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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बुधः सौम्यः देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद्बु॑ध्यध्वं॒ सम॑नसः सखाय॒: सम॒ग्निमि॑न्ध्वं ब॒हव॒: सनी॑ळाः । द॒धि॒क्राम॒ग्निमु॒षसं॑ च दे॒वीमिन्द्रा॑व॒तोऽव॑से॒ नि ह्व॑ये वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । बु॒ध्य॒ध्व॒म् । सऽम॑नसः । स॒खा॒यः॒ । सम् । अ॒ग्निम् । इ॒न्ध्व॒म् । ब॒हवः॑ । सऽनी॑ळाः । द॒धि॒ऽक्राम् । अ॒ग्निम् । उ॒षस॑म् । च॒ । दे॒वीम् । इ॒न्द्र॒ऽव॒तः । अव॑से । नि । ह्व॒ये॒ । वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्बुध्यध्वं समनसः सखाय: समग्निमिन्ध्वं बहव: सनीळाः । दधिक्रामग्निमुषसं च देवीमिन्द्रावतोऽवसे नि ह्वये वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । बुध्यध्वम् । सऽमनसः । सखायः । सम् । अग्निम् । इन्ध्वम् । बहवः । सऽनीळाः । दधिऽक्राम् । अग्निम् । उषसम् । च । देवीम् । इन्द्रऽवतः । अवसे । नि । ह्वये । वः ॥ १०.१०१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (1)

    विषय

    इस सूक्त में विद्वानों को कलायन्त्रनिर्माण करना तथा खेती कार्य के लिये कूप आदि बनाना, उसमें जलपात्रसहित चक्र राहट लगाना चाहिये, इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (समनसः) समान मनवाले (सनीळाः) समान आश्रयवाले (सखायः) समान ख्यानवाले-समान ज्ञान चेतनावाले (बहवः) बहुसंख्यक-गणरूप में आये हुए मनुष्यों (उत् बुध्यध्वम्) उद्बुद्ध होवो (अग्निम्) अग्रणेता परमात्मा को (सम् इन्ध्वम्) अपने आत्मा में सम्यक् प्रकाशित करो (दधिक्राम्) मेघों को धारण करते हुए चलनेवाले वायु को (अग्निम्) पृथिवीस्थ अग्नि को (च) और (उषसं देवीम्) चमकती हुई उषा को (वः-इन्द्रावतः) इन तुम सब परमात्मा के आश्रयवालों को (अवसे) रक्षा के लिए (नि ह्वये) नियम से स्वीकार करता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    जलवृष्टि कराने के लिये बहुत से विद्वान् एक मन एक परमात्मा के आश्रय और एक भावना से एक उच्चध्वनि से मन्त्रोच्चारण करते हुए परमात्मा का ध्यान करें तथा आकाश में मेघों को उड़ाये ले जाते हुए वायु तथा पृथिवी की अग्नि और उषावेला में उनका नियम से उपयोग करें ॥१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते विद्वद्भिः कलायन्त्रनिर्माणं कर्तव्यं तथा कृषिकार्याय भूमेर्विलेखनं सेचनाय च जलाशयो निर्मातव्यस्तत्र जलपात्रयुक्तचक्रं च योजितव्यमित्येवमादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (समनसः) समानमनस्काः (सनीकाः) समानाश्रयवन्तः (सखायः) समानख्यानाः (बहवः) बहुसंख्यकाः सन्तः (उत् बुध्यध्वम्) उद्बुद्धाः भवत (अग्निं सम् इन्ध्वम्) अग्रणेतारं परमात्मानं सम्यक् स्वात्मनि प्रकाशयत (दधिक्राम्-अग्निम्-उषसं देवीं वः-इन्द्रावतः) मेधान् दधत् धारयन् क्रामति गच्छति यस्तं मध्यस्थानकं वायुम्-अग्निं पृथिवीस्थानकं तथोषोदेवीं युष्मान् परमात्ववतः परमात्माश्रितान् (अवसे निह्वये) रक्षणाय नियमेन स्वीकरोमि “ह्वये स्वीकरोमि” [ऋ० १।६४।२६ दयानन्दः] ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Awake, arise, O friends of equal mind, light the fire together, more than many living and working together under the same one roof of equal order, lovers of energy, worshippers of Indra, one lord omnipotent of nature and entire humanity. I call upon you and exhort you for the sake of mutual defence and protection and for common progress of all. Light and develop the fire energy of the earth, atmospheric energy of thunder and lightning of the sky, and the divine energy of the rising dawn of the sun.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जलवृष्टी होण्यासाठी पुष्कळ विद्वानांनी एक मन एक परमात्म्याचा आश्रय एक भावनेने एक उच्च ध्वनीने मंत्रोच्चारण करत परमात्म्याचे ध्यान करावे व आकाशात मेघांना घेऊन जाणाऱ्या वायू व पृथ्वीचा अग्नी व उषा यांचा नियमाने उपयोग करावा. ॥१॥

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