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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 96/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - द्रविणोदा अग्निः शुद्धोऽग्निर्वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नक्तो॒षासा॒ वर्ण॑मा॒मेम्या॑ने धा॒पये॑ते॒ शिशु॒मेकं॑ समी॒ची। द्यावा॒क्षामा॑ रु॒क्मो अ॒न्तर्वि भा॑ति दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नक्तो॒षसा॑ । वर्ण॑म् । आ॒मेम्या॑ने॒ इत्या॒ऽमेम्या॑ने । धा॒पये॑ते॒ इति॑ । शिशु॑म् । एक॑म् । स॒मी॒ची॒ इति॑ स॒म्ऽई॒ची । द्यावा॒क्षामा॑ । रु॒क्मः । अ॒न्तः । वि । भा॒ति॒ । दे॒वाः । अ॒ग्निम् । धा॒र॒य॒न् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नक्तोषासा वर्णमामेम्याने धापयेते शिशुमेकं समीची। द्यावाक्षामा रुक्मो अन्तर्वि भाति देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नक्तोषासा। वर्णम्। आमेम्याने इत्याऽमेम्याने। धापयेते इति। शिशुम्। एकम्। समीची इति सम्ऽईची। द्यावाक्षामा। रुक्मः। अन्तः। वि। भाति। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणःऽदाम् ॥ १.९६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 96; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यस्य सृष्टौ वर्णमामेम्याने समीची नक्तोषासा द्यावाक्षामा शिशुं धापयेते येनोत्पादितविद्युद्युक्तो रुक्मः प्राणः सर्वस्यान्तर्मध्ये विभाति यं द्रविणोदामेकमग्निं देवा धारयन्स एव सर्वस्य पिताऽस्तीति यूयं मन्यध्वम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (नक्तोषासा) रात्रिन्दिवम् (वर्णम्) स्वरूपम् (आमेम्याने) पुनः पुनरहिंसन्त्यौ (धापयेते) दुग्धं पाययतः (शिशुम्) बालकम् (एकम्) (समीची) प्राप्तसङ्गती (द्यावाक्षामा) प्रकाशभूमी (रुक्मः) स्वप्रकाशस्वरूपः (अन्तः) सर्वस्य मध्ये (वि) विशेषे (भाति) (देवाः०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा धाप्यमानस्य बालकस्य पार्श्वे स्थिते द्वे स्त्रियौ दुग्धं पाययतस्तथैवाहोरात्रौ सूर्य्यपृथिवी च वर्त्तेते यस्य नियमेनैवं भवति स सर्वस्य जनकः कथं न स्यात् ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यलोगो ! जिसकी सृष्टि में (वर्णम्) स्वरूप अर्थात् उत्पन्नमात्र को (आमेम्याने) बार-बार विनाश न करते हुए (समीची) सङ्ग को प्राप्त (नक्तोषासा) रात्रि-दिवस वा (द्यावाक्षामा) सूर्य्य और भूमिलोक (शिशुम्) बालक को (धापयेते) दुग्धपान करानेवाले माता-पिता के समान रस आदि का पान करवाते हैं, जिसकी उत्पन्न की बिजुली से युक्त (रुक्मः) आप ही प्रकाशस्वरूप प्राण (अन्तः) सबके बीच (वि, भाति) विशेष प्रकाश को प्राप्त होता है, जिस (द्रविणोदाम्) धनादि पदार्थ देनेहारे के समान (एकम्) अद्वितीयमात्र स्वरूप (अग्निम्) परमेश्वर को (देवाः) आप्त विद्वान् जन (धारयन्) धारणा करते वा कराते हैं, वही सबका पिता है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दूध पिलानेहारे बालक के समीप में स्थित दो स्त्रियाँ उस बालक को दूध पिलाती हैं, वैसे ही दिन और रात्रि तथा सूर्य और पृथिवी हैं, जिसके नियम से ऐसा होता है, वह सबका उत्पन्न करनेवाला कैसे न हो ॥ ५ ॥

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    विषय

    प्रातः - सायं का यज्ञ व प्रभु का प्रकाश

    पदार्थ

    १. (नक्तोषासा) = रात्रि और उषा [उषा यहाँ दिन के लिए प्रयुक्त हुआ है] (वर्णम्) = एक दूसरे के रूप को (आमेम्याने) = फिर - फिर हिंसित करती हुई , परन्तु फिर भी (समीची) = संगत हुई हुई (एक शिशुम्) = एक अग्निरूप पुत्र को (धापयेते) = हविरूप दूध का पान कराती हैं । रात्रि दिन के रूप को समाप्त करती है और दिन रात्रि के रूप को समाप्त करता है । एवं , परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले हैं , परन्तु फिर भी जब वे संगत होते हैं , अर्थात् प्रातः और सायं के सन्धिकालों में ये अपने अग्निरूप पुत्र को हवि के रूप में दूध पिलाते प्रतीत होते हैं । इन सन्धिकालों में देववृत्ति के लोग यज्ञ करते हैं और प्रज्वलित अग्नि में घृतादि द्रव्यों की आहुति देते हैं । यही दिन - रात का अपने शिशु को दूध पिलाना है । 

