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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 100/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दुवस्युर्वान्दनः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    ऊ॒र्ध्वो ग्रावा॑ वसवोऽस्तु सो॒तरि॒ विश्वा॒ द्वेषां॑सि सनु॒तर्यु॑योत । स नो॑ दे॒वः स॑वि॒ता पा॒युरीड्य॒ आ स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृणीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वः । ग्रावा॑ । व॒स॒वः॒ । अ॒स्तु॒ । सो॒तरि॑ । विश्वा॑ । द्वेषां॑सि । स॒नु॒तः । यु॒यो॒त॒ । सः । नः॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । पा॒युः । ईड्यः॑ । आ । स॒र्वऽता॑तिम् । अदि॑तिम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वो ग्रावा वसवोऽस्तु सोतरि विश्वा द्वेषांसि सनुतर्युयोत । स नो देवः सविता पायुरीड्य आ सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वः । ग्रावा । वसवः । अस्तु । सोतरि । विश्वा । द्वेषांसि । सनुतः । युयोत । सः । नः । देवः । सविता । पायुः । ईड्यः । आ । सर्वऽतातिम् । अदितिम् । वृणीमहे ॥ १०.१००.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 100; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वसवः) हे बसानेवाले मनुष्यों ! (ऊर्ध्वः) उत्कृष्ट-ऊँचा (ग्रावा) विद्वान् (सोतरि) उत्पादक परमात्मा में (अस्तु) स्थिर होवे (विश्वा) सारे द्वेष भावों को (द्वेषांसि) अन्तर्हित-अन्दर ही अन्दर (युयोत) विलीन करे (सः) वह (सविता) उत्पादक (देवः) परमात्मदेव (नः) हमारा (ईड्यः) स्तुति करने योग्य है (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥९॥

    भावार्थ

    ऊँचा विद्वान् वह ही है, जो अपने को परमात्मा में स्थिर करता है और द्वेषभावों को अपने अन्दर ही विलीन कर देता है, परमात्मदेव हमारा स्तुति करने योग्य है, उस जगद्विस्तारक अनश्वर को अपनाना और मानना चाहिये ॥९॥

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    विषय

    प्रभु स्मरण व निद्वेषता

    पदार्थ

    [१] हे (वसवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले वसुओ ! (सोतरि) = अपने में सोम का [=वीर्यशक्ति] अभिषव करनेवाले मेरे में (ग्रावा) = वे उपदेष्टा प्रभु (ऊर्ध्वः अस्तु) = सर्वोत्कृष्ट हों । मैं सोम का अपने में रक्षण करूँ और सोम के रक्षण के द्वारा उस प्रभु को प्राप्त करनेवाला होऊँ । मेरे में प्रभु स्मरण की भावना प्रमुख हो । [२] हे वसुओ ! आप प्रभु-भावना को मेरे में सर्वोच्च स्थान देकर (विश्वा द्वेषांसि) = सब द्वेषों को, चाहे वे कितने ही (सनुतः) = अन्तर्हित हों, सूक्ष्मरूप से मेरे मन में घर किये हुए हों, उन्हें (युयोत) = मेरे से पृथक् करो। सबको प्रभु का सन्तान जानते हुए मैं किसी से द्वेष करूँगा ही क्यों ? [३] (सः) = वह (सविता देवः) = प्रेरक दिव्यगुणों का पुञ्ज प्रभु ही (पायुः) = हमारा रक्षक है और (ईड्यः) = स्तुति के योग्य है । उस प्रभु से हम (सर्वतातिम्) = सब गुणों का विस्तार करनेवाली (अदितिम्) = स्वास्थ्य की देवता को (आवृणीमहे) = सब प्रकार से वरते हैं । उस स्वास्थ्य को हम चाहते हैं, जो हमें सब दिव्यगुणों के देनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु-प्रवण होकर द्वेष से ऊपर उठें। प्रभु का ही स्मरण करें और पूर्ण स्वस्थ बनें।

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    विषय

    द्वेषभाव त्याग कर सर्वोत्तम प्रभु का वरण।

    भावार्थ

    हे (वसवः) पृथिवी, सूर्य, प्राणों आदि के तुल्य माता, पिता और गुरु आदि विद्वान् जनो ! (सोतरि) सब के शासक, उत्पादक प्रभु के आश्रय ही (ग्रावा) उत्तम उपदेष्टा (ऊर्ध्वः) सब से उच्च है। आप लोग (सनुतः) हमारे छिपे (द्वेषांसि) सब द्वेषों को भी (युयोत) दूर करो। (सः देवः) वह देव, सब सुखों का दाता, सर्वप्रकाशक प्रभु (नः) हमारा (पायुः) पालक और (ईड्यः) वन्दनीय और स्तुत्य है। उस (सर्वतातिम् अदितिं आ वृणीमहे) सर्वमंगलकारी प्रभु से हम प्रार्थना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्दुवस्युर्वान्दनः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः–१–३ जगती। ४, ५, ७, ११ निचृज्जगती। ६, ८, १० विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती। १२ विराट् त्रिष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वसवः) हे वासयितारो जनाः ! (ऊर्ध्वः-ग्रावा) उत्कृष्टो विद्वान् (सोतरि-अस्तु) उत्पादकपरमात्मनि स्थिरीभवतु (विश्वा द्वेषांसि) विश्वानि द्वेषवृत्तानि (सनुतः-युयोत) अन्तर्हितं करोतु (सः सविता देवः-नः) स उत्पादकः परमात्मदेवोऽस्माकं (ईड्यः) स्तुत्योऽस्ति तं (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Vasus, givers of peace and shelter, may the learned be highly respected in the soma yajaka’s yajna. Uproot and throw off all jealousies and enmities of the world from afflicted hearts. May the self-refulgent Savita be our saviour, protector and our adorable lord and master. We honour and adore the all generous and blissful imperishable mother Infinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो आपल्याला परमेश्वरात स्थिर करतो व द्वेषभाव आतच विलीन करतो तोच उच्च विद्वान आहे. परमात्मा स्तुती करण्यायोग्य आहे. त्या जगाच्या विस्तारक अनश्वराला मानले व स्वीकारले पाहिजे. ॥९॥

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