ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 11
ऋषिः - बुधः सौम्यः
देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒भे धुरौ॒ वह्नि॑रा॒पिब्द॑मानो॒ऽन्तर्योने॑व चरति द्वि॒जानि॑: । वन॒स्पतिं॒ वन॒ आस्था॑पयध्वं॒ नि षू द॑धिध्व॒मख॑नन्त॒ उत्स॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भे इति॑ । धुरौ॑ । वह्निः॑ । आ॒ऽपिब्द॑मानः । अ॒न्तः । योना॑ऽइव । च॒र॒ति॒ । द्वि॒ऽजानिः॑ । वन॒स्पति॑म् । वने॑ । आ । अ॒स्था॒प॒य॒ध्व॒म् । नि । सु । द॒धि॒ध्व॒म् । अख॑नन्तः । उत्स॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभे धुरौ वह्निरापिब्दमानोऽन्तर्योनेव चरति द्विजानि: । वनस्पतिं वन आस्थापयध्वं नि षू दधिध्वमखनन्त उत्सम् ॥
स्वर रहित पद पाठउभे इति । धुरौ । वह्निः । आऽपिब्दमानः । अन्तः । योनाऽइव । चरति । द्विऽजानिः । वनस्पतिम् । वने । आ । अस्थापयध्वम् । नि । सु । दधिध्वम् । अखनन्तः । उत्सम् ॥ १०.१०१.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उभे धुरौ) दोनों संसार और मोक्ष के आनन्दरस को (आपिब्दमानः) भलीभाँति पिलानेवाला-प्राप्त करानेवाला (वह्निः) वहन करनेवाला परमात्मा (द्विजानि) दोनों संसार मोक्ष में प्रसिद्ध हुआ (योना-इव) हृदय के अन्दर (चरति) विचरता है-प्राप्त होता है (वनस्पतिम्) वननीय आत्मा के पालक परमात्मा को (वने) वननीय अपने आत्मा में (नि-सु-आ-अस्थापयध्वम्) नियमरूप से भलीभाँति धारण करो (उत्सम्-अखनन्तः) पुनः आनन्दरस को उद्घाटित करो ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा संसार और मोक्षधाम दोनों का अधिनायक स्वामी है, उसकी स्तुति प्रार्थना और उपासना करने से संसार का सच्चा सुख और मोक्ष का आनन्द प्राप्त होता है तथा अपने आत्मा का वननीय आश्रय है, हृदय में साक्षात् होनेवाला है ॥११॥
विषय
उत्स - खनन
पदार्थ
[१] (उभे धुरौ) = दोनों धुराओं का (वह्निः) = वहन करनेवाला, इहलोक व परलोक के अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को प्राप्त करनेवाला, (आपिब्दमानः) = [पिब्दनाः पेष्टुमर्हाणि शत्रुमैनानि द० ६। ४६।६ पर] वासनारूप शत्रुओं का पेषण करता हुआ (द्विजानिः) = सरस्वती व लक्ष्मीरूप दो पत्नियोंवाला [श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ० ] अथवा ब्रह्म व क्षत्र - ज्ञान और बल दोनों का विकास करनेवाला (अन्त: योना इव) = उस सबके उत्पत्ति - स्थान ब्रह्म में घर की तरह (चरति) = विचरण करता है । [२] (वनस्पतिम्) = [वनस्=loreliness, glory, wealth] सब सौन्दर्यों यशों व धनों के स्वामी उस प्रभु को (वने) = उपासना के होने पर (आस्थापयध्वम्) = अपने हृदय मन्दिर में स्थापित करो, (नि सुदधिध्वम्) = निश्चय से उस प्रभु को अपने में धारित करो। प्रभु के भावन को हृदय में सदा धारण करो। ऐसा करनेवाले ही (उत्सम् अखनन्त) = अपने अन्दर आनन्द के स्रोत को खोदने वाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासक ही अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है ।
विषय
गृह में दो स्त्रियों के पति के तुल्य उभय इन्द्रियवर्गों के स्वामी आत्मा के साधनादि का वर्णन।
भावार्थ
(वह्निः) देह को वहन करने वाला आत्मा (आ-पिब्दमानः) सर्वत्र पूर्ण, प्रसन्न होता हुआ, (योना इव द्वि-जानिः) गृह में दो स्त्रियों के स्वामी के समान (उभे धुरौ अन्तः) देह के भीतर दोनों देहधारक इन्द्रिय-शक्तियों का (चरति) भोग करता है। और उनके बीच में गति करता है। (वनस्पतिम्) नाना विषयों को सेवन करने वाले इन्द्रियगण के पालक आत्मा को (वने) संभजन योग्य प्रभु में (आ-स्थापयध्वम्) स्थापित करो। (नि दधिध्वम्) आत्मा को उस में स्थिर करो। और (उत्सम्) रसों के परम आश्रय उस प्रभु को (अखनन्त) कूप के समान श्रमपूर्वक खोदकर, श्रम कर के जलवत् परम रस प्राप्त करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्बुधः सौम्यः॥ देवता—विश्वेदेवा ऋत्विजो वा॥ छन्दः– १, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ८ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ गायत्री। ५ बृहती। ९ विराड् जगती। १२ निचृज्जगती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उभे धुरौ) उभौ संसारमोक्षानन्दरसौ (आपिब्दमानः) समन्तात् पिब्दमानः पाययमानः-प्रापयमाणः “पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः” (वह्निः) वाहकः परमात्मा (द्विजानिः) द्वयोः संसारमोक्षयोः प्रसिद्धमानः (योना-इव) हृदयेऽन्तः-“इवोऽपि दृश्यते पदपूरणः” (चरति) विचरति (वनस्पतिं वने नि सु-आ-अस्थापयध्वम्) तं वननीयस्यात्मनः पतिं पालकं परमात्मानं वने वननीयं स्वात्मनि नियतं सुष्ठु धारयत (उत्सम्-अखनन्तः) ततः-आनन्दरसं खनन्तः-खनन्हेतोः ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Bearing two poles of life, the mind, like a chariot horse, goes voluble flying like a bird over the sky. O yajaka, place the fire amid the samits, dig into depths of the soul and hold on there.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा संसार व मोक्षधाम दोन्हींचा अधिनायक आहे. त्याची स्तुती व प्रार्थना आणि उपासना करण्याने जगाचे खरे सुख व मोक्षाचा आनंद प्राप्त होतो. तो आपल्या आत्म्याचा आश्रय आहे. हृदयात साक्षात होणारा आहे. ॥११॥
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