवा शरीरत्यागी मुक्त विद्वान ज्याचा आश्रय घेतात व आनंद प्राप्त करतात तोच ईश्वर सर्वांनी उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni is the foundation and magic mantra of wealth and power. It is the companion of the Vasus, sustainers of life such as the earth, and our guide to achieve them. It is the flag-post and light-house to the yajnic projects of life, and means to the fulfilment of cherished desires. The seekers of immortality and protectors of eternal values hold on to this giver of universal wealth and bear on the fire of yajna from generation to generation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni (God) is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should believe in that God as your Adorable Lord who is the Giver of all knowledge through the Vedas, the Director of the desirable Yajna-wisdom that unites all. Accomplisher of all thoughtful acts, Bestower of all riches, (knowledge and the prosperity of vast good Government). It is Him alone that enlightened in their emancipated state uphold in the their noble lives as the Giver of all wealth and power.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(बुध्न:) य: बोधयति सर्वान् पदार्थान् वेदद्वारा सः = He who gives the knowledge of all objects through the Vedas. (वे:) कमनीयस्य = Of the desirable. (यज्ञस्य) संगमनीयस्य विद्याबोधस्य = Of the knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That God alone should be adored by all in whom all emancipated souls take shelter.
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