    २. इस यज्ञियवृत्ति के होने पर (द्यावाक्षामा अन्तः) = द्युलोक व पृथिवीलोक में (रुक्मः) = स्वर्ण के समान दीप्तिवाले वे प्रभु (विभाति) = विशेषरूप से दीप्त होते हैं । इन यज्ञियवृत्तिवाले पुरुषों को सौमनस्य प्राप्त होता है और मन के निर्मल होने पर (देवाः) = देवलोग (अग्निम्) = उस अग्रणी (द्रविणोदाम्) = सब द्रव्यों को देनेवाले प्रभु को (धारयन्) = धारण करते हैं । इन्हें सर्वत्र उस प्रभु की महिमा दीखती है । बाह्य जगत् में तो ये प्रभु की महिमा को देखते ही हैं , अपने हृदयों में भी प्रभु के प्रकाश को देखते हैं । बाह्यजगत् के द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में अन्तरिक्षलोक है , इसी प्रकार शरीर में द्युलोक मस्तिष्क है , पृथिवी शरीर है - इनके मध्य में हृदयान्तरिक्ष है । बाह्यान्तरिक्ष में जहाँ प्रभु की महिमा दीखती है , वहाँ हृदयान्तरिक्ष में प्रभु का प्रकाश दिखाई देता है । इस प्रभु को देव धारण करते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - देवलोग सन्धिवेलाओं में यज्ञ करते हैं और हृदय में प्रभु को धारण करते हैं । 
     

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    विषय

    दिन रात्रि के समान स्त्री पुरुषों का विद्वानों के धारण पोषण का कार्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार दो स्त्री पुरुष (समीची आमेम्याने) परस्पर अच्छी प्रकार मिल कर (एक शिशुं धापयेते) एक बालक को दुग्ध आदि पान कराते पालते पोसते हैं और जिस प्रकार (नक्तोषासा) रात और दिन ( समीची ) अच्छे प्रकार संगत होकर (वर्णम् आमेम्याने ) एक दूसरे के वर्ण का अर्थात् रूप का नाश करती हुई (एकं शिशुं धापयेते) बीच में स्थित सूर्य को बालक के समान धारण करती हैं और वह ( रुक्मः ) कान्तिमान होकर (द्यावाक्षामा) आकाश और भूमि के ( अन्तः विभाति ) बीच में शोभा पाता और चमकता है । ( देवाः ) किरण गण उस ( द्रविणोदाम् ) प्रकाश और जीवन देने वाले सूर्य रूप अग्नि को ( धारयन् ) धारण करते हैं। विद्वान् गुरुजन उस गुरु दक्षिणादि देने वाले बालक को अपने भीतर शिष्य रूप से धारण करते हैं उसी प्रकार दिन रात्रि के समान दो प्रकार की संस्थाएं, विद्वत्सभा और राजसभा दोनों ( समीची ) परस्पर संगत होकर ( वर्णम् आमेम्याने ) भेद भाव को नाश करती हुई ( एकं ) एक ( शिशुम् ) ज्ञानवान् पुरुष को ( धापयेते ) पुष्ट करें । ( रुक्मः ) सब को रुचिकर, प्रिय नायक ( द्यावाक्षामा ) ज्ञानवान् विद्वानों और भूमि के वासी प्रतिनिधियों के ( अन्तः ) बीच में ( विभाति ) विशेष रूप से विराजे । ( देवाः ) विद्वान् पुरुष ( द्रविणोदाम् ) ज्ञान और ऐश्वर्यों के देने वाले उस ( अग्निम् ) अग्रणी नायक को व्यवस्थापक के रूप में ( धारयन् ) धारण करें । इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ द्रविणोदा अग्निः शुद्धोग्निर्वा देवता ॥ त्रिष्टुप् छन्दः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा दूध पाजविणाऱ्या दोन स्त्रिया बालकाला दूध पाजवितात तसेच दिवस व रात्र आणि सूर्य व पृथ्वी आहेत. ज्याच्या नियमामुळे या गोष्टी घडतात तो सर्वांना उत्पन्न करणारा कसा नसेल? ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The night and the day both of different light and form like two nursing mothers together feed the same one child. The child, Agni, the sun, pervades and shines in heaven and over earth. The devas serve and worship Agni, giver of universal wealth, and move on bearing the fire of yajna from generation to generation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni in is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The night and the day mutually not destroying or complementing each other's complexion, give nourishment, combined together, to one infant.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आमेभ्याने ) पुनः पुनः अहिंसन्त्यौ = Not destroying but helping. (रुक्मः) स्वप्रकाशस्वरूपः = Radiant-Prana. रुच दीप्तौ

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The wind with electricity i.e. Prana shines with in all created by that Almighty, whom enlightened truthful persons uphold in their noble lives as the Giver of wealth (external as well internal.) You should believe in that One God as the Father of all.

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