ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 9
ऋषिः - बुधः सौम्यः
देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
आ वो॒ धियं॑ य॒ज्ञियां॑ वर्त ऊ॒तये॒ देवा॑ दे॒वीं य॑ज॒तां य॒ज्ञिया॑मि॒ह । सा नो॑ दुहीय॒द्यव॑सेव ग॒त्वी स॒हस्र॑धारा॒ पय॑सा म॒ही गौः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वः॒ । धिय॑म् । य॒ज्ञिया॑म् । व॒र्ते॒ । ऊ॒तये॑ । देवाः॑ । दे॒वीम् । य॒ज॒ताम् । य॒ज्ञिया॑म् । इ॒ह । सा । नः॒ । दु॒ही॒य॒त् । यव॑साऽइव । ग॒त्वी । स॒हस्र॑ऽधारा । पय॑सा । म॒ही । गौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वो धियं यज्ञियां वर्त ऊतये देवा देवीं यजतां यज्ञियामिह । सा नो दुहीयद्यवसेव गत्वी सहस्रधारा पयसा मही गौः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वः । धियम् । यज्ञियाम् । वर्ते । ऊतये । देवाः । देवीम् । यजताम् । यज्ञियाम् । इह । सा । नः । दुहीयत् । यवसाऽइव । गत्वी । सहस्रऽधारा । पयसा । मही । गौः ॥ १०.१०१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवाः) हे विद्वानों ! (वः) तुम्हारी (यज्ञियां धियम्) सङ्गमनीय उपदेशवाणी को (ऊतये) रक्षा के लिए (आवर्त्ते) आवर्तित करता हूँ-पुनः-पुनः सेवन करता हूँ (इह) इस जीवन में (यजतां देवीम्) पूजनीय देवता की भाँति (यज्ञियाम्) सङ्गमनीय को अवश्य सेवन करता हूँ (सा) वह (मही गौः) प्रशंसनीय गौ (यवसा-इव) जैसे घास से-घास को खाकर (गत्वी) घर में जाकर-प्राप्त होकर (सहस्रधारा) बहुत धारवाली (पयसा) दूध से (नः) हमें (दुहीयत्) प्रपूरित करे ॥९॥
भावार्थ
विद्वानों से उपदेशवाणी का श्रवण करना चाहिये, अपनी जीवनरक्षा के लिए बारम्बार उसको स्मरण करना और अपने जीवन में घटाना चाहिये, वह दूध देनेवाली गौ की भाँति अमृत को प्रदान करती है ॥९॥
विषय
यज्ञिया धीः
पदार्थ
[१] हे (देवाः) = विद्वानो ! मैं (वः) = आपकी (यज्ञियाम्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित होनेवाली (धियम्) = बुद्धि को (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (आवर्ते) = अपने में आवृत्त करता हूँ । उस बुद्धि को जो (यजताम्) = आदरणीय है और (इह) = इस जीवन में (यज्ञियाम्) = हमें यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाली है, (देवीम्) = प्रकाशमय है । इस बुद्धि के द्वारा हमारा जीवन प्रकाशमय होता है और हम यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं । [२] (सा) = वह बुद्धि (नः) = हमें (पयसा) = ज्ञानदुग्ध से (दुहीयत्) = उसी प्रकार हमें पूर्ण करे, (इव) = जैसे (यवसा गत्वी) = घास के लिए जाकर (सहस्त्रधारा) = शतश: पुरुषों का धारण करनेवाली (मही) = महनीय व पूजनीय (गौ:) = गौ (पयसा) = दूध से हमारा पूरण करती है।
भावार्थ
भावार्थ- हमें देवों की पवित्र बुद्धि प्राप्त हो जो हमें ज्ञानदुग्ध से पूर्ण करनेवाली हो ।
विषय
वेदवाणी को धारण करने का उपदेश। वेदवाणी की गौ से उपमा।
भावार्थ
हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! मैं (वः) आप लोगों की (यज्ञियां धियं) पूज्य परमेश्वर को प्राप्त करने योग्य कर्म और बुद्धि को (आ वर्ते) प्रेरित करता हूँ। आप लोग (ऊतये) रक्षा के लिये (यज्ञियाम्) यज्ञ योग्य (यजतां) पूजनीय, सुखदायी (देवीम्) प्रभुशक्ति वा वाणी को धारण करो, उसकी उपासना करो। (यवसा इव गत्वी गौः) घास, भुस, अन्नादि को पाकर पुष्ट गौ के समान वह (मही) महती शक्ति (सहस्रधारा) सहस्रों सुखों को धारण करने वाली, वा सहस्रों वाणियों वाली होकर (नः पयसा दुहीयत्) हमें दूधवत् ज्ञान, बल से पूर्ण करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्बुधः सौम्यः॥ देवता—विश्वेदेवा ऋत्विजो वा॥ छन्दः– १, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ८ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ गायत्री। ५ बृहती। ९ विराड् जगती। १२ निचृज्जगती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवाः) हे विद्वांसः ! (वः) युष्माकं (यज्ञिया धियम्-ऊतये-आवर्ते) सङ्गमनीयामुपदेशवाचम्-“वाग्वै धीः” [काठ० ४।३।४।११] रक्षायै-आवर्तयामि-समन्तात् सेवे, (इह यजतां देवीं यज्ञियाम्) पूजनीयां देवतामिव सम्भजनीयामस्मिन् जीवनेऽवश्यं सेवे (सा) सा खलूपदेशवाक् (मही गौः) महनीया गौः (यवसा-इव) यथा घासेन घासं भक्षयित्वा (गत्वी) गृहं गत्वा (सहस्रधारा) बहुधारा (पयसा नः-दुहीयत्) दुग्धेन अस्मान् प्रपूरयेत् ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O saints and scholars, noble people all, I exhort your spirit of self-sacrifice for thought and action, exalt this holy yajnic spirit, will and intelligence. And may this great spirit and divine will bring us a thousand streams of nectar joy and prosperity like the cow fed on grass which gives us milk for life and health.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांकडून उपदेशवचन ऐकले पाहिजे. आपल्या जीवन रक्षणासाठी वारंवार त्या वाणीचे स्मरण केले पाहिजे व आपल्या जीवनात उतरविली पाहिजे. विद्वानाची वाणी दूध देणाऱ्या गायीप्रमाणे ज्ञान अमृत प्रदान करते. ॥९॥
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