ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 100/ मन्त्र 12
ऋषिः - दुवस्युर्वान्दनः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
चि॒त्रस्ते॑ भा॒नुः क्र॑तु॒प्रा अ॑भि॒ष्टिः सन्ति॒ स्पृधो॑ जरणि॒प्रा अधृ॑ष्टाः । रजि॑ष्ठया॒ रज्या॑ प॒श्व आ गोस्तूतू॑र्षति॒ पर्यग्रं॑ दुव॒स्युः ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रः । ते॒ । भा॒नुः । क्र॒तु॒ऽप्राः । अ॒भि॒ष्टिः । सन्ति॑ । स्पृधः॑ । ज॒र॒णि॒ऽप्राः । अधृ॑ष्टाः । रजि॑ष्टया । रज्या॑ । प॒श्वः । आ । गोः । तूतू॑र्षति । परि॑ । अग्र॑म् । दु॒व॒स्युः ॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रस्ते भानुः क्रतुप्रा अभिष्टिः सन्ति स्पृधो जरणिप्रा अधृष्टाः । रजिष्ठया रज्या पश्व आ गोस्तूतूर्षति पर्यग्रं दुवस्युः ॥
स्वर रहित पद पाठचित्रः । ते । भानुः । क्रतुऽप्राः । अभिष्टिः । सन्ति । स्पृधः । जरणिऽप्राः । अधृष्टाः । रजिष्टया । रज्या । पश्वः । आ । गोः । तूतूर्षति । परि । अग्रम् । दुवस्युः ॥ १०.१००.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 100; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते) हे परमात्मन् ! तेरा (भानुः) शक्तिरूप प्रकाश (चित्रः) दर्शनीय (क्रतुप्राः) कर्मों को पूर्ण करनेवाला फल प्रदान करके (अभिष्टिः) अभिकाङ्क्षा करने योग्य-चाहने योग्य (स्पृधः) तेरी इच्छाएँ (जरणिप्राः) स्तुति करनेवाले को पूर्ण करनेवाली (अधृष्टाः सन्ति) अबाध्य हैं (गोः पश्वः) जैसे गौ पशु का (दुवस्युः) परिचारक-सेवा करनेवाला (रजिष्ठया रज्वा) अतिसरल-अति कोमल रस्सी से (अग्रम्) आगे-अपने सम्मुख (परि-आ-तूतूर्षति) इधर-उधर से शीघ्र प्राप्त करता है, वैसे तेरा परिचारक स्तोता सरल स्तुति से तुझे अपने सम्मुख शीघ्रता से प्राप्त करता है ॥१२॥
भावार्थ
परमात्मा की शक्ति का प्रकाश करनेवाले को परमात्मा कर्मफल से भर देता है, उसकी इच्छाएँ स्तुति करनेवाले को कामनाओं से पूर्ण कर देती हैं, किन्तु स्तुति करनेवाले की स्तुति अति सरल होने पर वह परमात्मा को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, जैसे गौ की सेवा करनेवाला कोमल डोरी से गौ को अपनी ओर खींच लेता है ॥१२॥
विषय
ज्ञान के शिखर पर
पदार्थ
[१] हे प्रभो! (ते भानुः) = आपका प्रकाश (चित्र:) = अद्भुत है अथवा (चायनीय) = पूजनीय है । (क्रतुप्राः) = यह ज्ञान हमारे सब यज्ञात्मक कर्मों का पूरक है। अतएव (अभिष्टिः) = यह ज्ञान अभ्येषणीय- चाहने योग्य है। [२] आपके (स्पृधः) = [ स्पृध् संग्रामनाम नि० २।१७] संग्राम (सन्ति) = हैं, जो (जरणिप्राः) = स्तोताओं का पूरण करनेवाले हैं और (अधृष्टाः) = शत्रुओं से धर्षण के योग्य नहीं है । हृदयस्थली में काम, क्रोध, लोभ आदि के साथ चलनेवाले संग्राम अध्यात्म संग्राम हैं। एक स्तोता प्रभु स्मरण के द्वारा प्रभु को ही इन से लड़ने के लिए आगे करता है। सो ये संग्राम प्रभु के संग्राम हो जाते हैं। प्रभु की शक्ति से कामादि शत्रुओं का धर्षण होता है । ये काम, क्रोधादि शत्रु प्रभु के स्तोता का धर्षण नहीं कर पाते । [३] यह (दुवस्युः) = प्रभु की परिचर्या करनेवाला (रजिष्ठया) = [ऋजुतम नि० ८।