ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 12
ऋषिः - बुधः सौम्यः
देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
कपृ॑न्नरः कपृ॒थमुद्द॑धातन चो॒दय॑त खु॒दत॒ वाज॑सातये । नि॒ष्टि॒ग्र्य॑: पु॒त्रमा च्या॑वयो॒तय॒ इन्द्रं॑ स॒बाध॑ इ॒ह सोम॑पीतये ॥
स्वर सहित पद पाठकपृ॑त् । न॒रः॒ । क॒पृ॒थम् । उत् । द॒धा॒त॒न॒ । चो॒दय॑त । खु॒दत॑ । वाज॑ऽसातये । नि॒ष्टि॒ग्र्यः॑ । पु॒त्रम् । आ । च्या॒व॒य॒ । ऊ॒तये॑ । इन्द्र॑म् । स॒ऽबाधः॑ । इ॒ह । सोम॑ऽपीतये ॥
स्वर रहित मन्त्र
कपृन्नरः कपृथमुद्दधातन चोदयत खुदत वाजसातये । निष्टिग्र्य: पुत्रमा च्यावयोतय इन्द्रं सबाध इह सोमपीतये ॥
स्वर रहित पद पाठकपृत् । नरः । कपृथम् । उत् । दधातन । चोदयत । खुदत । वाजऽसातये । निष्टिग्र्यः । पुत्रम् । आ । च्यावय । ऊतये । इन्द्रम् । सऽबाधः । इह । सोमऽपीतये ॥ १०.१०१.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कपृत्) सुख से पूरित किये जाते हैं, तृप्त किये जाते हैं, ऐसे वे (नरः) मनुष्य (कपृथम्) सुखपूरक परमात्मा को (उत्-दधातन) उत्कृष्टरूप से धारण करें (वाजसातये) अमृतान्नप्राप्ति के लिए (चोदयत खुदत) उसकी प्रार्थना करें-और उसमें खेलें-रमण करें (निष्टिग्र्यः) निष्पापजन के (पुत्रम्-इन्द्रम्) रक्षक परमात्मा को (सबाधः) बाधामुक्त हुआ (ऊतये) रक्षा के लिए (आच्यावय) प्राप्त करो (इह सोमपीतये) इस संसार में आनन्दरसपान करने के लिए ॥१२॥
भावार्थ
सुख चाहनेवाला मनुष्य सुखपूर्ण करनेवाले परमात्मा को उत्कृष्ट भावना से अपने अन्दर धारण करें, उसके अन्दर रमण करें, वह परमात्मा निष्पापजन का रक्षक, पीड़ा से बचानेवाला आनन्दरस का देनेवाला है ॥१२॥
विषय
आत्मक्रीड [ आत्मरति ]
पदार्थ
[१] हे (नरः) = मनुष्यो ! वे प्रभु (कपृत्) = तुम्हारे जीवन में सुख का पूरण करनेवाले हैं। उस (कपृथम्) = आनन्द के पूरक प्रभु को ही (उद्दधातन) = उत्कर्षेण धारण करो । (चोदयत) = उस प्रभु को ही अपने हृदयों में प्रेरित करो। सर्वभावेन उस प्रभु का ही भावन करो। वाजसातये शक्ति की प्राप्ति के लिए (खुदत) = उसी में क्रीडा करो आत्मक्रीड व आत्मरति बनो । [२] 'अदिति' स्वास्थ्य की देवता है [अ+दिति-खण्डन] । 'निष्टि' अर्थात् विनास अदिति की सपत्नी [शत्रु] है । उस निष्टि को 'गिरति' निगल जाने के कारण अदिति ही 'निष्टिग्री' है प्रभु को इसका पुत्र कहा है जैसे बल के पुञ्ज प्रभु के लिए 'सहसः पुत्रम्' का प्रयोग होता है । उस (निष्टिग्रयः पुत्रम्) = अदिति के पुत्र, अदिति के पुतले मूर्त्तिमान् अदिति प्रभु को (ऊतये) = रक्षा के लिए (आच्यावय) = सब प्रकार से प्राप्त कर । प्रभु के धारण से मनुष्य पूर्ण स्वस्थ बनता है, उसे न केवल शारीरिक अपितु मानस स्वास्थ्य भी प्राप्त होता है । [३] (इह) = इस जीवन में (सोमपीतये) = शरीर में सोमशक्ति के रक्षण के लिए हे (सबाधः) = वासनारूप शत्रुओं के बाधन के साथ विचरनेवाले लोगों (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को [आच्यावय] प्राप्त करो। प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही तो तुम इन शत्रुओं का बाधन कर सकोगे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का हम धारण करें, भावन करें। प्रभु में ही क्रीडा करनेवाले हों । उस प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर ही हम वासनारूप शत्रुओं का विदारण कर पाएँगे । सम्पूर्ण सूक्त प्रभु की ओर चलने का वर्णन कर रहा है। योगांगों के अनुष्ठान से हम शरीर को स्वस्थ व मन को निर्मल बनाकर प्रभु की ओर चलें । अन्ततः आत्मक्रीड हों। ऐसा बनने के लिए हम 'मुद्गलः' [ओषधयो वै मुदः श० ९।४।१।७] ओषधि वनस्पतियों का ही सेवन करनेवाले हों और अपने इन्द्रियाश्वों को 'मर्म' तेजस्विता से पूर्ण बनाकर 'भार्म्यश्वः ' बनें। यह 'मुद्गल भार्म्यश्व' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह प्रभु से निवेदन करता है कि-
