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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 100/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दुवस्युर्वान्दनः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    क्र॒तु॒प्रावा॑ जरि॒ता शश्व॑ता॒मव॒ इन्द्र॒ इद्भ॒द्रा प्रम॑तिः सु॒ताव॑ताम् । पू॒र्णमूध॑र्दि॒व्यं यस्य॑ सि॒क्तय॒ आ स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृणीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्र॒तु॒ऽप्रावा॑ । ज॒रि॒ता । शश्व॑ताम् । अवः॑ । इन्द्रः॑ । इत् । भ॒द्रा । प्रऽम॑तिः । सु॒तऽव॑ताम् । पू॒र्णम् । ऊधः॑ । दि॒व्यम् । यस्य॑ । सि॒क्तये॑ । आ । स॒र्वऽता॑तिम् । अदि॑तिम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रतुप्रावा जरिता शश्वतामव इन्द्र इद्भद्रा प्रमतिः सुतावताम् । पूर्णमूधर्दिव्यं यस्य सिक्तय आ सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रतुऽप्रावा । जरिता । शश्वताम् । अवः । इन्द्रः । इत् । भद्रा । प्रऽमतिः । सुतऽवताम् । पूर्णम् । ऊधः । दिव्यम् । यस्य । सिक्तये । आ । सर्वऽतातिम् । अदितिम् । वृणीमहे ॥ १०.१००.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 100; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (क्रतुप्रावा) कर्मों का पूरण करनेवाला फलप्रदान करके (शश्वतां जरिता) महान् पदार्थों का भी जीर्ण करनेवाला (सुतवताम्) उपासनारस सम्पादन करनेवालों का (अवः) रक्षक (यस्य) जिस परमात्मा की (भद्रा प्रमतिः) कल्याण करनेवाली प्रकृष्ट मति है (पूर्णं दिव्यम्-ऊधः) गौ के उधस् लेने के समान आनन्दपूर्ण अलौकिक मोक्षधाम है, (सिक्तये) उपासक को सींचने के लिये (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥११॥

    भावार्थ

    परमात्मा महाकारवाले पदार्थों को भी जीर्ण करनेवाला उपासकों का रक्षक है, उसकी प्रकृष्ट मति कल्याण करनेवाली, वह उपासकों के लिये अमृत आनन्दपूर्ण महान् पात्र को रखता है, उपासक आत्मा को सिञ्चित करने के लिये उस जगद्विस्तारक अविनाशी को मानना अपनाना चाहिये ॥११॥

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    विषय

    दिव्य ऊधस् की परिपूर्णता

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः इत्) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु ही (क्रतुप्रावा) = [प्रा पूरणे] हमारे सब यज्ञात्मक कर्मों पूरण करनेवाले हैं। (जरिता) = [गरिता] सब उत्तम कर्मों का उपदेश देनेवाले हैं। (शश्वताम्) = [शश् प्लुतगतौ ] स्फूर्ति के साथ कार्यों के करनेवालों के (अवः) = वे रक्षक हैं । [२] (सुतावताम्) = [सोमवताम् सा० ] सोम का, वीर्यशक्ति का सम्पादन करनेवालों की (प्रमतिः) = प्रकृष्ट बुद्धि सदा (भद्रा) = कल्याणकारिणी होती है। इनकी बुद्धि नाश की दिशा में न सोचकर सदा निर्माण की दिशा में ही सोचती है। [३] इन सोम के रक्षण करनेवालों का (दिव्यं ऊधः) = दिव्य (ऊधस् पूर्णम्) = पूर्ण होता है। गौ के दुग्धाधिकरण को सामान्यतः ऊधस् कहते हैं । यहाँ यह ऊधस् दिव्य है, प्रकाश का अधिकरण है । सोमरक्षण से बुद्धि सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों के ग्रहण के योग्य बन जाती है इस प्रमति [= सूक्ष्म बुद्धि] से इनका ज्ञान बढ़ता है और इनका यह विज्ञानमयकोश ज्ञानदुग्ध से परिपूर्ण हो जाता है। (यस्य) = जिस विज्ञानमयकोश के (सिक्तये) = ज्ञान द्वारा सेचन के लिए (सर्वतातिम्) = सब दिव्यताओं के विस्तार की कारणभूत (अदितिम्) = स्वास्थ्य की देवता को (आवृणीमहे) = हम सर्वथा वरते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे यज्ञों को पूर्ण करते हैं, हमें यज्ञों का उपदेश देते हैं। सोमरक्षण से बुद्धि तीव्र होती है, ज्ञान का कोश परिपूर्ण होता है। इस ज्ञानकोश को ज्ञान से सिक्त करने के लिए हम स्वास्थ्य का वरण करते हैं।