१९ ] अत्यन्त सरलता से युक्त (रज्या) = [रंज् to worship] उपासना के द्वारा (पश्वः) = उस सर्वद्रष्टा प्रभु की (गोः) = सर्वार्थ प्रतिपादि का ज्ञान की अधिष्ठानभूता वेदवाणी के [गमयति अर्थान्] (अग्रम्) = अग्रभाग तक, शिखर तक (परि आ तुतूर्षति) = सर्वथा त्वरा से पहुँचनेवाला होता है। प्रभु की उपासना से निर्मल जीवनवाला होकर, कामरूप आवरण को दूर करके दीप्त ज्ञानवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का प्रकाश अद्भुत है । उपासक प्रभु की उपासना से कामरूप आवरण को विनष्ट करके इस प्रकाश को प्राप्त करता है यह उपासक ज्ञान की वाणी के शिखर [अग्रभाग] तक पहुँचता है । इस सूक्त की केन्द्रीभूत भावना यही है कि प्रभु की उपासना से काम को जीतकर हम सोम का रक्षण करें। इससे तीव्र बुद्धि बनकर हम ज्ञान के शिखर पर पहुँचनेवाले हों। यह ज्ञान के शिखर पहुँचनेवाला ही 'बुध' सोम का रक्षण करके ही यह बुध बन पाया है सो 'सौम्य ' है । अगले सूक्त का ऋषि 'बुधः सौम्यः ' ही है। ज्ञान प्राप्ति के कारण यह सौम्य व विनीत है। इसकी प्रार्थना का स्वरूप निम्न है-
विषय
प्रभु का अदम्य तेज, अपराजित कामनाएं हैं। रस्सी से पशु के तुल्य स्तुति द्वारा प्रभु के ज्ञान की प्राप्ति।
भावार्थ
हे प्रभो ! (ते भानुः) तेरा प्रकाश (चित्रः) ज्ञान देने वाला, अद्भुत, (क्रतु-प्राः) कर्म और ज्ञान का देने वाला और (अभिष्टिः) सबके चाहने योग्य है। और (ते स्पृधः) तेरी इच्छाएं और शक्तियां भी (जरणि-प्राः) स्तोता, विद्वानों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली, (अधृष्टाः) किसी से न दबने वाली, सदा अपराजित सेनाओं के तुल्य (सन्ति) हैं। जिस प्रकार के (दुवस्युः) सेवक (पश्वः गोः-अग्रम्) बैल पशु के आगे २ के नासिका आदि भाग को (रज्या परि तुतूर्षति) रस्सी के द्वारा पीड़ित करता और आगे २ वेग से लेजाता है, इसी प्रकार मैं (दुवस्युः) तेरा सेवक (गोः-अग्रम्) वाणी के श्रेष्ठ अंश को (रजिष्ठया) अति सरल (रज्या) स्तुति से (परि तुतूर्षति) तेरी ओर वेग से आजाना चाहता है। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्दुवस्युर्वान्दनः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः–१–३ जगती। ४, ५, ७, ११ निचृज्जगती। ६, ८, १० विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती। १२ विराट् त्रिष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) हे परमात्मन् ! तव (भानुः) शक्तिरूपः प्रकाशः (चित्रः) चायनीयो दर्शनीयः (क्रतुपाः) कर्मणां पूरको यथोचितफलप्रदानेन (अभिष्टिः) अभिकाङ्क्षणीयः (स्पृधः-जरणिप्राः) तव स्पृहाः “स्पृह धातोः क्विप् हकारस्य धकारश्छान्दसः” स्तोतॄणां कामपूरयित्र्यः (अधृष्टाः सन्ति) अबाध्याः सन्ति (गोः पश्वः) यथा गोः पशोः (दुवस्युः) परिचारकः “दुवस्यति परिचरणकर्मा” [निघं० ३।५] (रजिष्ठया रज्या) अति सरलया रज्वा “वकारलोपश्छान्दसः” (अग्रं परि-आ तूतूर्षति) स्वग्रं सम्मुखं त्वरया प्रापयति तथा तव परिचारकः स्तोता सरलतया स्तुत्या त्वां स्वाग्रं त्वरया प्रापयति ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Wondrous is your light, adorable your gift of success in action, irresistible your will and power which gives fulfilment to the devotees. Just as a shepherd can lead a cow forward by a simple rope, so may the devotee realise your presence directly revealed before him by simple prayer and adoration.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या शक्तीचा प्रकाश करणाऱ्याला तो (योग्य) कर्मफल देतो. त्याची इच्छा स्तुती करणाऱ्याला कामनांनी पूर्ण करतो. जसे गोसेवक नरम दोरीने गायीला आपल्याकडे ओढून घेतो, तसे स्तुती करणाऱ्याची स्तुती अति सरळ असल्यामुळे तो परमेश्वराला आपल्याकडे आकर्षित करून घेतो. ॥१२॥
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