विषय
सुखमय प्रभु की उपासना द्वारा आत्म-साधना का उपदेश।
भावार्थ
हे (नरः) मनुष्यो ! वह प्रभु (कपृत्) सुख से जगत् को पूर्ण करने वा सुख का विस्तार करने वाला है। उस (कपृथम्) सुखपूरक, आनन्दघन प्रभु को (उत् दधातन) सबसे ऊंचा करके अपने चित्त में धारण करो। और (वाज-सातये) ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, आनन्द लाभ के लिये, अन्न के लिये जल से पूर्ण मेघ के तुल्य ही (चोदयत) उसकी स्तुति करो। (खुदत) उसी में आनन्द लाभ करो। उसी में रमो और विहरो। हे (सबाधः) लोक-पीड़ाओं से दुःखी जनो ! वा बाधना अर्थात् प्रतिपक्ष भावना के अभ्यासी जनो ! आप लोग (इह) इस लोक में (ऊतये) रक्षा के निमित्त (निष्टिग्र्यः पुत्रम्) निःशेष तीक्ष्ण वा आत्म शक्ति के वा ‘निष्टि’ नाश वाले देह विश्व आदि को जीर्ण करने वा अपने भीतर लेने वाले, नित्य शक्ति वाले प्रभु के ‘पुत्रवत्’, बहुतों के पालक (इन्द्रम्) इन्द्र, आत्मा को (आच्यावय) सब प्रकार से प्राप्त करो। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्बुधः सौम्यः॥ देवता—विश्वेदेवा ऋत्विजो वा॥ छन्दः– १, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ८ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ गायत्री। ५ बृहती। ९ विराड् जगती। १२ निचृज्जगती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कपृत्) सुखेन पूर्यन्ते तृप्यन्ते ये ते “जसो लुक्” कं सुखनाम [निघ० ३।६] पृ धातोः क्विप् कर्मणि (नरः) जनाः (कपृथम्) सुखपूरकं परमात्मानम् (उद्-दधातने) उत्कृष्टतया धारयत (वाजसातये) अमृतान्नप्राप्तये “अमृतोऽन्नं वाजः” [जैमि० २।१९३] (चोदयत-खुदत) प्रेरयत प्रार्थयध्वं-क्रीडयत “खुर्द क्रीडायाम्” [भ्वादि०] रेफलोपश्छान्दसः (निष्टिग्र्यः पुत्रम्-इन्द्रम्) “न इष्टिर्यस्मिन्-निष्टिः पापम्” “पृषोदरादिनेष्टसिद्धिः” पापं पापेनोपार्जितं गिरति खादति निष्टिग्रीः ”क्रीः प्रत्ययो बाहुलकादौणादिकः” तस्य पवित्रकारकं परमात्मानं “पुत्रः यः पुनाति सः” [ऋ० १।१८१।४६ दयानन्दः] “पुवो ह्रस्वश्च क्तः प्रत्ययः” [उणादि० ४।१६५] (सबाधः) बाधासहितः (ऊतये-आच्यावय) रक्षायै प्राप्नुहि (इह सोमपीतये) अत्रानन्दरसपानाय ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Noble yajakas, Divinity is kind. Hold the gracious presence in the depths of the mind, move it for grace, rejoice in the presence and pray for food, energy and fulfilment of life. Adore and exalt the divine spirit of Eternity, Indra, for freedom from bondage and for the ecstasy of being here on earth itself.
मराठी (1)
भावार्थ
सुख इच्छिणाऱ्या माणसांनी परमेश्वराला उत्कृष्ट भावनेने आपल्यामध्ये धारण करावे, त्याच्यात रमण करावे. तो परमात्मा निष्पाप जनांचा रक्षक, त्रासापासून वाचविणारा, आनंदरस देणारा आहे. ॥१२॥
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