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    विषय

    सूर्य, मेघ, वेदवाणी और स्तन के तुल्य सुखद प्रभु का वरण।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) तेजोयुक्त, प्रकाशमान् सूर्य जिस प्रकार (क्रतु-प्रावा) समस्त ऋतुओं का पूर्ण करने वाला, प्रवर्तक और (जरिता) काल-धर्म से सबकी आयु का ह्रास करने हारा और (सुतावताम्) उत्पन्न ग्राणियों से युक्त (शश्वताम् अवः इत्) सब लोकों का प्रवर्तक, बल, रक्षक है, (यस्य भद्रा प्रमतिः) जिस की सर्वमंगलकारिणी, सर्व सुखदायिनी सबसे उत्कृष्ट ज्ञानमयी बुद्धि वा वेदमयी स्तुति वाणी है। (यस्य) जिसके मेघादि (पूर्णम् ऊधः) जल का धारण करने वाले, जल से पूर्ण मेघ स्तन के समान (सिक्तये) लोक के सेचने, वा तृप्त करने के लिये हैं उस (अदितिम्) पृथिवी-सूर्यवत् प्रकाश, अन्न आदि के अक्षय भण्डार रूप प्रभु की हम (आ वृणीमहे) सब प्रकार से प्रार्थना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्दुवस्युर्वान्दनः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः–१–३ जगती। ४, ५, ७, ११ निचृज्जगती। ६, ८, १० विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती। १२ विराट् त्रिष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः क्रतु-प्रावा) ऐश्वर्यवान् परमात्मा हि कर्मणां पूरयिता तत्फलप्रदानेन “क्रतुः कर्मनाम” [निघ० २।१] “प्रा पूरणे” [अदादि०] ततः “आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च” [अष्टा० ३।२।७४] इति वनिप् (शश्वतां जरिता) बहूनाम्-मरुत्परिमाणवतामपि “शश्वत् बहुनाम” [निघ० ३।१] जरयिता जरां प्रापयिता-अन्तर्गतो णिजर्थः (सुतवताम्-अवः-यस्य भद्रा प्रमतिः) सम्पादितोपासनवतां रक्षकोऽस्ति, यस्य कल्याणकारिणी प्रकृष्टमतिरस्ति (पूर्णम्-ऊधः-दिव्यं सिक्तये) यस्य पूर्णमूधो गोरूधोवदमृतरसपूर्णमलौकिकमुपासकात्मनः सेचनायास्ति (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Giver of success in actions, appraiser of the permanent, protector and promoter of the makers of soma, Indra is the giver of noble intelligence, understanding and wisdom for all. Full is his treasure of wealth like the mother cow’s stream of milk. We honour and adore the universal generosity of divine imperishable inexhaustible Mother Nature.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा मोठ्या आकाराच्या पदार्थांनाही जीर्ण करणारा आहे. उपासकांचा रक्षक आहे. त्याची प्रकृष्ट मती कल्याणकारी आहे. तो उपासकासाठी अमृत आनंदपूर्ण पात्र ठेवतो. उपासकाने आत्म्याला सिंचित करण्यासाठी त्या जग विस्तारक अविनाशी परमेश्वराला मानून आपलेसे केले पाहिजे. ॥११॥

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